भूमिका: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प.पु श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी ‘गुरुजी’ अपने सहज सामान्य जीवन में एक तत्व को जीते थे और अपने कई बौद्धिक वर्गों में वे इस तत्व का उल्लेख भी करते थे। गुरुजी के जीवन चरित्र का दर्शन करने पर उस तत्व का दर्शन संभव है। यह एक स्वयंसेवक में विलीन तत्व था जिसे वे ‘स्वयंसेवक्त्व ‘ कहते थे। जिस रूप में उनके जीवन चरित्र से यह तत्व झलकता है और जिस रूप में वे इसका वर्णन करते थे उससे प्रतीत होता है मानो; इस तत्व के जागरण से जीवन जीने का एक अलग आयाम मिलता है, एक ऐसा आयाम जहाँ एक व्यक्ति सहज ही स्व के माध्यम से स्व से परे जा कर समिष्ठी से जुड़ जाता है। यह पूर्णता की कल्पना है, शिवत्व की कल्पना है। अब यह आध्यात्मिक दर्शन भौतिकतावादी समाज की समझ से परे है। परन्तु इस आध्यात्मिक तत्व का भौतिक सत्य है कि इससे पोषित स्व को जागृत कर इस स्वयंसेवक्त्व के आयाम को जीने वाले सामान्य लोगों ने इस विश्व के सबसे बड़े स्वंयसेवी संगठन को खड़ा किया है। आज विश्व के सभी बड़े राजनीतिक शास्त्रियों, समाज शास्त्रियों के लिए इस संगठन का अस्तित्व शोध का विषय बना है। परंतु उनकी भौतिकतावादी सोच उन्हें संघ के अस्तित्व का दर्शन नहीं करा पाई, कारण ऐसा है कि संघ का अस्तित्व उसके प्रत्येक घटक अर्थात प्रत्येक स्वयंसेवक मैं सत्त बहने वाले आध्यात्मिक द्रव्य (स्वयंसेवक्त्व) में विलीन है।
मेरे इस तर्क का आधार कुछ इस प्रकार है: यदि संघ किसी भौतिक वस्तु के अर्जन के आधार पर बना संगठन होता तो संघ की स्थापना के उपरांत जो चुनौतियां सामने आई जिनमें ब्रिटिश राज में लगी बंदी, स्वतंत्रता के पश्चात १९४८ में द्वेष भाव के कारण लगी बंदी, १९७५ में इमजेंसी के काल की बंदी, राम जन्मभूमि आंदोलन काल की बंदी, कम्युनिस्टों द्वारा सैकड़ों स्वयंसेवकों को की हत्याएं और सनातन संस्कृति के प्रति द्वेष की भावना के कारण संघ को कुचलने के अनंत प्रयास शामिल है। ऐसी चुनौतियों से गुजरने पर किसी भी भौतिक वस्तु के अर्जन से जुड़े संगठन का पतन निश्चित है। भौतिक सुखों के प्रति मनुष्य के चंचल स्वभाव के कारण उनसे जुड़े संगठनों की अल्प आयु होते है और इतनी चुनौतियों के पश्चात तो पतन निश्चित ही होता है। परंतु राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ अनंत चुनौतियों के काल से सत्त बढ़ते हुए आज विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के रूप में विद्यमान है। संघ के इसी स्वयंसेवक्त्व का जागरण अपने हृदयों में कर कई सामान्य व्यक्ति असामान्य व्यक्तित्व के रूप में निखर कर आए है और भारती के पुनरुत्थान व विश्वकल्याण हेतु चल रहे यज्ञ में अहम आहुतियां दे रहे हैं। कोरोना महामारी के चलते जब हमारा राष्ट्र कई समस्याओं से लड़ रहा है तब संघ के कार्यकर्ताओं में विलीन स्वयंसेवक्त्व उन्हें सरकारी नियमों में रह कर जोड़े रख रहा है और व्यक्ति से व्यक्ति, व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र की सेवा करने को प्रेरित कर रहा है। यही कारण है कि आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस देश में तीन करोड़ लोगों तक सेवा कार्य पहुंचाने में सफलता प्राप्त कर चुका है।
अब मैं यह दावा तो नहीं करता कि मुझ में इस ‘स्वयंसेवक्त्व‘ का जागरण हुआ है; परंतु गुरुजी का जीवन चरित्र और स्वयंसेवकों का सानिध्य प्राप्त होने से मुझे इस तत्व की विशालता का दर्शन हुआ है। उससे मेरे ह्रदय में स्पंदन हुआ जिससे मैं भी इस तत्व को अपने भीतर जागृत करने को अग्रेसर हु। अब तक स्वयंसेवक्त्व के आव्हान, निरंतर जागरण और समर्पण सी सीमाओं को जितना समझ पाया हूं उतनी बातों को शब्द बद्ध कर कविता के माध्यम से रख रहा हूं……
कविता:
भारती का वंदन…..
पांचजन्य का क्रंदन, हे मुरतवीर अभिनन्दन…..
सात स्वरो का स्पंदन, रचा हृदय में मंथन।
मै सत्य सनातन अधमोद्बारक,
व्यष्टि से समिष्टि उद्धारक,
धर्म ध्वजा पालक…..अभिसारक…..वज्रवारक,
वेद गंगा प्रसारक…..अभिचारक…..अनुहारक,
साक्ष है ये सूर्य तारख।
अब क्या मुझे अनायास मिटाया जाएगा ?
आर्यव्रत में आज पुनः चीर हरण दिखाया जाएगा ?
वैभव शाली अटालिका पर दाग लगाया जाएगा ?
सावधान!! नटराज सा तांडव रचाया जाएगा…..
ध्वस्त अब आतुरी होगी,
इस धूनी पर ही धुरी होगी।
मुझ में विलीन हे देव जागो….
गांडीव के उत्ताप जागो….
भीष्म अंतस्ताप जागो….
हे एकलिंग प्रताप जागो…
समर भवानी शिवराय जागो…..
मुझ मै मनु श्रृंगार जागो…..
मुझ मै भगत झंकार जागो….
हे सुभाष यौवन पुकारो….
धर्म प्रतिपोषक, हे प्रदोषक कली के केशव आप जागो…..
हे माधव अभिताब जागो….
मुझ में विलीन तीक्ष्णताप जागो।
विपदाओं की रास होगी,
चुनौतियां भी खास होगी….
स्व से परे ही आस होगी,
तो कई अधूरी प्यास होगी।
पथ भी पीतशोणित होगा,
देह भी विशोणित होगा,
रिस्ते तनु पर विप्रलाप का जाप होगा,
हे वीर बतादे क्या तुझमें भी अनुलाप होगा??
मै ब्रम्ह कृति, मै राम रीति, चाणक्य नीति, मिरा की प्रीति, पुजू अदिति…..
लो मै दधीचि जय जय पुकार रंछोड़ ना कहलाऊंगा…..
भूमिजा की भूमिका में सहज ही रम जाऊंगा,
स्थित प्रज्ञ मुनि शील को जो आत्म सार कर पाऊंगा,
और प्राप्त योगक्षेम को भी हवी कर जाऊंगा,
तो धन्य जननी, धन्य जीवन, धन्य धन्य कहलाऊंगा।।
- विधान राजपुरोहित
- (कविता के कवि व भूमिका के लेखक)