नयी दिल्ली. माना जा रहा है कि मार्च के पहले सप्ताह में ही लोकसभा चुनावों का ऐलान हो सकता है, ऐसे में सभी पार्टियाँ अपने आखिरी दौर की तैयारियों में जुट गई हैं। गठबंधन के लिहाज से देखें तो भाजपा की हालत अच्छी नज़र आ रही है। जिन राज्यों में भी गठबंधन हो सकता था वहाँ उन्हें सफलता हाथ लग चुकी है। दूसरी ओर बहुत चर्चा होने के बावजूद विपक्ष का ‘महागठबंधन’ अपने असली अंजाम तक नहीं पहुँच पाया, इसका कारण शायद यह था कि कोई भी दल कम से कम चुनावों से पहले कांग्रेस के साथ नज़र आना नहीं चाहता है।
अब भाजपा के लिए कोई बड़ी चुनौती बाकी नहीं रह गई है, यहाँ तक कि तमिलनाडु जैसे राज्य में भी उन्हें सीटों के लिहाज से थोड़ा फायदा हुआ है।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि अब बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है? हाल ही में तीन राज्यों में मिली हार से यह स्पष्ट हो गया है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा को कांग्रेस पार्टी के घोषणा-पत्र से जरूर सचेत रहना चाहिए। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस ने लोक-लुभावन वादों पर सवार होकर सत्ता की चाबी हासिल कर ली है, अब उनके हाथ एक जबरदस्त फार्मूला हाथ लग चुका है, जिसका प्रयोग वो आम चुनाव में भी करेंगे। बल्कि इस बार तो वो और ज्यादा आक्रामक रूप से करने वाले हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि राहुल गाँधी के घोषणा-पत्र में भारी आर्थिक रियायतों का ऐलान होगा, कर्जमाफी जैसे वादे होंगे, कई ऐसे वादे होंगे जो आँखें चौंधिया देंगी क्योंकि कांग्रेस के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। जनता को पैसे का लालच देकर ही वो रेस में बनी रह सकती है, राहुल गाँधी के पास ऐसा कोई मुद्दा नहीं है जिससे मोदी सरकार को घेरा जा सके।
राफेल जैसे मुद्दों पर दिमाग खपाना आमजन को पसंद नहीं है और वैसे भी इस सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना खतरे से खाली नहीं। मोदी की छवि उनके आरोपों को बीच में ही भोथरा कर देती हैं इसलिए ‘भ्रष्टाचार’ का मुद्दा विमर्श में ना आए, इसी में कांग्रेस की भलाई है।
इसके अलावा कांग्रेस पार्टी कुछ ऐसे सामाजिक मुद्दों पर भी उल्टे-सीधे घोषणा कर सकती है जो थोक के भाव वोट खींचने की क्षमता रखते हों, जैसे कि तीन तलाक, लिंगायतों का मसला, SC-ST एक्ट, गैर-हिन्दू दलितों को आरक्षण या फिर घुसपैठियों को नागरिकता जैसे मुद्दे! ये सभी विषय अलग-अलग राज्यों में चुनावों की सूरत बदलने की ताकत रखते हैं।
मोदी और अमित शाह की जोड़ी को इससे जरूर सचेत रहना चाहिए। हालाँकि पिछले कुछ दिनों में उन्होंने मध्यवर्ग को कुछ राहत देने की पहल की है, साथ ही किसानों के लिए भी सहायता राशि का ऐलान भी एक अच्छा कदम माना जा रहा है। फिर भी, तीन राज्यों के चुनाव से यह सबक मिला है कि कई बार ‘किसने क्या किया है?’ पीछे छूट जाता है और ‘कौन क्या करेगा?’ यह महत्वपूर्ण हो जाता है। सोचकर देखिए अगर राहुल गाँधी असम में जाकर नागरिकता बिल पर बोलेंगे तो उस समय ‘बोगीबिल ब्रिज’ का कोई महत्व नहीं रह जाएगा।