हाँ जी पहचाना हमें, मैं हूँ “लोटन निषाद” (घबराइए मत मैं जिंदा नहीं हूँ ये तो मेरी धर्मनिरपेक्ष आत्मा है) एक गरीब भारतीय, दलित हूँ या नहीं वो हमारे दलितों के दलाल, “जाति कुमार” से गुप्त चर्चा कर के बताएंगे। मुझे दिन के उजाले में ही गला रेत के हलाल कर दिया गया।वैसे मेरी हत्या में मेरा ही दोष था। मैं भूल गया था “जय मीम जय भीम” का नारा देने वाले मेरे “थूकर” भाइयों के लिए मैं भी एक काफिर ही हूँ और उनकी मर्जी के बगैर मैं उनकी आधिकता वाली गली में किसी भारतीय के सम्मान के लिए थाली नहीं बजा सकता, दिया नहीं जला सकता, लेकिन इस देश की बर्बादी के नारे लगा सकता हूँ और मैने भी यही गलती की थाली बजाई, दिया जलाया, ये सोच कर कि शायद इन नमक हरामो की नफरत जल जाए और मेरे देश को कोरोना महामारी से आजादी मिले। लेकिन आजादी तो मिली, लेकिन मुझे।एक दलित को सरे राह हलाल कर दिया गया लेकिन उस दिन ना किसी दलित दलाल, ना किसी मसीहा दरबारी पत्रकार ने मेरे नाम का जिक्र तक किया। करता भी कैसे, दलित को दलित कहना इतना आसान थोडी है, एक दलित दलित तभी होता है जब या तो वो मोदी को गाली दे, जय मीम जय भीम नारा लगाए, हमेशा दलित होने का राग अलाप कर जातिवादी बातें करे, “THOOKERS” को रहनुमा और हिन्दुओं को हत्यारा कहे, और मैं तो इन दलालों की परिभाषा में आता नहीं हूँ।
वैसे थोड़ा समय कम है यमराज के दूत कभी भी आ सकते हैं यहां भी corona की वजह थोडी सख्ती है। पहले नहीं थी लेकिन जब से “thookers” का आना शुरु हुआ है तब से हालात खराब है। हाँ तो मैं आप को कुछ बता रहा था दलितो के बारे में जैसे दलित की परिभाषा
दलित को मुस्लिम मारे तो: मरने वाला संघी हिन्दू और मारने वाला बेरोजगार, गरीब मुजरिम
दलित को सवर्ण मारे तो: मरने वाला दलित और मारने वाला दबंग हिन्दू
दलित को अन्य पिछड़ा वर्ग वाला मारे तो: मरने वाला दलित और मारने वाला हिन्दू
दलित को दलित मारे तो: मरने वाला दलित और मारने वाला कट्टर हिन्दू
मुस्लिम को दलित मारे तो: मरने वाला मुस्लिम और मारने वाला कट्टर हिन्दू
आप समझ ही गए होंगे कि मैं दलितों की परिभाषा में नहीं आता हूँ मेरा दलित होना या नही होने का आधार मेरी जाति या मेरे साथ होने वाला भेदभाव नहीं है अपितु मेरी जाति के तथाकथित ठेकेदारों की विचारधारा है, जो उस भ्रष्ट ठेकेदारी प्रथा के साथ है उनके हिसाब से वो सब दलित है और जो इस विचारधारा के साथ नहीं वो केवल एक कट्टर संघी हिन्दू है।
कुछ “गटर कालीन” इतिहास के जानकार बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था सवर्ण लोगो की देन है और मेरे जैसे दिमाग से गरीब ने ये बात मान भी ली और यही अपने बेटे को भी बताया। और ऐसे ही एक दिन मेरे बेटे ने एक दलित दलाल से पूछ लिया कि चलो मैं मान भी लू की सवर्ण लोगो ने वर्ण व्यवस्था की होगी किन्तु दलितों के अंदर किसने ये व्यवस्था की, किसने दलितों में भी जातियां, उनकी भी उपजातियां, उनके गोत्र बनाए, क्यों हर दलित जाति के अलग देवता है क्यों हर दलित जाति के खान-पान, बोलचाल, भेशभूषा, में अंतर है, क्यों दलितों के अंदर भी छुआछूत है, क्यों दलितों में एक-दूसरी जाति में विवाह नहीं होते। मेरे बेटे के यह कहते ही पता नहीं क्यों वो दलाल हम सब को संघी कहने लगा वो हमारे अभी तक समझ में नहीं आया और शायद हम ठहरे संघी दलित इसलिए कभी आयेगा भी नहीं।
पता नहीं क्यों आज मुझे मरने पर गर्व महसूस हो रहा है! अगर मैं सामान्य रूप से मरता तो शायद लोग मुझे एक दलित के रूप में याद करते किन्तु आज एक दलित ना होकर एक भारतीय रूप में मरने का अलग ही सुकुन महसूस कर पा रहा हूँ जो शायद वो दलित दलाल कभी नहीं समझ सकते।