Sunday, November 3, 2024
HomeHindiउत्तर प्रदेश भगवा-गढ़ बना रहेगा

उत्तर प्रदेश भगवा-गढ़ बना रहेगा

Also Read

यूपी का चुनावी पारा चढ़ने लगा है। वो बात अलग है कि चुनाव अभी दो साल दूर है। इसी बीच कभी अखिलेश कभी मायावती तो कभी प्रियंका की लोकप्रियता का फोफा बनाने की कोशिश भी हो रही है। चलो इसी संदर्भ में कुछ आँकड़ो और ग्राउंड रियलिटी पर नजर डाल लेते हैं।

बसपा और सपा का बेस्ट क्रमशः 2007 और 2012 में था। तब इन पार्टियों ने अकेले सरकार बनाई थी। लेकिन तब भी इनका वोट शेयर 30% के आस-पास तक ही पहुंच पाया था। इन दोनों चुनावों में इनको भाजपा के छिटके हुए वोटरों ने भी वोट किया जिनमे ब्राह्मण वोट प्रमुख था।

2013 में अमित शाह के यूपी में किये गए संगठनात्मक सुधार से भाजपा का छिटका हुआ वोट वापस संगठित हो गया। और पिछले तीन चुनाव से भाजपा (+अपना दल) लगातार 41% से ऊपर वोट पा रही है।2019 में तो ये आंकड़ा 51% वोट शेयर पार कर गया।

सीट देखें तो पिछले तीनो चुनावों में लगातार 80% से ऊपर सीट जीती है भाजपा ने।


अगर ऊपर के चार्ट के भगवा वाले हिस्से को देखो तो पता चलता है कि यूपी की लड़ाई एकतरफा है। चाहे वोट शेयर को देख लो और चाहे सीट। जैसे 2000 के दशक में ऑस्ट्रेलिया और जिम्बाब्वे का मैच हुआ करता था। ये सब तब का है जब न तो राम मंदिर का निर्णय आया था, न अनुच्छेद 370 हटा था, न CAA/NRC का विषय था। योगी की अपनी लोकप्रियता भी इतनी नहीं थी जितनी CAA दंगाइयों की सुताई और कोरोना काल के बाद बढ़ गई है।

ऐसा भी नहीं है कि अमित शाह के बाद संगठन सशक्त करने का काम अब भाजपा ने ठंडे बस्ते में डाल दिया हो। सुनील बंसल निरंतर 365 दिन इस काम में लगे रहते हैं। ऐसे निःस्वार्थ कार्यकर्ताओं के दम पर ही भाजपा टिकी है जिनको किसी पद की लालसा नहीं होती।

ऐसा नहीं है कि भाजपा को हराया नहीं जा सकता। लेकिन विपक्ष अभी भी 10-15 साल पुरानी स्टाइल में जी रहा है। समय बदल गया है। अब बिना परिश्रम के और सड़क पर उतरे बिना वोट नहीं मिलेगा।

सपा की पुरानी नीति यानी M-Y वोट और लोकल गुंडों को भर लेने की प्रवृति से अब लोग आकर्षित होने से रहे। 2022 तक सरकार इतने लोकल गुंडो का एनकाउंटर कर देगी वो खौफ के दम पर वोट करा भी नहीं पाएंगे। वैसे 2017 में ही कौन सा करा पाए थे।

बाकी अखिलेश को न तो पार्टी का संगठन चलाना आता है न ही उसकी कैडर में वैसी पकड़ है जैसी मुलायम की थी। शिवपाल से मंत्रालय छीनने या बाप से पार्टी छीनने की बात अलग थी। कारण भी है-मुलायम जमीन से उठे हुए नेता थे; धूप में तपकर और धूल फांककर आगे बढ़े थे।

अखिलेश ने कभी अपने दम पर चुनाव नहीं जीता। अमेरिका वाली विज्ञापन कंपनी (PR Firm) के दम पर मीडिया, ट्विटर या व्हाट्सअप में कितना भी चेहरा चमका लें। आदरणीया भौजाई जी के साथ कितने भी हंसते-मुस्कुराते वीडियो पोस्ट कर लें। उनसे ग्राउंड रियलिटी नहीं बदल पाती। मुँह में चाँदी की चम्मच लेके पैदा हुए लोगों के बस की राजनीति अब नही है। अब 4G/5G इंटरनेट वाला दौर है।

2012 में मुलायम ने चुनाव जीतकर अखिलेश को मुख्यमंत्री पद दे दिया था। उसके बाद धुआंधार तरीके से बैक-टू-बैक तीन चुनाव अखिलेश ने अकेले दम पर हारे हैं। ये अलग बात है कि इस बात का कभी घमंड नहीं किया।

डरपोक भी इतना है कि 2017 में कांग्रेस से गठबंधन किया और 2019 में मायावती से। मुलायम ने तो 2019 में कहा भी कि तुम लड़ ही 37-38 सीट रहे हो तो जीतोगे कितनी!

अकेले लड़ने की हिम्मत ही नहीं होती उसकी। पता भी है कि अकेले तो चुनाव में कुछ नहीं कर पाएगा।
सपा का इकट्ठा किया हुआ वोट भी पूरा छिटका दिया है।  2012 के बाद से सपा का पीक वोट शेयर ~22% रहा है।

बहिन जी के सुर 2019 के बाद बदले-बदले हैं। सारे जतन कर लेने के बाद अब उनको पता है कि उनका वोट इससे ज्यादा बढ़ने वाला नहीं है। तो बिना कारण केंद्र से बवाल कर के क्या फायदा। चुनाव के टाइम थोड़ा गर्मा-गर्मी दिखा दो, पर्चा पढ़ के चार बातें बोल दो, बाकी शांत रहो।

भाजपा ने भी सारे CBI केस वापस ले लिए हैं इनके। सम्मान भी पूरा करते हैं। संभव है 2022 के बाद पद्म विभूषण भी दे दें मायावती को।

मायावती का स्वभाव इधर स्टेट्समैन वाला है इसमें कोई संदेह नहीं। चुनाव में कुछ भी कहें या बोलें। लेकिन 370, चीन से तनाव, कोरोना संकट या ऐसा कोई भी राष्ट्रीय महत्व का विषय रहा हो वो राजनीति करने से बची हैं।

CAA पर भी जुबानी जमाखर्च कर के वो विपक्षी एकता वाली मीटिंग से कन्नी काट गईं। कुल मिलाकर वो सबसे बना के चल रही हैं और उनको अपना राजनीतिक भविष्य पता है। लेकिन उनका वोटर उनके जीवनकाल भर उनके साथ ही रहेगा।

कांग्रेस का कोई वोट नहीं है यूपी में। मीडिया और ट्विटर पर कितना भी उछल लें। प्रियंका वाड्रा की नाक, हेयर-स्टाइल, चश्में को कितना भी इंदिरा गाँधी से मैच करा लें। ग्राउंड पर न तो इनका कोई कैडर का ढांचा है न ही कोई टिकट लेवैया। कोई ऐसा व्यक्ति भी नहीं है जो ढांचा सुधार सके। जहाँ पर सिंधिया या पायलेट जैसे थे भी तो वो मूर्खता से ऊबकर कर अलग रास्ता पकड़ लिए।

इनको थोड़ा भ्रम ये है कि विकास दुबे जैसे गैंगस्टर के एनकाउंटर से ब्राह्मण वोट भरभरा के कांग्रेस की चौखट पर अपने आप गिरेगा आकर। पहली बात तो ऐसा होगा नहीं क्योंकि पंडितजी की बुद्धि परशुरामजी और रावण में अंतर करना जानती है। दूसरा उसका पूरा बवाल ही ब्राह्मण बनाम ब्राह्मण का था। और अगर वोट बिखरता हुआ होता भी तो जहाँ सरकार के बिना नाक रगड़े लोग अपने शौचालय में हगने नहीं जाते वहाँ इनको लग रहा है कि लोग लाइन लगा के पंजे को वोट देने आ जाएंगे।

बाकी ओवैसी या चंद्रशेखर रावण जैसे जितने भी ‘जय भीम-जय मीम’ टाइप नए छुटभैये आएंगे वो उसी वोट में सेंधमारी करेंगे जो भाजपा को नहीं मिलना है। इससे भाजपा को फायदा ही होना है।

जाति के हिसाब से सपा के पास यादव और बसपा के पास जाटव( चर्मकार) अभी भी सुरक्षित है। बाकी लड़ाई उन दोनों में मुसलमान वोट की है। मुसलमान हमेशा की तरह अलग-अलग क्षेत्र में उस प्रत्याशी को वोट करेगा जो भाजपा को हराने में सक्षम हो।

दूसरा बड़ा वर्ग इनको वो वाला वोट करेगा जो इस सरकार से खुन्नस खाये बैठा हो। इस 4-5% वोटर को भाजपा के सिवाय किसी को भी वोट देना होगा। ये दुनिया भर के लोकतंत्र में हमेशा होता है। जहाँ एक हिस्सा सत्ताधारी दल के विरोध में ही वोट करता है। इसी को एन्टी इन्कम्बैंसी वोटर बोलते हैं। यह लोकतंत्र की निर्वाचन प्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा माना जाता है। कोई भी गंभीर राजनीतिक दल अपनी रणनीति बनाते समय इनकी गणना करके चलता है।

बाकी सपा-बसपा के पास कोई ऐसा नया ठोस ग्रुप नहीं है जो इनको पूरा का पूरा वोट करे।

अब वापस भाजपा की बात करते हैं।

नगरीय क्षेत्र में भाजपा हमेशा हावी रही है। जब कुल 50 विधायक भी नहीं होते थे तब भी मेयर 12 में से 10-11 भाजपा के ही होते थे। नगर निगमों में भी बड़ा हिस्सा भाजपा का हमेशा रहता है। शिक्षा के स्तर और भाजपा के वोट शेयर में एक सकारात्मक सह-संबंध(Positive Correlation) देखा जा सकता है।

क्योंकि समझ बढ़ने पर लोगों को ये तो दिखने ही लग जाता है कि भाजपा के अलावा सारी पार्टियाँ किसी एक परिवार की बपौती या किसी व्यक्ति विशेष की निजी संपत्ति से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनमें न कोई विज़न है न विचारधारा। क्षेत्रीय पार्टियाँ को तो जब तक उनकी जाति सिर पर चढ़ाये हुए है तब उनका धंधा चौकस है। नहीं तो अपनी जाति ही दुरियाती है तब तो क्या कहने! राष्ट्रीय लोक दल और चौधरी अजित सिंह का हाल सब देख ही रहे हैं।

शहरों से इतर गाँव में तो अभी भी जाति ही अहम विषय है। उत्तर प्रदेश में तो ग्रामीण जनसंख्या 77 प्रतिशत से अधिक है।

भाजपा ने जाति को अच्छे से साधा है। दोनो उप मुख्यमंत्री अलग अलग जाति से हैं। माननीया महामहिम जी को मध्य प्रदेश के राज्यपाल से ट्रांसफर कर रणनीतिक रूप से यूपी लाया गया। स्वतंत्रदेव सिंह के रूप में एक कुर्मी जाति के कर्मठ व्यक्ति को यूपी का भाजपा अध्यक्ष बनाया गया। जनसंघ के समय कुर्मी इनका आधार वोटर था और कालांतर में क्षेत्रीय नेताओं के कहने पर वोट करने लगा था।

अनिल राजभर का दो मंत्रालय देकर कद बढ़ाया गया है। जाट अब खुल के भाजपा को वोट देता है, संजीव बालियान और सुरेश राणा अब  बहुत बड़े जाट नेता हैं। पासी का भी एक बड़ा हिस्सा कई चुनावों से भाजपा को वोट दे रहा है। निषाद पार्टी अब भाजपा के सिंबल पर ही लड़ती है। ब्राह्मण, बनिया, लाला, ठाकुर, लोध, खटीक आदि तो भाजपा के परंपरागत वोट हैं ही। राम मंदिर/370 के बाद इनमे कोई छिटकाव की संभावना भी नहीं दिखती।

डेवलपमेंट के नाम पर तो भाजपा के पास दिखाने को इतना कुछ है कि उसकी सपा या बसपा से कोई तुलना नहीं हो सकती। पूरी कवरेज के लिए अलग से लेख लिखना पड़ेगा। पानी पी-पी कर भाजपा को कोसने वाला भी ये नहीं कह सकता कि उसके गाँव से लेकर जिले तक की अधिकतर सड़कें बेहतर नहीं दिखती या अब बिजली भर-भर के नहीं आ रही। हर गाँव मे पक्के घर बन रहे हैं और सिलिंडर तो हर घर पहुंचे हैं। फसल खरीद का पैसा अब 4-5 साल नहीं अटकता। आयुष्मान भारत कार्ड से लाभान्वित लोग जैसे जैसे बढ़ेंगे ‘मोदी-योगी-जयश्रीराम’ की गूँज उतनी ही बढ़ती जाएगी। कानून व्यवस्था एक नया सकारात्मक पहलू है।

ये अलग बात है कि कोरोना के बाद कि राजनीति एकदम अलग होगी और उसके स्वरूप में अभी अनिश्चितता भी है। लेकिन अनिश्चितता के प्रति आग्रहशील भी सर्वाधिक भाजपा ही है। भाजपा ने वर्चुअल रैली तभी चालू कर दी जब दूसरे कार्यालय पर लॉकडाउन कर के घर बैठे थे।

असल में यूपी में हार-जीत की परिभाषा ही बदल गई है। 403 में से 202 सीट जीतने की लड़ाई है ही नहीं। भाजपा अगर 260 से कम पा रही है तो ये उसकी हार होगी; सपा-बसपा में से कोई अगर अकेले 100 सीट भी पा जाए तो ये उसकी जीत होगी।

अंततः एक सामान्य दृष्टि से देखने पर भी यह स्पष्ट है कि भाजपा अगले 10-12 साल उत्तर प्रदेश में हर चुनाव जीतने वाली है। इसका मूल श्रेय अमित शाह को ही है कि उन्होंने 2013-14 में अथक परिश्रम किया। और हार-जीत अलग रखें तो अगले 30-35 साल तक मुख्य पार्टी बनी रहेगी। इस परिप्रेक्ष्य में यूपी को भगवा राजनीति की नई प्रयोगशाला कहना ही उचित होगा।

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

- Advertisement -

Latest News

Recently Popular