कुछ दिन पूर्व सोशल मीडिया में केदारनाथ गयी दो युवतियों का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वो, केदारनाथ मंदिर के पुजारी के व्यवहार और वहाँ बिकने वाली पूजा सामग्री तथा अन्य धार्मिक महत्त्व की वस्तुओं के मूल्य को लेकर सनातन संस्कृति के तीर्थों पर बड़े प्रश्नचिन्ह लगा रही थीं. वीडियो में उन्होंने अपने ठगे जाने का विस्तृत विवरण दिया था यद्यपि वीडियो देखकर केदारनाथ यात्रा से उनकी धार्मिक और अध्यात्मिक अपेक्षाओं का पता नहीं चल पा रहा था. वीडियो पर आयी प्रतिक्रियाएं सीधे सीधे दो वर्गों में विभाजित की जा सकती थी. पहला वर्ग वो जो इन युवतियों के ठगे जाने से स्वयं को भी ठगा हुआ अनुभव कर रहा था (ये बात और है कि उनमे से अधिकांश ऐसे रहे होंगे जो संभवतः कभी किसी तीर्थ पर नहीं गए होंगे) और वीडियो के नीचे, पण्डो द्वारा ठगे गए अपने किसी दूर के रिश्तेदार या मित्र के मित्र के किस्से बढ़ा- चढ़ा कर लिख रहा था इस ज्ञान के साथ कि ऐसी जगहों पर जाना ही नहीं चाहिए, ये भगवन के नहीं गुंडों (पण्डों) के स्थान हैं. इन प्रतिक्रियाओं को लिखने और पसंद करने वालों की संख्या भी बड़ी थी. दूसरा वर्ग संख्याहीन था तो इधर उधर छुट –पुट रूप से इसे सनातन परंपरा के तीर्थ क्षेत्रों के प्रति दुराभाव बता रहा था और उदास भाव से सोच रहा था कि कितना अच्छा होता यदि उसकी तरफ से भी ऐसी ही रोचक प्रतिक्रियाएं दी जा रही होतीं.
कुछ छोटी छोटी बातों को, एक साथ रख कर देखें तो कुछ बड़े कुचक्र स्पष्ट होते हैं. तथाकथित उदारवादियों और वामपंथियों ने अत्यंत सूक्ष्मता से हम सनातन लोगों के मानस में उस प्रत्येक व्यक्ति, प्रक्रिया, स्थान, विचार, संस्कार, परंपरा के प्रति अनासक्ति उत्पन्न की है जो हमें हमारी पहचान या मूल से जोड़ता है. हमें अपने अस्तित्व के प्रति आस्थावान बनाता है.
यदि आपने कभी तीर्थ क्षेत्र का भ्रमण किया हो या तीर्थाटन की योजना बनायी हो और उसकी चर्चा परिवार, रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों से की हो तो मस्तिष्क पर बल देकर सोचिए, क्या क्या परामर्श मिले थे. कुछ सामान्य परामर्श ऐसे होते हैं, “अरे जा रहे हो भाई तो जाओ मगर वहाँ के पण्डों से होशियार रहना”, “दर्शन ही करना था तो हमें बताते कुछ जुगाड़ लगवा देते उधर कई जानने वाले हैं नए लोगों को तो लूट लेते हैं पण्डे”, “वहाँ पूजा –पाठ के चक्कर में मत पड़ जाना पण्डे जेब खाली करा लेंगे”, “हम तो कहीं जाते नहीं –मन चंगा तो कठौती में गंगा इन सब जगहों पर पण्डों के नाम पर लुटेरे बैठते है”, ऐसे ही न जाने कितने प्रलाप ऐसे लोगों से सुनने को मिलते हैं जो गोआ, सिंगापूरऔर बैंकाक जैसी जगहों पर अलग अलग तरह की आरामगाह का उपभोग करते हुए कितने पैसे खर्च हुए इसे गिनते तक नहीं. इन्हें न तो तीर्थ क्षेत्र में जाना होता है न ही वैसी अभिरुचि होती है.
पिछले लगभग डेढ़ दशक में फैशन में बड़ा बदलाव हुआ और तीर्थ क्षेत्र पर्यटन स्थल के रूप में बदलने लगे. पर्यटक बढ़ने लगे किन्तु ये तीर्थयात्री नहीं थे. तीर्थ उस पर्यटन यात्रा का “एडेड एडवांटेज” था और परिचितों में अपनी धाक जमाने और आकर्षक “सोशल मीडिया” पोस्ट बनाने के काम आता था. ये वो पर्यटक थे जिनके लिए उस यात्रा में यदि कुछ महँगा या कष्टकारी होता था तो तीर्थ से सम्बंधित व्यय जैसे पूजा की थाली, पण्डे की दक्षिणा इत्यादि. धर्मस्थलों पर ऐसे अधार्मिक पर्यटकों जिनमे नव धनाड्य, प्रगतिशील, प्रकृति प्रेमी, छुट्टियों का आनंद उठाने वाले इत्यादि अधिक थे उन्होंने इन तीर्थ क्षेत्रों के विषय में और अधिक भ्रम फैलाये, स्थिति ऐसी बन गयी कि बेचारा “पण्डा” एक महान तीर्थ के आदरणीय पुरोहित से लोगों की जेबें ठगने वाला उठाई गीर हो गया.
इस प्रवंचना का सबसे अधिक प्रभाव उन वास्तविक श्रद्धालुओं और भक्तों पर पड़ा जिनके जीवन की साध ही किसी तीर्थ विशेष का दर्शन थी. वे जाने से डरने लगे. जाते तो डरे डरे रहते पण्डो और स्थानीय लोगों से बच कर रहते और बिना आत्मिक आनंद के वापस आ जाते. पण्डों से स्वयं को बचा लेते तो लगता यात्रा सफल हुयी और जीवन धन्य.
एक सच्चे श्रद्धालु और अध्यात्मिक व्यक्तित्व से इस विषय में बात करी तो उन्होंने जो कहा वो अद्भुत लगा, “ये पण्डे, पुजारी, पुरोहित ही तो वो लोग हैं जो हमारे भगवन की प्रतिदिन सेवा करते हैं, हमें तो जितना बन पड़े इनकी सेवा करनी चाहिए. इनके भी परिवार हैं जो हमारे जैसे तीर्थयात्रियों के सहारे हैं. तीर्थयात्रा का तो निर्धारित समय होता है फिर कहाँ भीड़ होती है? तीर्थ यात्रा तो वो हुयी जिसमें त्याग किया जाये और भगवान के सेवकों को श्रद्धा भर और क्षमता भर देना भी तो त्याग ही है. सच बात तो ये है, सच्चे भक्त को कोई पंडित, पण्डा, पुजारी, पुरोहित कभी कष्ट नहीं देता”.
दो ध्रुवों सी विपरीत इन बातों के साथ किन्तु बिना किसी पूर्वाग्रह के मैंने स्वयं ऐसे तीर्थ स्थलों की यात्रा की जो अपने पण्डो की ठगी और लूट के कारण कुख्यात किये गए हैं (क्यूंकि हैं नहीं) और ईश्वर की शपथ लेकर कह सकती हूँ कि कहीं भी एक भी व्यक्ति ने मुझे ठगने की चेष्टा नहीं की. इसमें कई यात्रायें अकेले, पहली बार और बिना किसी पूर्व जान पहचान के की गयी थीं.
स्वयं अनुभव कीजिये. पर्यटक नहीं तीर्थयात्री बनिए. कोई आपको नहीं ठगेगा.