आज स्वतंत्रता संग्राम के क्रन्तिकारी विचारधारा के शीर्ष पुरुष विनायक दामोदर सावरकर की जन्मदिन है। स्वतंत्रता के पश्चात वामपंथी इतिहासकारों ने रणनीतिक रूप से वीर सावरकर की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया है तथा उनसे जुड़े प्रसंगों की विकृत व्याख्या की है। आज जब देश में सांस्कृतिक अस्मिता और इतिहास का राष्ट्रवादी दृष्टिकोण चर्चा में हैं तो सावरकर और उनके हिंदुत्व का वास्तविक अर्थ समझना आवश्यक है।
सावरकर के हिंदुत्व से सम्बंधित विचार उनकी पुस्तक ‘हिंदुत्व: हिन्दू कौन है’ के माध्यम से समझे जा सकते हैं। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व केवल भारतीय लोगों के आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन का इतिहास नहीं है, बल्कि पूरी भारतीय सभ्यता का इतिहास है। हिंदुत्व की पहली आवश्यकता स्वयं या अपने पूर्वजों के माध्यम से हिंदुस्तान का नागरिक होना है। किन्तु यह एकमात्र योग्यता नहीं है क्योंकि हिंदू शब्द का अर्थ भौगोलिक महत्व से बहुत अधिक है। दरअसल सावरकर के अनुसार वह प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है, जिसने भारत को अपनी ‘पितृभूमि’ के साथ-साथ अपनी ‘पुण्य भूमि’ के रूप में स्वीकार किया है।
वास्तव में सावरकर का मानना था कि सामाजिक अनुबंध के आधार पर राष्ट्र राज्य मजबूत नहीं हो सकता है तथा राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के लिए कोई मजबूत बंधन आवश्यक है। आज जब देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जिहादी-वामपंथी गठजोड़ के नेतृत्त्व में अलगाववादी आवाज़े उठती हैं तो सावरकर का सामाजिक अनुबंध को लेकर दृष्टिकोण स्पष्ट समझा जा सकता है। यही कारण था कि सावरकर ने राष्ट्रवाद के सार्वभौमिकतावादी और क्षेत्रीय पैटर्न के विपरीत हिंदू राष्ट्र के लिए भौगोलिक एकता, नस्लीय विशेषता और एक सामान्य संस्कृति को आवश्यक तत्त्व माना था।
सावरकर ने भौगौलिक आधार स्पष्ट करते हुए बताया था कि संस्कृत में सिंधु का तात्पर्य केवल सिंधु नदी से ही नहीं है, बल्कि समुद्र से भी है। इस प्रकार एक शब्द सिंधु भूमि के सभी क्षेत्रों को इंगित करता है जिसमें सिंधु नदी से सिंधु (समुद्र) के बीच का सम्पूर्ण क्षेत्र शामिल हो जाता है। सावरकर का नस्लवाद वास्तव में जैविक प्रकृति का नहीं, बल्कि वर्चस्व पर आधारित है, जिसमें नस्लीय शुद्धता पर बहुत अधिक जोर नहीं दिया गया है। क्योंकि उनका मानना था कि विश्व में मानव जाति एक ही रक्त से जीवित रहती है तथा वह मानव रक्त है।
इसी प्रकार सावरकर ने धार्मिक और सांस्कृतिक एकता को राष्ट्रीय इकाई गठन में महत्त्वपूर्ण माना है। उन्होंने भारत की संस्कृतिक एकता के लिए संस्कृत और धार्मिक पर्वों को अत्यंत महत्व प्रदान किया था। यह महत्वपूर्ण है कि उन्होंने धर्म को सम्प्रदाय के रूप में नहीं लिया था बल्कि कर्तव्य पालन के अर्थ में स्वीकारा था। इसके साथ ही सावरकर का मानना था कि सनातन धर्म को मानव ही नहीं अपितु ईश्वर की शक्ति भी नष्ट नहीं कर सकती है। उन्होंने वेदों के साथ-साथ कुरान,बाइबिल, ओल्ड टेस्टामेंट और मूसा की पुस्तक को दैवीय शास्त्र की अपेक्षा मानव-निर्मित माना था। हालाँकि इन शास्त्रों का अभूतपूर्व ऐतिहासिक और साहित्यिक मूल्य माना था।
दरअसल सावरकर ने हिन्दू को भारतीय के अर्थ में ही स्वीकार किया था तथा उनका विश्वास था कि एक दिन हिन्दू शब्द भारतीय के समानार्थक के रूप में प्रयोग होगा। वास्तव में सावरकार के हिन्दू राष्ट्र की विकृत व्याख्या की गई है जिसका उद्देश्य सिर्फ सावरकर पर हमला करना नहीं बल्कि हिन्दुत्त्व, हिंदुस्तान और हिन्दू धर्म के प्रति धार्मिक जिहाद और एक समुदाय विशेष का राजनीतिक तुष्टीकरण करना है।