Saturday, November 2, 2024
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वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में फैली भ्रांतियाँ

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anantpurohit
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Self from a small village Khatkhati of Chhattisgarh. I have completed my Graduation in Mechanical Engineering from GEC, Bilaspur. Now, I am working as a General Manager in a Power Plant. I have much interested in spirituality and religious activity. Reading and writing are my hobbies apart from playing chess. From past 2 years I am doing research on "Science in Hindu Scriptures".

मैं अपनी बात श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 4 श्लोक 13 से प्रारंभ करता हूँ:

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्ट्यं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।

यह श्लोक बहुत ही महत्वपूर्ण है, न केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी। इसके अलावा इस श्लोक का अपना सामाजिक महत्व भी है। इस श्लोक का अर्थ समझने से पहले वर्तमान भारत की समसामयिक परिस्थितियों को समझना आवश्यक है। वर्तमान भारत एक कुशल नेतृत्व में जहाँ एक ओर आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में अग्रसर है वहीं कुछ असामाजिक तत्त्व इसे पुनः जातिवादी उन्माद में जकड़कर समाज को बाँटना चाहते हैं जो अंततः भारत की प्रगति में बाधक सिद्ध होगा। इस प्रकार के लोग जो समाज को जातिवादी उन्माद में जकड़ना चाहते हैं उनका सबसे सरल निशाना है हिन्दू धर्म और उसकी वर्ण व्यवस्था। और दुर्भाग्य की बात यह है आम हिन्दू जनमानस अपने धर्मग्रंथों से अनभिज्ञ है और ऐसी स्थिति में इन देशविरोधी ताकतों का सबसे आसान शिकार है। इन देशविरोधी ताकतों द्वारा वर्ण व्यवस्था को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ फैलाई जाती हैं जिनका खण्डन करना अत्यंत आवश्यक है।

अब हम इस श्लोक का अर्थ समझने का प्रयास करते हैं। वर्ण शब्द वर् धातु शब्द से बना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं – चुनना, चुनाव करना, उद्यम करना, उद्योग, रंग, वर्णमाला का एक अक्षर। इस वर्ण शब्द को अंग्रेजी के कास्ट (caste) शब्द का पर्यायवाची समझना पूर्णतः गलत है। इस श्लोक का अर्थ निम्नानुसार है:

गुणों के आधार पर कर्मों का विभाजन करते हुए मैंने चार वर्णों की रचना की। अर्थात् मैंने चार प्रकार के उद्यमों (कर्मों) की रचना, उनका चुनाव करने की स्वतंत्रता देते हुए की। और, यद्यपि मैंने इनकी रचना की तथापि तुम मुझे उसका कर्ता मत समझो।

पहली बात यहाँ पर समझने की आवश्यकता है कि कर्मों का विभाजन गुणों के आधार पर है और दूसरा उन्हें चुनने की स्वतंत्रता है। वर्ण शब्द का अर्थ कतई अंग्रेजी के कास्ट (caste) के समान नहीं है, क्योंकि यह जन्म आधारित नहीं वरन् कर्म आधारित है। और इसके अलावा इसमें चुनाव करने की स्वतंत्रता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – ये चारों शब्द गुणवाचक संज्ञाएँ हैं। इस श्लोक का बहुत गहरा आध्यात्मिक अर्थ भी है। श्लोक के द्वितीय चरण में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – यद्यपि मैंने इनकी रचना की तथापि तुम मुझे उसका कर्ता मत समझो। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी कार्य जब ‘मैंने’ किया इस भावना के साथ किया जाता है तो व्यक्ति के मन में अहंकार की भावना आ जाती है और अहंकार की भावना के साथ वह ईश्वर से उतना ही दूर हो जाता है। इसी को संत कबीर दास जी ने सरल शब्दों में लिखा है:

प्रेम गली अति साँकरी जा में दो न समाहीं
जब मैं था हरि नाहीं, हरि है तो मैं नाहीं

कहने का अर्थ केवल इतना है कि अपने गुणों के आधार पर कर्म का चुनाव करो और उसके अनुसार कर्म करो। कर्म करने के पश्चात ‘मैंने किया’ इस अहं भाव का त्याग करो अर्थात् न तो कर्म में आसक्ति रखो और न ही फल, परिणाम की आशा करो। बहुत ही सुंदर शब्दों में व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाले दु:ख के दोनों कारणों को समाप्त करने की शिक्षा दे रहा है यह श्लोक। इस संसार में समस्त दुःखों के मूल में केवल दो ही कारण हैं – अहं (ego) और आशा (expectation)।

उपर्युक्त अर्थ में कहीं पर भी वर्ण को जन्मजात होना नहीं कहा गया है। पुनः इस बात का प्रमाण हमें श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम खण्ड सप्तम स्कंध अध्याय 11 श्लोक 35 में भी मिलता है:

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत् तेनैव विनिर्दिशेत्।।

अर्थात् जिस पुरूष के वर्ण को बतलाने वाला जो लक्षण कहा गया है वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि गुण प्रधान है न कि जन्म। भले ही जन्म किसी भी वर्ण में हुआ हो परंतु व्यक्ति का गुण जिस वर्ण के गुण से मिले वह उस वर्ण का है।

पुनः इस बात की पुष्टि इस उदाहरण के माध्यम से भी होती है – विष्णु पुराण खण्ड 4 अध्याय 1 श्लोक 17:

तदन्वयाश्च क्षत्रियास्सर्वे दिक्ष्वभवन्।
पृषध्रस्तु मनुपुत्रो गुरुगोवधाच्छूद्रत्वमगमत्।।

अर्थात् मनु का पृषध नामक पुत्र गुरु के गाय की हत्या करने के कारण शूद्र हो गया। यह तो केवल एक उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण धर्मग्रंथों में मिलते हैं। विष्णु पुराण के इसी अध्याय के श्लोक 19 में मनु के पौत्र नाभाग, दिष्ट के पुत्र, का उल्लेख मिलता है जो कि अपने कर्मों के कारण वैश्य हो गए।

सारांश में यह कहा जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था में किसी भी प्रकार से वंशवाद का समावेश नहीं था। यदि वर्ण व्यवस्था में वंशवाद का समावेश न हो तो वर्ण व्यवस्था से अच्छी कोई और व्यवस्था इस संसार में हो ही नहीं सकता। समाज में आज भी कर्मों को केवल चार प्रकार से ही विभाजित किया जा सकता है – बौद्धिक कार्य, रक्षा कार्य, व्यापारिक कार्य और सेवा कार्य। इस सेवा कार्य का तात्पर्य किसी के चरणों की सेवा से नहीं है बल्कि समाजोपयोगी उत्पादन कार्य करने या इसमें सहयोग करना, अपना समय देना है।

पुनश्च: समाज को तोड़ने वाले असामाजिक तत्त्वों द्वारा फैलाई जा रही भ्राँतियों को नकार कर हमें अपने धर्मग्रंथों का सूक्ष्मता से अध्ययन और विश्लेषण करना चाहिए, इससे हम निश्चित ही एक समतामूलक सौहार्द्रपूर्ण समाज और अखंड भारत का निर्माण कर सकेंगे। किसी भी समाज को उसकी सांस्कृतिक विरासत ही मजबूत स्नेहबंधन में बाँध सकती है। धर्मग्रंथों को भूलकर सांस्कृतिक रुप से विपन्न हुए समाज को विखंडित होने से बचा पाना संभव नहीं है।

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