बिहार में चुनाव प्रक्रिया अभी हाल ही में पूर्ण हुई और जैसा कि किसी ने नहीं सोचा था, एनडीए ने बिहार में बहुमत प्राप्त किया और अब सरकार बनाने को अग्रसर हो रही है। चुनाव से पहले जैसा कि हमेशा होता है, फ़ेसबुक-व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी पर दिल्ली, मुंबई और कलकत्ता में बैठी चरसी वामपंथनों ने यह बताना शुरू कर दिया था कि मोदी का खेल ख़त्म हो चुका है और कैसे बिहार मोदी और भाजपा को नकारता है। वो बात और है कि चार-पाँच धूर्त कामपंथियों के अलावा इनका बाकी ऑडियंस भी इन्हें दुत्कारता ही हैं और हँसी उड़ाता हैं।
मगर मजेदार बात तो यह रही कि हार की बौखलाहट में इन्होंने उन बिहारी मजदूरों और वंचित लोगों को ही कोसना शुरू कर दिया जिनके नाम पर वे अब तक दो कौड़ी की कविताएं कर के कामपंथियों के बीच वाहवाही बटोर रहीं थीं। दीदी हालाँकि ख़ुद केजरीवाल की समर्थक हैं मगर ज्ञान औरों को दे रहीं हैं कि किसे वोट देना चाहिए और कौन किस प्रकार की यातनाएं डीज़र्व करता है। अब चूँकि ये लोग वामपंथी हैं, तो इनमें मस्तिष्क होना और उसमें बुद्धि होना अस्वाभाविक ही है। एक औसत वोक वामपंथी अपने एलीट समूहों में बैठकर औरों को कोसने और मूर्ख बताने के अलावा कुछ खास नहीं करता। उसे लगता है कि सामने वाला भी उसके जितना ही मुर्ख है जो उसकी बातों पर ध्यान देगा। सर्वहारा की बात करने वाला वामपंथी आज सर्वहारा द्वारा सिर्फ़ और सिर्फ़ दुत्कारा जा रहा है। इसकी क्या वजहें हो सकती हैं और ऐसी क्या ख़ास वजह है कि मोदी इन्हीं लोगों के बीच और ज़्यादा लोकप्रिय और स्वीकार्य होते जा रहे हैं?
वुहान वाइरस लॉकडाउन और उसके बाद तक मैंने कुछ चीज़ें देखी और समझी। उसी से यह समझाने का प्रयास कर रहा हूँ।
लॉकडाउन के शुरुआती महीनों में मुझे मेरे ननिहाल में रहने का मौका मिला। मेरा ननिहाल राजस्थान के एक काफ़ी पिछड़े गाँव में पड़ता है जहां अधिकांश लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं और छोटे-मोटे काम करके अपना गुज़ारा करते हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि ऐसी जगह पर लोगों को इस बीमारी की गंभीरता और इससे बचने के तरीके जैसे कि मास्क वगैरह की महत्ता के बारे में समझाना थोड़ा मुश्किल होगा। मगर मेरी अवधारणाओं के विपरित, लोगों की समझदारी और सजगता देखकर मैं हैरान था। थोड़े दिन रहने पर धीरे-धीरे समझ आया कि इतने पिछड़े गांव में भी लोगों में इतनी सजगता कैसे थी। लोगों और घरवालो की बातें सुनकर यह समझ आया कि प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संबोधन और मन की बात हर व्यक्ति तक ज़रूरी सूचनाएं पहुंचाने का काम कर रहे थे। लोगों ने जनता कर्फ्यू का भी बड़ी श्रद्धा से पालन किया, ताली और थाली भी बजाई, साथ ही दीप भी जलाए। “मोदी ने ये करने को बोला है” अक्सर सुनने मिल जाता था। महिलाओं तो घर में कपड़े के मास्क बना कर आसपास के घरों में भी बाँट दिए थे। यह सब प्रधानमंत्री मोदी के ज़बरदस्त जन संपर्क और जनमानस तक पहुँच का तो नतीजा था ही, साथ ही प्रधानमंत्री की स्वीकार्यता और उनके आदर का परिचायक भी। यह भले ही अतिशयोक्ति लगेगी, मगर वे उस समय राष्ट्र के अभिभावक की तरह प्रतीत हो रहे थे।
जहां दो रुपए उधार लेकर सिगरेट पीने वाले काॅमरेड उनके भाषणों को बकवास, लंबा, गैरज़रूरी बता रहे थे, वहीं प्रधानमंत्री लगातार यह बातें कर रहे थे क्योंकि उन्हें अपनी टार्गेट ऑडियंस पता थीं और उन्होंने अपनी इस जन स्वीकार्यता और लोकप्रियता का बखूबी ईस्तेमाल किया। यही एक बहुत बड़ा अंतर है, सोशल मीडिया पर लंबी-लंबी पोस्ट लिखकर ज्ञान झाड़ने वाले इन धूर्तों में और कर्मठ संघियों में। इन लोगों का वास्तविकता में इनके दो-चार क्रांतिकारी गुटों के अलावा कोई उठाव नहीं है और ये लोग ज़मीनी हक़ीक़त से कोसों दूर हैं। इसीलिए जब ये लोग प्रधानमंत्री के लंबे और लगातार होने वाले भाषणों का मज़ाक़ उड़ाते हैं, तब इनकी धूर्तता और मंदबुद्धि के अलावा कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
एक गरीब परिवार से आने वाले मोदी ने लंबा समय लोगों के बीच गुज़ारा है फिर चाहे वो संघ के कार्यकर्ता के रूप में या फिर सक्रिय राजनीति में, वे लोगों के मन तक पहुंचना और उसे जीतना बख़ूबी जानते हैं और इसी ख़ासियत ने उन्हें ‘लार्जर देन लाइफ़’ फ़िगर बना दिया है। चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा, कोई माने या ना माने, मोदी इस देश के अब तक के सबसे लोकप्रिय और स्वीकार्य नेता हैं। फिर वो चाहे वुहान वाइरस से हमारी लड़ाई हो, चीन से सीमा विवाद हो, आत्मनिर्भर भारत और वोकल फाॅर लोकल अभियान हो, लोगों ने उनका भरपूर समर्थन किया है। यह मोदी ही हैं जो हर अभियान को एक उत्सव में बदल सकते हैं और जिस तरह लोग लोकल और स्वदेशी चीज़ों को अपना रहे हैं और इस मुहिम का समर्थन कर रहे हैं, यह बात प्रमाणित होती है।
इसीलिए हे वामपंथी लम्पटों! अपने एलीटिज़म से बाहर निकलों, ज़मीनी हक़ीक़त को समझों और काम की बात करों। वर्ना सर्वहारा तो तुम्हारा मार्क्सवादी यूटोपिया कब की नकार ही चुकीं हैं, कहीं ये न हो कि बची कूची मान्यता भी ख़त्म हो जाए और कॉलेज-यूनिवर्सिटी के बाहर कोई श्वान भी ना पूछे। फिर लिखते रहों फ़ेसबुक पर लंबे-चौड़े लेख और बताते रहों कि कैसे सब मोदी को नकारते हैं और उनकी हर जीत पर लोगों को कोसते रहों!
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