क्या गहलोत सरकार ने ए के एंटनी की उस रिपोर्ट को बिलकुल भी नहीं पढ़ा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेताया था कि कांग्रेस का अल्पसंख्यकों के प्रति यह एकतरफा मोह पार्टी को खत्म कर देगा। लोकसभा के पिछले दो लोकसभा चुनाव इसके प्रत्यक्ष सबूत हैं। लेकिन लगता है अशोक गहलोत उस रिपोर्ट को पढ़ने से चूक गए। पढ़ लिया होता तो, राजस्थान में जिस तरह की एकतरफा सांप्रदायिक घटनाएं हो रही हैं, और उन पर जिस तरह की पुलिसिया कार्रवाई हो रही है, वह नहीं होती। राजस्थान में पुलिस महकमे का मुखिया होने के नाते राज्य में शांति व्यवस्था और कानून का राज कायम रखने की जिम्मेदारी खुद मुख्यमंत्री की है। लेकिन पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से अपराधियों और सांप्रदायिक ताकतों ने कानून व्यवस्था का मखौल बनाकर रखा है, उससे लगता है मुख्यमंत्री प्रदेश में कानून व्यवस्था बनाए रखने में बुरी तरह विफल साबित हुए हैं।
अलवर के टपुकड़ा कस्बा में दलित समुदाय के युवक के साथ सामूहिक मारपीट, बूंदी जिले में संघ की बाल शाखा में स्वयंसेवकों पर हमला, झालावाड़ में मुस्लिम जिहादियों द्वारा एक युवक की सरेआम गोली मारकर हत्या, कोटा के रामगंजमंडी क्षेत्र में संघ के जिला पदाधिकारी की बेरहमी से पिटाई, जयपुर शहर में कांवडि़यों पर पथराव और अब सवाईमाधोपुर जिले के गंगापुर सिटी में एक रैली पर मस्जिदों से पत्थरबाजी। राजस्थान में गहलोत सरकार के सत्ता में वापसी के बाद एक के बाद हो रहे इन घटनाक्रमों पर मनोवैज्ञानिक ढंग से विचार किया जाए तो, समझा जा सकता है कि गहलोत सरकार इन घटनाक्रमों को किस तरह से हैंडल कर रही है। एक के बाद सांप्रदायिक उपद्रव की घटनाएं राज्य के कोने कोने में हो रही हैं। एक समुदाय विशेष के लोगों की हिम्मत इतनी बढ़ जाती है कि वे कहीं भी, किसी पर भी सामूहिक पत्थरबाजी कर सकते हैं। और सरकार का पुलिस तंत्र इस डर से कार्रवाई करने से बचता है कि ‘ऊपर’ वाले कहीं नाराज न हो जाए। गहलोत सरकार के किसी भी नेता में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे इन घटनाओं के विरोध में किसी तरह का बयान जारी कर सके। आखिर क्यों?
राजस्थान में गहलोत सरकार के कामकाज संभालते ही कानून व्यवस्था पर सवाल उठने लगे हैं। गहलोत-पायलट युग्म सरकार को राजस्थान में महज अभी आठ-नौ महीने ही हुआ है, लेकिन जिस तरह इस युग्म सरकार का एक खास समुदाय के प्रति तुष्टिकरण हो रहा है, उससे लगता है आने वाले दिनों में प्रदेश में कानून और व्यवस्था के हालात बेकाबू होने वाले हैं। तुष्टीकरण हालांकि कांग्रेस की यूएसपी है, लेकिन इसका इस्तेमाल जब कानून व्यवस्था में होने लगेगा, तो समाज में वैमनस्यता का प्रसार होगा। इसका ताजा उदाहरण राजधानी जयपुर में यात्रियों की बसों पर खास समुदाय के असामाजिक तत्वों द्वारा पथराव की घटना है। घंटों तक पूरे तंत्र को अपने कब्जे में लेने वाले इन असामाजिक तत्वों से निपटने में गहलोत-पायलट सरकार की पुलिस मूक दर्शक बनी रही और बहुसंख्यक समाज के लोग पिटते रहे। चलिए इससे पहले की कुछ घटनाओं की चर्चा करते हैं।
पिछले कुछ महीनों हुई कुछ घटनाओं के उदाहरण से गहलोत-पायलट युग्म सरकार की मानसिक को समझा जा सकता है। पहले चर्चा करते हैं अलवर जिले में हुई पहलू खान की हत्या के मामले की। हाल ही में इस मामले में अलवर की अदालत ने छह आरोपितों को किसी भी तरह के सबूत नहीं के कारण बरी कर दिया। यह बात इस युग्म सरकार को बुरी तरह चुभ गई। हाथों-हाथ एसआईटी का गठन किया गया। फिर से जांचें शुरू हो गई। संभव है जांच में “कुछ” ऐसा निकाला जाएगा, कि अपने खास वोट बैंक को संतुष्ट किया जा सके। दरअसल गहलोत सरकार पर अपनी तुष्टिकरण की नीति का ही दबाव नहीं है बल्कि उस पर उस लिबरल और सेक्युलर गैंग का भी परोक्ष दबाव है, जो इस तरह के हर मामले को बढ़ा चढ़ाकर इस तरह पेश करता है कि देश में अल्पसंख्यक खतरे में हैं। उन्हें इस तथाकथित खतरे से निकालने के लिए बहुसंख्यक समुदाय के कुछ लोगों को तो अंदर डालना पड़ेगा न।
अब दूसरी घटना पर नजर डालते हैं। अलवर जिले का टपूकडा कस्बा। यहां के झिवाना गांव के एक दलित युवक हरीश जाटव की जुलाई के महीने में एक दिन मौत हो जाती है। कहने को तो मामला बस इतना था कि उसकी बाइक एक महिला से टकरा गई थी और उत्तेजित भीड ने उसे घेर कर पीट दिया और उसके सिर में गम्भीर चोट आई। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। नेत्रहीन पिता ने पुलिस में खूब गुहार लगाई, लेकिन मामला सरकार के लिए उतना ‘गंभीर’ था कि इस पर कोई पुलिसिया कार्रवाई की जाए।इस घटना में पात्र बदल जाते तो शायद घटनाक्रम ही कुछ और होता। खैर, आखिर स्वतंत्रता दिवस के दिन पिता ने पुलिस के रवैये से परेशान हो कर आत्महत्या कर ली। परिवार वाले दो दिन तक अपनी मांगें लेकर चिकित्सा केन्द्र के बाहर बैठे रहे। आखिर सरकार को समर्थन दे रहे एक “दलित हित चिंतक“ दल के विधायक ने परिवार वालों को पूरी मदद का आश्वासन दे कर गतिरोध खत्म करा दिया।
कुछ लोगों के लिए यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि कथित दलित हित चिंतक कांग्रेस सरकार में यह मामला कैसे रफा दफा हो गया। क्योंकि इसमें वे तमाम तत्व मौजूद थे जो लिबरल गैंग को मसाला देने के लिए पर्याप्त साबित होते। यह मामला ट्विटर और चैनलों पर ट्रेंड करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दलित युवक, भीड़ की पिटाई यानी मोब लिंचिंग, पिता की आत्महत्या जैसे तमाम तत्वों के बावजूद यह घटना लिबरल और सेक्युलर गैंग के बीच उतनी परवान पर क्यों नहीं चढ़ पाई। दरअसल इसका कारण बहुत साधारण था- जिन लोगों के खिलाफ दलित युवक के पिता ने नामजद रिपोर्ट कराई थी वो मुस्लिम समुदाय के अतिवादी लोग थे। इसका दूसरा कारण यह रहा कि इस समय राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है और इसका तीसरा कारण यह रहा कि इसी दौरान मॉब लिचिंग के एक और शिकार पहलू खां के मामले का फैसला आया था और उसमें कोर्ट ने सभी छह आरोपियों को बरी कर दिया था। ऐसे में कहां जगह मिलती हरीश जाटव और उसके पिता को। दरअसल एजेंडा पॉलिटिक्स, एजेंडा जर्नलिज्म और एजेंडा एक्टिविज्म में ऐसे मामलों को मिलने वाला महत्व इस बात से निर्धारित होता है कि उस राज्य में सरकार किस दल की है, पीडित की जाति या धर्म क्या है, प्रताडित करने वाले की जाति या धर्म क्या है और यह मामला राजनीति और एजेंडा के हिसाब से ठीक बैठता या नहीं।
शांत प्रदेश के तौर पर अपनी पहचान रखने वाले राजस्थान में अब कांग्रेस सरकार बनने के बाद मजहबी उन्मादी आए दिन सिर उठा रहे हैं। अगस्त माह में ही राज्य के कई स्थानों पर मुस्लिम अतिवादियों ने बहुसंख्यक हिंदु समाज के अलग अलग संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया। हाड़ौती के नाम से प्रसिद्ध कोटा संभाग के बूंदी जिले में संघ की बाल शाखा में स्वयंसेवकों पर हमले के बाद झालावाड़ में मुस्लिम अतिवादियों ने एक युवक की सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी। कोटा जिले के रामगंजमंडी क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जिला पदाधिकारी को मुस्लिम अतिवादियों ने बेरहमी से पीटा।
कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले पर कांग्रेस का रवैया मुस्लिम अतिवादियों को खूब रास आ रहा है। और वे इसका बदला अपने तरीके से बहुसंख्यक समाज के निर्दोष लोगों से ले रहे हैं। कुछ घटनाओं का विश्लेषण कर इस पर आसानी से सहमत हुआ जा सकता है। झालावाड़ जिले के पिड़ावा में ऋषिराज जिंदल की हत्या इसका उदाहरण है। और ताजा उदाहरण सवाईमाधोपुर जिले के गंगापुर सिटी की है, जहां 25 अगस्त को अनुच्छेद 370 हटाने और स्थापना दिवस पर शांतिपूर्ण रैली निकाल रहे विश्व हिंदु परिषद के कार्यकर्ताओँ पर मस्जिद के ऊपर से पूर्व नियोजित तरीके से पत्थरबाजी की गई। इन पत्थरबाजों की हिम्मत की दाद देनी होगी कि पुलिस के अतिरिक्त अधीक्षक की मौजूदगी में वे कार्यकर्ताओं पर पत्थर बरसा रहे थे। दरअसल, इन उन्मादी पत्थरबाजों के मन में यह बात पूरी तरह फिट बैठी हुई है कि जयपुर की तरह उनके खिलाफ भी थानों में महज लिखत पढ़त होकर मामला ‘सैट’ तो होने वाला है ही, फिर क्यों न इस समाज के भीतर पत्थरों से खौफ बैठाया जाए। जैसा कि जयपुर के एक अल्पसंख्यक विधायक ने हाल ही में मुख्यमंत्री से कांवड़ियों पर पथराव मामले में उपद्रवियों के मामले वापस लेने का आग्रह किया है। और देर सवेर वे तमाम मामले वापस ले लिए जाएंगे।
लगातार हो रही आपराधिक घटनाओं मे मुख्यमंत्री के गृह जिले जोधपुर में जिस तरह रावणा राजपूत के युवा समाजसेवी जोरावर सिंह की मुस्लिम अतिवादियों ने पीट पीट कर हत्या की, जयपुर के कल्याण जी के रास्ते में मोटर सायकल के पार्किंग के मामूली विवाद पर मुस्लिम अतिवादियों द्वारा मारपीट, जयपुर के खो नागोरियन में हॉकर द्वारा अखबार के बिल के पैसे मांगने पर मुस्लिम अतिवादी द्वारा हॉकर की गर्दन काटकर हत्या और पुलिस द्वारा मीडिया और आम लोगों के साथ मारपीट और अलवर के बहरोड़ थाने में कुख्यात अपराधियों द्वारा थाने में दिन दहाड़े फायरिंग कर अपने साथी अपराधी को छुड़ा ले जाना कुछ और ऐसे उदाहरण हैं, जिससे साफ पता चलता है कि राजस्थान में अपराध का ग्राफ और अपराधियों के हौसले किस तेजी से बढ़ रहे हैं। जब सरकारी तंत्र अपराध में नस्ल, रंग और धर्म ढूंढ़ने लग जाता है, तब अपराधियों के हौसले इसी तरह बढ़ते हैं। चिंता की बात यह है कि अपराधियों में सुरक्षा की कथित भावना कहीं राजस्थान को दो दशक पुरानी बिहार की कानून व्यवस्था में तब्दील न कर दें।
मुस्लिम समाज का बहुसंख्यक समाज, जो आम तौर पर शांति के साथ जीना चाहता है, दुर्भाग्य, से इन घटनाओं के कारण उनके भीतर डर पैदा हुआ है। और इसका कारण है समाज के उन असामाजिक तत्वों के खिलाफ उचित कार्रवाई नहीं होने से बहुसंख्यक समाज के भीतर उनके समुदाय के प्रति पैदा हो रहा पूर्वाग्रह। जयपुर के एक निजी महाविद्यालय में मुस्लिम समाज के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर ने नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर बताया कि मुस्लिमों को यदि सबसे ज्यादा राजनैतिक नुकसान पहुंचाया है तो वह कांग्रेस पार्टी है। इस तरह की घटनाओं पर सरकार को अपराधियों के खिलाफ बिना किसी पक्षपात के कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, जिससे पूरे समाज में एक सकारात्मक संदेश जाए।
जहां से इस आलेख की शुरुआत हुई है, वहीं पर खत्म करते हैं। पांच साल पहले यानी 2014 में कांग्रेस की लोकसभा चुनावो में शिकस्त के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता ए के एंटनी ने पार्टी की हार पर अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट दी थी। इस रिपोर्ट में बहुत सारी बातों के साथ उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि पार्टी की हार इस धारणा की वजह से हुई जिसमें लोगों को लगता है कि कांग्रेस का झुकाव अल्पसंख्यकों की ओर है। इसीलिए बहुसंख्यकों का झुकाव भाजपा की ओर हुआ। दुर्भाग्य से गहलोत के पिछले आठ-नौ महीने के कार्यकाल में कांग्रेस के प्रति आमजन में खासकर बहुसंख्यक समाज में ए के एंटनी द्वारा परिभाषित वह धारणा और मजबूत हो रही है।