अरे भाई मैं अगर खुले आम हिंदुत्व की बात करूँगा, अपने धर्म के गीत गाऊंगा तो बगल वाले मियाँ क्या सोचेंगे कहीं ईद में सेवईया खाने न बुलाये कहीं ऐसा न हो की साहब नाराज़ हो कर मेरा बहिष्कार न कर दे, कहीं मुझे शक की निगाह से न देखे। कितना निर्लज्ज महसूस होगा मुझे सभी लोग मुझपर थूकेंगे मैं क्या करू! अब मैंने फैसला कर लिया है की मुझे अपनी नकली इज्जत ज्यादा प्यारी है, हम वैसे भी 100 करोड़ हैं। कोई और ठेका उठा लेगा हमारी 5000 वर्ष पुरानी संस्कृति की, बहुत लोग हैं। मैं क्यूँ दुश्मनी लूँ, मैं नौकरी वाला आदमी हूँ। क्या मिलेगा, माँ बीमार दादी बीमार, बहन की शादी नहीं हुई, क्यूँ हिंदुत्व के नाम पे अपना सुखी जीवन बर्बाद करूँ, वैसे भी मैंने पढ़ा है मेरा धर्म हिंसा करना नहीं सिखाता न शस्त्र से न वाणी से। मुझे अपने परिवार और आने वाले भविष्य की चिंता है, वैसे भी मेरे जाग जाने से क्या ये समाज जाग जायेगा? कोई मतलब नहीं इन चीजों का, 1000 वर्षो से नहीं बदला। मैं क्या कर लूँगा, कोई सेंस नहीं भाई, इम्प्रक्टिकल है। यही सब करने के लिए डिग्री ली थी क्या, मुझे पैसा कमाना है, यूरोप घूमना है, बीवी के साथ चाय पीते हुए कहना है की “धर्म भ्रष्ट हो चूका है हमारा, अब हिन्दुओ में एकता नहीं है। कुछ नहीं रखा अब समाज में सब नेतागिरी करने में व्यस्त हैं”।
यही हालत है आज के हिन्दुओ की। हीनता का शिकार हो चुके, जंगली जानवरों से भी कम बुद्धि को धारण किये सिर्फ आरोप प्रत्यारोप का पिटारा सिर में लिए घूम रहे हैं। बेशर्मो की तरह एक दुसरे से अपेक्षा करते हुए की सामने वाला कुछ करे तब ही मैं कुछ करूँगा। एक अदृश्य बोझ के तले दबे हुए हैं। जैसा की कोई उन्हें अपनी संस्कृति को अपनाने के लिए रोक रहा है। विदेशी अक्रान्ताओ और थोपी संस्कृति के तले इतना दब चुके हैं। अपने धर्म को ही बोझ समझ चुके हैं। धर्म में बंधुत्व की भावना सिर्फ सपने में संजोए हुए घूम रहे हैं, राम राज्य की आशा लिए हुए मुर्दे की भाति अपनी संस्कृति की कब्र खोद रहे हैं। कुछ वामपंथी टूट पुन्चियो की किताबो में लिखित इतिहास को अपनी संस्कृति का सर्वस्व मानकर स्वयं को बेवजह दोषी मानकर जी रहे हैं। बात अब ये हो चुकी है की प्रसाद खाना आजकल सही नहीं समझा जाता जबकि सेवईया और केक किसी विशेष अवसरों खाना कूल बन चूका है। बस औपचारिकता के नाम पर सिर्फ रस्मे निभा रहे है, संस्कृति को नहीं। संस्कृति का निर्वाह करना कठिन है इसमें इंसान की कलई खुल जाती है। रस्मो को निभाना आसान है।
फिर भी प्रश्न यही है कब एक होंगे? कब तक दूर भागेंगे? संस्कृति को कब तक नहीं अपनाएँगे? जिन्होंने अपनी पहचान छोड़ी हैं वह हमेशा मिट गया, क्या हुआ फारस का? मिस्र की संस्कृति अब कहाँ सिर्फ पिरामिडो में? माया सभ्यता क्यों नहीं अब? जिन्होंने समझौता किया वो मिट गए, क्या ये सिलसिला अब भारत में नहीं चल पड़ा?
लोग कहते हैं की 1000 साल से नहीं मिटा पाए अब कहा मिटा पाएंगे। परन्तु 1000 साल में इतने निर्लज्ज भी नहीं पैदा हुए। भारत में दयानंद सरस्वती हुए, विवेकानंद हुए, भगत हुए, तभी बची है ये संस्कृति लेकिन आज का भारतीय हिन्दू जैसा कपटी कभी पैदा नहीं हुआ। क्या अब भागते भागते हिन्द महासागर में कूद जाओगे। कि स्वयं का बचाव करोगे? संस्कृति पर किसी तर्कहीन मंदबुद्धि आक्षेपों का सही उत्तर देना भी आपका बचाव् है। सही ज्ञान, अपनी सभ्यता की पहचान, और सिर्फ चीटियो से थोड़ी ज्यादा हिम्मत, इतना काफी है एकजुट होने के लिए, विश्वास करने के लिए, सिर्फ जुड़ जाने के लिए।