एक तरफ आरक्षण का लाभ लेकर तीन-चार पीढ़ी तक अपने ही लोगों को सांसद, विधायक, मंत्री, अफसर आसानी से बना रहे हैं वही गांव की स्थिति इसके विपरीत बहुत ही खराब हैं।
वर्तमान समय में भी अधिकांश दलित अपने स्वंय के लाभ मात्र के लिए अधर्मी दलित नेताओ को अपना सामर्थ्य यानी की वोट बैंक प्रदान कर रहे है, नाकि किसी राष्ट्रीय हित में।
बार–बार दलित–मुस्लिम एकता के दुहाई देने वाले नेता गण इस मामले से बचने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? क्या दलित–मुस्लिम गठजोड़ की बात करना सिर्फ चुनावी स्टंट है? देश में स्वघोषित दलित नेता का दलित प्रेम सिर्फ दिखावा है।
1 जनवरी को फिर से भीमा कोरेगांव का जिन्न जागेगा और दुष्ट अंग्रेजों के विजय की बरसी मनाई जाएगी, रवीश अपने फेसबुक पर प्रपंच फैला चुका है एवं अन्य वामी कामी उसके फिराक में हैं।
If we are serious about carrying on the legacy of Babasaheb, we must ensure that the people who lead us or claim to be our leaders should never fool us into treading a path which is, in essence, the same as that of Jogendra Nath.
हाल के ही दिनों में दो प्रमुख घटनाएँ सामने आयीं है जिसे देख के लगता है की भारत में जातिवादी भावना भरी गई है ताकि हिन्दुओं में टकराव बना रहे और कुछ तथाकथिक धर्मनिरपेक्ष राजनितिक दल अपना प्रभाव और प्रभुत्व भारत में बना के रख सकें।
मेरा दलित होना या नही होने का आधार मेरी जाति या मेरे साथ होने वाला भेदभाव नहीं है अपितु मेरी जाति के तथाकथित ठेकेदारों की विचारधारा है, जो उस भ्रष्ट ठेकेदारी प्रथा के साथ है उनके हिसाब से वो सब दलित है और जो इस विचारधारा के साथ नहीं वो केवल एक कट्टर संघी हिन्दू है।
Many Dalit writers, scholars, and left-liberals have pointed out this issue in social media and try to interpret the situation from the aspect of the Brahminical hegemony of the religion.