क्यों लड़ रही है? गलत लोगों से पंगा ले रही है.. पागल है ये औरत.. कुछ नहीं कर पाएगी.. कुछ नहीं बदलेगा..इसके जैसे कई आकर चले गए.. नाटक कर रही है.. अपनी निजी भड़ास निकालने के लिए.. ये सब एक जैसे हैं.. नौटंकी है सब
लॉकडाउन के चलते चाय की दुकानें और अधिकतर बाज़ार बंद हैं इसलिए इन दिनों इस तरह के कई संवाद सोशल मीडिया एवं व्हाट्सएप पर पढ़ने को मिल जाते हैं। इसलिए क्योंकि यह मुद्दा असम और बिहार में उफनती नदियों एवं चीन द्वारा विश्व को भेंट किए गए वायरस से जान गवां देने वालों से अधिक महत्वपूर्ण है। और होगा भी क्यों नहीं इसमें ग्लैमर और करोड़पति लोग जो शामिल हैं। लेकिन एक और तार्किक कारण भी है जिससे यह विषय असम बिहार की उफनती नदियों जितना ही महत्वपूर्ण हो जाता है, वह यह कि इसके पीछे प्रकृति नहीं बल्कि मनुष्यों का हाथ है।
पिछले कुछ हफ्तों से सत्ताओं को उखाड़ फेंकने, समाज को बदल देने एवं दुनिया को देखने का एक नया नज़रिया देने वाले स्वघोषित क्रांतिकारियों की सेना या आसान शब्द में कहें तो बॉलीवुड को अपनी अपने ही कुकर्म छुपाना मुश्किल हो रहा है।
मामला शुरू होता है बिहार के रहने वाले और दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के पूर्व छात्र एवं एक उम्दा कलाकार रहे सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु से। 14 जून 2020 को सुशांत सिंह राजपूत अपने मुंबई स्थित फ्लैट में मृत पाए जाते हैं, देखकर यही प्रतीत होता है कि उन्होंने खुदकुशी की है। उनके पास कोई सुसाइड नोट एवं किसी प्रकार की कोई अन्य सूचना न मिलने के कारण विभिन्न लोगों द्वारा भिन्न-भिन्न बातें सामने आती हैं और यह तर्क भी लोगों के समक्ष आता है की हो सकता है यह सुसाइड नहीं बल्कि कत्ल हो। बहुत से बॉलीवुड के निर्माता, निर्देशक, लेखक एवं अन्य कलाकार इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं जिनमें से एक थीं पहाड़ों के राज्य हिमाचल से आने वाली अदाकारा कंगना राणावत। कंगना यह तर्क सामने रखती हैं कि सुशांत सिंह राजपूत द्वारा की गई खुदकुशी एक किस्म का कत्ल है क्योंकि बॉलीवुड के कई लोगों द्वारा सुशांत सिंह राजपूत का मानसिक उत्पीड़न किया गया। यह तर्क कितना सही या गलत है इस बात की पुष्टि तो कुछ नहीं है लेकिन यह चिंगारी आग उस समय बन जाती है जब कंगना राणावत रिपब्लिक टीवी पर अर्नब गोस्वामी को एक साक्षात्कार देती हैं जिसमें वह सुशांत की मृत्यु को बॉलीवुड की एक सुनियोजित साज़िश की तरह बताती हैं।
अब जैसा कि एक मजा़किया कहावत है कि जब सारे कॉकरोच खुले में आकर फड़फड़ाने लगे तो समझ जाएं कि दवा सही जगह गिरी है। कंगना ने इस साक्षात्कार में अपने कुछ विचार प्रकट क्या किए कि अपने आप को बुद्धिजीवी, सभ्य एवं नारीवादी बताने वाली बॉलीवुड इंडस्ट्री यूं छटपटा कर अलग-अलग सोशल मीडिया पर आई मानो किसी ने कोई निषेधिक वस्तु को बेनकाब कर दिया हो। कंगना ने अलग-अलग लोगों जैसे कि करण जौहर, महेश भट्ट, जावेद अख्तर पर कुछ इल्ज़ाम एवं टिप्पणियां प्रस्तुत कीं कि किस प्रकार ये लोग नेपोटिज्म़ यानि कि भाई भतीजावाद को बढ़ावा देने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। कंगना के मुताबिक एक विशेष अभिजात वर्ग ही बॉलीवुड पर हावी रहता है एवं अन्य किसी बाहर से आने वाले व्यक्ति का यह वर्ग मिलकर उत्पीड़न करता है। और सबसे जरूरी बात यह है कि बॉलीवुड के अन्य लोग न केवल इस तबके की चमचागिरी करते हैं बल्कि किसी सवाल उठाने वाले की आवाज़ को भी दबाने का पूरा कार्य करते हैं।
कंगना के केवल इतना कहने और साक्षात्कार को केवल 24 घंटे मात्र होने की देर भी न थी कि उनकी यह बात प्रमाणित हो गई जब बॉलीवुड के बड़े-बड़े दिग्गजों द्वारा टि्वटर पर उनके और उनके इस बयान के खिलाफ भिन्न-भिन्न टिप्पणियां एवं प्रतिक्रियाएं सामने आने लगीं। अनुभव सिन्हा एवं अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक जिनका कंगना ने जिक्र करना तो दूर बल्कि नाम तक नहीं लिया था के द्वारा अजीब प्रतिक्रियाएं सामने आईं। जहां अनुराग कश्यप ने कंगना के इस बयान को राजनीति से प्रेरित बताया-
वहीं खुद को लेखक एवं निर्देशक बताने वाले अनुभव सिन्हा ने तो अलग ही अंदाज़ में अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत की जिससे उनके मन के भाव ज़ाहिर हुए हों या नहीं पर यह जरूर समझ आ गया कि सिन्हा साहब को अपने लेखक होने पर एक बार आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए-
महेश भट्ट का तो मानो पूरा परिवार ही कंगना पर कूच करने को उतर आया-
चौंकाने वाली एवं मज़े की बात यह रही कि अनुभव सिन्हा और अनुराग कश्यप जैसे लोगों का ‘आ बैल मुझे मार’ या उत्तर भारत के शब्दों में कहें तो ‘उड़ता तीर लेना’ इस बात को प्रमाणित कर गया कि कंगना ने जो कहा वह सत्य प्रतीत होता हुआ दिखा और बॉलीवुड की जी-हुज़ूरी और गुलामी की एक तस्वीर आम जनता के सामने आ गई।
कंगना ने ताप्सी पन्नू और स्वरा भास्कर जैसी कुछ अभिनेत्रियों पर भी निशाना साधा और कहा कि वे चाहें जितनी कोशिश कर लें खुद को उस हावी अभिजात वर्ग की अभिनेत्रियों के बराबर रखने की, वे इसमें कभी सफल नहीं हो पाएंगी।
तथ्यात्मक तौर पर सही होते हुए भी शायद तापसी एवं स्वरा को कंगना की बात पसंद नहीं आई या शायद इसका कोई अन्य वैचारिक मतभेद जैसा कारण रहा हो लेकिन उन्होंने भी अपने ट्वीट्स के द्वारा अपनी असहमति प्रस्तुत की-
सबसे ज्यादा मनोरंजक तो महान पत्रकार श्री राजदीप सरदेसाई द्वारा श्री जावेद अख़्तर, फरहान अख़्तर और ज़ोया अख़्तर को अपने चैनल पर बुलाकर नेपोटिज्म़ और इस पूरे प्रकरण पर उनकी राय लेना रहा। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है। यह वैसा ही है जैसा कि किसी मध्य पूर्व के देश के लोगों से महिलाओं के अधिकारों पर राय लेना।
बॉलीवुड से विभिन्न प्रतिक्रियाएं आने के बाद आम जनता द्वारा भी इस साक्षात्कार को कई अलग-अलग नज़रिए से देखा गया जिसमें अधिकतर लोग कंगना के साथ खड़े दिखे वहीं कई लोगों ने उनके इस कृत्य को मौकापरस्ती या मूर्खतापूर्ण भी बताया।
अब सवाल यह उठता है कि कंगना यह क्यों और किसके लिए कर रही हैं?
अगर कंगना के अपने करियर की बात करें तो एक छोटे से शहर की एक मध्यमवर्गीय परिवार से उठकर आई लड़की जो अपने काम के बल पर अब तक 2 नेशनल अवॉर्ड, पद्मश्री एवं अन्य फिल्म फेयर अवार्ड अपने नाम कर चुकी है क्या उसे करियर के इस स्तर पर आकर अपने एक मित्र की मृत्यु पर राजनीति एवं मौकापरस्ती करने की आवश्यकता है?
क्वीन, तनु वेड्स मनु 1-2, मणिकर्णिका, गैंगस्टर, फैशन जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवा चुकी यह अदाकारा क्या अपने करियर की इस ऊंचाई पर आकर इस तरह की हरकत को अंजाम देना आवश्यक समझेगी?
एक कलाकार को उसके अंदर का X-फैक्टर आम लोगों से अलग बनाता है, अब कुछ लोग इस X-फैक्टर को सकारात्मक तो वहीं कुछ नकारात्मक तौर पर देखते हैं। कुछ लोग इसे पागलपन कहकर भी संबोधित करते हैं लेकिन अगर देखा जाए तो यह पागलपन ही उस कलाकार को अन्य दुनिया से भिन्न बनाता है और वह दुनिया बाद में उसी पागलपन की दीवानी भी हो जाती है। कंगना या उनके इस कदम को पागलपन कहकर संबोधित करने वाले बॉलीवुड के ही कुछ लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर वह खुद और कंगना दोनों को ही एक दर्जे का कलाकार मानते हैं तो उन्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि वह भी इसी तरह के किसी पागलपन से ग्रस्त हैं और होना भी चाहिए।
दूसरा सवाल यह आता है कि कंगना जो कर रही हैं क्या इससे कुछ बदलेगा? या बॉलीवुड में यूं ही वंशवाद एवं भाई भतीजावाद और एक वर्ग विशेष का ही अधिकार बना रहेगा और बाहर से आने वाले कलाकारों को इसी प्रकार के मानसिक उत्पीड़न का सामना करते रहना पड़ेगा?
ऐसा तो नहीं है कि कंगना इस क़िस्म की पहल करने वाली ऐसी पहली कलाकार हैं। इस मौके पर उन्हीं का कटाक्ष कर रहे अनुराग कश्यप स्वयं एक लंबे समय तक इस बीमारीनुमा प्रथा का शिकार रह चुके हैं। आज के समय में वे इसके बारे में बात करना तो दूर बल्कि उन लोगों के समक्ष जा खड़े हुए हैं जो इस तरह की प्रथा के सूत्रधार हैं। अब इसका कारण क्या है यह तो स्वयं कश्यप साहब ही जानें।
हिंदी की एक कहावत है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, यही चीज़ इस समस्या पर भी लागू होती है। बॉलीवुड के किसी अंदरूनी कलाकार मात्र के विरोध करने से यह प्रथा नहीं खत्म होने वाली, जैसा कि हम भूतकाल में भी देख चुके हैं। जब तक आम लोग, हम-आप किसी भी प्रकार की कला की सराहना, अच्छे को अच्छा, बुरे को बुरा कहना नहीं सीखेंगे तब तक कोई भी कलाकार अकेला यह लड़ाई नहीं जीत सकता।
एक और बड़ी बात यह, जब तक किसी मनुष्य के पेट में रोटी नहीं होगी तब तक उसकी कला भी उभर कर सामने नहीं आएगी। तो आज के पूंजीवादी समाज में केवल सराहना कर देना मात्र उपाय नहीं है, वित्तीय तौर पर सहयोग अति आवश्यक है। अलग-अलग किस्म के विज्ञापन, प्रचार या समीक्षाओं से सम्मोहित न होकर अपने दिमाग एवं दिल का इस्तेमाल करते हुए किसी भी कला को पहचानना और उसके आधार पर ही उसे सराहना या आर्थिक सहयोग प्रदान करना ही हमारी शैली होनी चाहिए।
जैसा कि हमने देखा है कि समीक्षाओं और विज्ञापनों में भी पैसे और ताकत के दम पर हेरफेर संभव है तो इस किस्म की समीक्षाओं पर भी आंख बंद करके विश्वास कर लेना मूर्खता होगी।
अगर आप भी चाहते हैं कि आपकी आने वाली पीढ़ी राजकुमार राव, मनोज बाजपई, कंगना राणावत, आदित्य धर, अमर कौशिक, मनोज मुंतशिर आदि जैसे सपने बिना इस भय के देख और पूरे कर सके कि कहीं इस बॉलीवुड नाम के दलदल में उनका अंत भी सुशांत सिंह राजपूत जैसे उम्दा कलाकार जैसा न हो तो उसके लिए आपको आज और अभी से ही अपना आर्थिक एवं मानसिक सहयोग अच्छे कलाकारों एवं कला को देना होगा। अगर आज ही से हमने यह प्रण लिया कि हम विज्ञापनों और प्रचारों में न बह कर एक खुले दिमाग एवं मन से मेहनत का मूल्य एवं अच्छी कला का आंकलन करेंगे तो शायद आने वाले भविष्य में हम किसी अन्य सुशांत सिंह राजपूत को बचा सकें और यही उस महान कलाकार के प्रति हमारी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।