शाम आठ बजे और कुछ टीआरपी जैसे समाजवादी कारणों से अब नौ बजे, प्राइमटाइम में अधोमुखी मेरूरज्जु से निहुरा हुआ एक अदना सा पत्रकार आता है. बरसों पहले एक बक्से के साथ बिहार से दिल्ली आया था. तब बेचारे के पास कुछ नहीं था. जिस दौर में वो आया था वो दौर उसी के रंग वाला था.. मने लाल सलाम वाला.
वो दौर ऐसा था कि चीन पोषित मार्क्सवादी चैनलों पर सिकुलरिज़्म के बोये गए बीजों से कोपलें निकल चुकी थीं. कुछ तो जवान भी हो गईं थीं.उसका पसंदीदा चैनल और उनके मालिक सर्वहारा की क्रांति के ऐसे समर्थक थे और हैं , जिनके स्वयं केशरीर पर रेमंड से बने सूट शोभायमान होते हैं.
वहां ‘अदना सा पत्रकार’ के दिल भी घर कर गया.
इसी बीच साथ मिला हरखा का, वो दिन ऐसे थे कि नैरेटिव के शिखर पर चढ़कर कुछ भी दिखाया जाए, चाहे जितना भी देश की गरिमा के विरूद्ध, परंतु जनविरोध शून्य था या कहें शून्य रखा गया था. ‘अदना सा पत्रकार’ अपने सभी रिपोर्ट में ये दिखाता जैसे आजादी मिली तो एक शाही परिवार की वजह से.. विदेश नीति पढ़ाई जाए, तो बस अपने में सिमटे गुटनिरपेक्षता और पंचशील की चर्चा हो…. नेता शब्द की बात आए तो बस एक नेता के करिश्माई नेतृत्व पर शहद (स्वादानुसार) लगाकर रसपान करना उसका पहला कर्तव्य बन गया था.
अगर सड़क पर कहीं दुर्घटना हो जाए, तो पत्रकार लम्बा वाला लाल माइक मुंह में घुसेड़ कर पूछता है, “हे हे हे… कौन जात हैं? अच्छा कौन धरम से हैं, यही बता दो”
पाकिस्तान यदि भारत पर हमला कर दे तो अदना सा पत्रकार कम्पास जैसा मुंह लेके, कद्दू में चीरा मारने जैसी स्माइल मारता है, और कहता है, “बापू होते तो क्या सोचते, हांय! समस्या का हल बात चीत से भी तो निकल सता है”.
अदना सा पत्रकार यहीं नहीं ठहरता, जब सर्जिकल स्ट्राइक हुई और कुछ कुंजड़व्यक्तित्व के धनी लोगों ने प्रमाण मांगा.. तो अदना सा पत्रकार भी, हें हें हें करके बोल गया, “समाज का एक बड़ा वर्ग प्रमाण चाहता है, पर सरकार ना जाने क्यों पीछे जाती दीख रही है.”
एक बार तो हद तब हो गई जब इंग्लैंड से पढ़कर आए एक बैरिस्टर की सभा में एक लड़की ने ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ बोल डाला था. तो ट्विटर सहित पूरे देश में इसका विरोध हुआ, होना भी चाहिए था.
पर.. वो तो अदना सा पत्रकार है.. अदना सा पत्रकार
इतना आदर्शवादी ‘ प्रवक्ता’ है कि दलील देने लगा…हें हें हें करके बोला, “एक नवयुवती ने आज जिंदाबाद का नारा लगाया, तो लोगों के अंदर पता नहीं क्यों गुस्सा आ गया. हम कहां जा रहे हैं? इतनी नफरत भर दी गई है कि हम इतना नहीं सुन सकते.. समाज कहां जा रहा”
मने आपने अगर बचपन में नैतिक शिक्षा पढ़ी हो ना, तो अदना सा पत्रकार.. उसमें रहने वाली प्रत्येक कहानी की फलश्रुति बनना चाहता है.
एक और मजे की बात, 2014 से पहले तो इस पत्रकार के लिए सबकुछ रामराज्य जैसा था.. (लेकिन वो रामराज्य नहीं बोल सकेगा आप कुछ और शब्द जोड़ लें.) 2014 में तो जैसे भूचाल आ गया इनके जीवन में…बरसों से बरखा में घूम घूम जो अंग प्रत्यंग पत्रकारिता रूपी जल से भिगोये थे… सब जैसे बह गया 2014 मई में.
फिर शुरू हुई क्रांतिकारिता भरी पत्रकारिता, ऐसी कि यदि देश में कहीं दंगा हो जाए तो सरकार दोषी.. और अगर कानून व्यवस्था का पालन करवाने में पुलिस लाठी भांज दें… तो अदना सा पत्रकार बोलें, “लोकतंत्र कहां हैं? मर तो नहीं गया.”
मतलब इनकी बातों को दोमुंही ना कहें बल्कि कई मुंह वाला कहें. इनका दर्द जायज है, कभी ये चुटकी भर के फोन से मंत्री संतरी बदलवा देते.. आज दर दर भटक रहे.कभी छोटे से छोटा इंटरव्यू राष्ट्रपति भवन में होता.. आज सड़क पर निकलना पड़ रहा.
इनके कुछ साथी संगत हैं, वो भी यदा कदा पंजाब के किसी ढाबे में मूंगी मसरी वाली दाल के साथ फोटो डालती/ते हैं..
हालिया, जब देश में कोरोना काल आया.. और चीन की किसी लैब से निकले वायरस के कारण पूरा देश शिथिल पड़ गया. तो भी रिपोर्ट में भांय भांय करते बोल पड़ा, “लगातार ट्विटर पर चीन के खिलाफ आउटरेज हो रहा, जबकि अभी तक कोई प्रमाण ऐसे नहीं है,जो यह सिद्ध करदे कि चीन दोषी है . ना जाने सरकार क्या छुपाने के लिए ये सब करवा रही”
इनके ऐसे चरित्र के बड़े चर्चे हैं… आप सभी मुझसे अधिक वाकिफ हैं. कभी आठ बजे, अब नौ बजे बिलार जैसी आंखें फैलाए, साढ़े बत्तीस किलो वजनी सूट पहनकर.. निहुरी पीठ के साथ इतनी बकवास लपेटता.. कि आप अपना बीपी बढ़ा सकते हैं.
अंत में उसकी एक उक्ति जो उसके दांतों से रगड़कर चिंगारी फेंकने लगी है… “टीवी फोड़ दो….” अबे तेरा फाफड़ा जैसा चेहरा कहां देखेगा… तेरा समाज?” धन्यवाद.
#बड़का_लेखक