राजनीति व्यक्ति के जीवन की दशा और दिशा दोनों तय करती है। राजनैतिक उदासीनता किसी भी लोकतंत्र के लिए दुख का विषय है। और यह न केवल दुख का विषय है अपितु लोकतंत्र के लिए घातक भी है।
अब्राहम लिंकन की परिभाषा ‘जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है’, इससे लोकतंत्र में जनभागीदारी का महत्व प्रदर्शित होता है। चुनाव की एक तिथि तय कर उसमें जाकर अपना मत मतपेटी (या ईवीएम का बटन दबाकर) में डालकर जनता के कर्तव्यों को इतिश्री नहीं होती है। लिंकन के ही शब्दों में जब यह शासन जनता द्वारा ही है तो फिर जनता अपने ही शासन के प्रति कैसे उदासीन हो सकती है?! जब यह शासन अपने लिए ही है तो जनता कैसे उदासीन रह सकती है
नहीं! बिलकुल नहीं!! राजनैतिक उदासीनता का लोकतंत्र में बिलकुल स्थान नहीं है और नहीं होना चाहिए। जनता की राजनैतिक उदासीनता से हो सकता है कि अयोग्य प्रत्याशी का चुनाव हो जाए। या कि संभवतः यह उदासीनता शासन पर किसी व्यक्ति विशेष या परिवार विशेष के एकाधिकार की ओर ले जाए, जो कि लोकतंत्र के लिए अनुकूल स्थिति नहीं है। शासन पर किसी एक परिवार का एकाधिकार का अर्थ है पुनः राजतंत्र की ओर स्थानांतरण, एक नए नाम के साथ। नाम बदल जाने पर कार्य शैली पुनः राजतंत्र के जैसी हो जाएगी यदि किसी एक व्यक्ति या परिवार विशेष का एकाधिकार हो जाए तो। वास्तव में एकाधिकार अपने मूल अर्थों में राजतंत्र का ही एक पर्यायवाची है।
विगत वर्षों में स्वतंत्रता के बाद दिनों दिन भारतीय जनमानस में शासन और राजनीति के प्रति उदासीनता बढ़ने लगी। इसमें हमेशा उत्तरोत्तर वृद्धि ही हुई। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, अफसरशाही, भाई-भतीजावाद, बाहुबलियों का वर्चस्व ये सब कुछ ऐसे कारण हैं जिन्होंने जनता को राजनैतिक रूप से उदासीन बना दिया। और इस राजनैतिक उदासीनता का अवश्यंभावी दुष्परिणाम किसी एक परिवार के एकाधिकार के रूप में सामने आया।
विगत वर्षों में जनता मान चुकी थी कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा। जिसकी लाठी उसकी भैंस। यह एक नकारात्मक स्थिति है। वर्मातन भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि जनता राजनैतिक उदासीनता से बाहर आकर जागृत हो चुकी है। आज जनसाधारण अपने हित में सोचने लगा है। निस्संदेह विविधताओं से भरे भारतीय समाज में प्रत्येक नीति शत प्रतिशत लोगों को संतुष्ट कर सके ऐसा संभव नहीं है। परंतु अगर नीति व्यक्तिगत रूप से नहीं अपितु एक एकीकृत राष्ट्र के रुप में लाभदायक है तो उसे सफल मानना चाहिए और निस्संदेह यह नीतिगत सफलता है। इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझना चाहिए कि कुनैन की कड़वी दवाई जीभ के लिए अरुचिकर है। जीभ से पूछा जाए कि क्या कुनैन खाओगे, तो जीभ कभी भी अपनी स्वीकृति नहीं देगा। परंतु जीभ की स्वीकृति की प्रतीक्षा करना शरीर के लिए घातक हो सकता है। एक एकीकृत शरीर के लिए कुनैन की आवश्यकता है जो कि शरीर के लिए हितकारी है और इसके दूरगामी परिणाम जीभ के लिए भी लाभदायक हैं।
यहाँ पर यह भी चर्चा करना अत्यंत आवश्यक है कि लोकतंत्रीय प्रणाली में नीतिगत सफलता का आकलन अवश्य होना चाहिए, परंतु ध्यान रहे कि यह समालोचना हो। नीतियों का आकलन निष्पक्ष होना चाहिए और उसके दोनों पहलुओं को ध्यान में रखकर होना चाहिए। कितना भी सोच समझकर या योजनाबद्ध तरीके से काम किया जाए न तो कोई नीति शतप्रिशत कार्यान्वित होती है और न ही शतप्रिशत लोगों के लिए लाभदायक होती है। ऐसी स्थिति में नीति का आकलन उसके दूरगामी परिणाम के आधार पर होना चाहिए और साथ ही साथ इस बात का भी आकलन होना चाहिए कि समाज के कितने हिस्से के लिए मात्रात्मक रुप में कितना लाभदायक है और नीति का लाभ एकीकृत राष्ट्र के रुप में कितना है? राष्ट्रहित के लिए व्यक्तिगत हानि को नजरअंदाज करना ही श्रेयस्कर है जैसा कि हम जीभ के उदाहरण में देख चुके हैं।
नीतिगत समालोचना और जनसाधारण को जागरूक करने में पत्रकारिता (जर्नलिज्म) एक अहम भूमिका निभाता है और इसीलिए इसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा दी जाती है। शतप्रतिशत न होने पर भी अधिकांशतः जर्नलिज्म दुर्भाग्यवश टेर्रनलिज्म में बदल चुका है। और पत्रकारिता के इस रुपांतरण के लिए भी कहीं न कहीं परिवारवाद और राजनीति में बाहुबलियो का दखल ही जिम्मेदार है। पत्रकार भी एक साधारण व्यक्ति ही है और जब वह यह अनुभव करता है कि विरोध करना घातक है बजाए इसके वह सरल राह चुनकर परिवार विशेष की चाटुकारिता करने लगता है। यह बिलकुल राजतंत्र के चारण या भाट की तरह है। प्राचीन समय में राजघरानों के दरबारी कवि हुआ करते थे जिन्हें चारण या भाट कहा जाता था। इन सब गलतियों की एकमात्र जड़ है परिवारवाद। और जब पत्रकार चारण या भाट में रूपांतरित होता है तो फिर शुरू होता है छल और प्रपंच। तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना। सही को गलत और गलत को सही साबित करने की कवायद।
वर्तमान जागरुक भारत किसी नवयुवक के भाँति उत्साहित है। ऐसा उत्साहित युवक जो अपने उत्साह और क्षमता से हिमालय चंद पलों में लांघ जाए। संचार और सूचना क्रांति ने इस नवयुवक भारत के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है। अब वह तथ्यों के लिए केवल चारण या भाट पर ही आश्रित नहीं है और साथ ही साथ उसमें नीतियों की समालोचना की शक्ति और समझ भी आ रही है। यही वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का पहला पत्थर है, यही नींव है। यह जागरुकता परिवारवाद (या छद्म राजतंत्र) की जड़ें हिलाने के लिए आवश्यक है।
यही जागृत जनता ही वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार की वास्तविक उपलब्धि है।