राजनीतिक दल एक-दूसरे को सदाचार का पाठ तो पढ़ाते रहते हैं, मगर खुद उस पर कितना अमल करते हैं, अगर यह देखना हो तो चुनावों के समय उनका आचरण देखना चाहिए. गुजरात विधानसभा और दिल्ली नगर निगम चुनाव का मतदान हो गया हैं. इस दौरान राजनीतिक दलों में एक-दूसरे को अपशब्द कहने, मतदाताओं को रिझाने के लिए बढ़-चढ़ कर मुफ्त बांटने की घोषणाएं करने की जैसे होड़ लगी हुई थी. हर चुनाव में राजनीतिक दल अपने प्रतिद्वंद्वियों पर झूठे-सच्चे आरोप लगाते, एक-दूसरे के स्याह पक्ष उजागर करते हैं.
यहां तक तो ठीक, मगर चुनाव आचार संहिता की भी परवाह न की जाए, तो स्वाभाविक ही उस पर उंगलियां उठती हैं. दिल्ली नगर निगम चुनाव प्रचार के आखिरी दिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने योग प्रशिक्षकों को एक चुनावी सभा में चेक के जरिए उनका मानदेय बांटा, तो विपक्षी भाजपा हमलावर हो उठी. आपत्ति उचित थी. मगर अब तो प्रचार थम गया, मतदान भी हो गया, निर्वाचन आयोग को इस मामले में जो भी फ़ैसला करना होगा, बाद में करता रहेगा. केजरीवाल खुद नगर निगम में प्रत्याशी भी नहीं थे कि उनकी सदस्यता पर कोई ख़तरा पैदा हो.
यही हाल गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान देखा गया. खूब अविवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग किया गया.विचित्र है कि ऐसी भाषा का प्रयोग करने में न सिर्फ राजनेताओं में कोई हिचक नहीं दिखती, बल्कि प्रतिद्वंद्वी दल उसे अपने पक्ष में इस्तेमाल भी करने लगते हैं. शायद यह राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की सोची-समझी रणनीति भी हो सकती हैं कि इस तरह वे असल मुद्दों से आम लोगों का ध्यान भटकाने में कामयाब हो जाते हैं.स्थानीय चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं, मगर वे अक्सर प्रचार अभियान से गायब हो जाते हैं.
पर सवाल हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान निर्वाचन आयोग कहां रहता है. क्या प्रचार की भाषा, राजनीतिक दलों के मतदाताओ को अनैतिक तरीके से रिझाने के प्रयास उसकी आंखो से ओझल रहते हैं. या फिर अब इन सब बातों को आचार संहिता के दायरे से बाहर कर दिया गया हैं. क्यों केजरीवाल जैसे शीर्ष पदों का निर्वाह कर रहे लोग खुलेआम आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं और वह चुप्पी साधे रहता हैं. निर्वाचन आयोग की इसी शिथिलता का नतीजा है कि हर अगले चुनाव में राजनीतिक दल आचार संहिता की धज्जियां कुछ और ढिठाई के साथ उड़ाते नजर आते हैं.
दरअसल, निर्वाचन आयोग की निष्ठा पर सवाल लंबे समय से उठते रहे हैं. इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित करने और आचार संहिता की अवधि कम रखने को लेकर भी वह सवालों के घेरे में रहा. उस पर आरोप हैं कि उसने प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों को ध्यान में रख कर तारीखों का ऐलान किया. फिर आचार संहिता की अवधि इतनी छोटी रखी कि अब तक किसी चुनाव में इतनी छोटी नहीं रखी गई.निर्वाचन आयोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सुरक्षा-संरक्षा का अहम तंत्र हैं.
चुनावों के दौरान उसकी किसी भी प्रकार की पक्षपातपूर्ण या सोची -समझी चुप्पी लोकतंत्र को कमजोर करती हैं.चुनाव प्रचार के दौरान हर राजनीतिक दल के नेता नियम-कायदों की धज्जी उड़ाते देखे जाते हैं. बहुतों के खिलाफ़ शिकायतें भी आती हैं, मगर चुनाव संपन्न हो जाने के बाद निर्वाचन आयोग हाथ मलता रह जाता हैं. सवाल हैं कि वह कब अपनी स्वायत्तता और अधिकारों का इस्तेमाल कर राजनीतिक दलों को उनकी मर्यादा सिखाने का काम करेगा.
लेख: अभिषेक कुमार (सभी विचार व्यक्तिगत हैं)