आजादी के बाद का भारत अपनी विदेश नीति के पन्नों पर गुटनिरपेक्षता और नि:शस्त्रीकरण को कठोर अक्षरों से उत्कीर्णित कर चुका था.
यह बात सुझाना अव्यवहारिक सा नहीं होगा कि तत्कालीन परिस्थितियों और अंतर्राष्ट्रीय विश्व व्यवस्था में भले ही तटस्थता नहीं रखी जाती पर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए गुटबाजी से बचना ज़रूरी था.परंतु फिर भी विदेश नीति के अध्यायों में यह शब्द अपनी प्रासंगिकता खोने के बावजूद लम्बे दौर तक टिका रहा.
वतर्मान भारत चीन सम्बंधों पर कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने ट्विटर के माध्यम से सरकार से सवाल दागा कि सरकार को भारत चीन मामले पर स्थिति साफ करनी चाहिए. साथ ही ये भी कह डाला कि लोगों में अनिश्चितता फैल रही.
यह बात मेरी समझ से परे है कि विदेश नीति के छात्र और अध्येताओं में इस गूढ़ विषय पर भले ही चर्चा हो पर जनमानस में इतनी अनिश्चित्ता तो नहीं ही है. पर क्या पता जिन श्रमिक बंधुओं को गाड़ी करके घर पहुंचाने और वीडियो शूटिंग पर पैसा खर्च किया, शायद उनसे इस अनिश्चित्ता के बारे में पता चला हो.
इन सबके अलावा भारतीय विदेश नीति में 2014 के बाद आए यथार्थवादी परिवर्तन पर नज़र डालते हुए हम राहुल जी के सवालों का जवाब ढूंढने का प्रयास करेंगे.
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल का शपथ ग्रहण समारोह शार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मेहमाननवाज़ी से शुरु हुआ. यह छोटी बात नहीं थी वरन भारत की ” नेबरहुड फर्स्ट पाॅलिसी” का पहला कदम था.
भारत ने उन नजदीकी पड़ोसियों पर ध्यान देना शुरु किया जिन्हें 2014 के पूर्व किनारे लगा दिया गया था. नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे छोटे परंतु भारत के लिए सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण देशों में भारत ने अपनी पहुंच बनाने का प्रयास किया.
इनमें आर्थिक मदद हो, या नेपाल भूकंप पर भारत की पहली त्वरित सहायता, भूटान और म्यांमार में अवसंरचना प्रोजेक्ट हों, या फिर श्रीलंका में चीनी बंदरगाह के आसपास ही भारत का प्रोजेक्ट.ये सभी उस चीनी बढ़त को कम करने हेतु आवश्यक तो थे पर थोड़ा देर से शुरु हुए. हालांकि भारत ने इसमें कामयाबी पाई भी. NSG , पाकिस्तन जैसे मुद्दों पर इन देशों का सीधा सहयोग मिला.
विशेषकर जब चीन हिंद महासागर में ओबोर के माध्यम से अपनी बढ़त बढ़िया रहा है, तब इन देशो को साथ लेकर ही भारत चीन को प्रतिसंतलित कर सकता है. परंतु चीन से हमारे सम्बंधों में हमारा पक्ष पहले से क्या रहा इस ओर भी ध्यान देना आवश्यक है.
1950 के दशक में लगातार प्रधानमंत्री नेहरू ने ‘ हिंदी चीनी भाई भाई ‘ का राग भले ही अलापा हो रहा चीनी राजनय से मात खा गए. अमेरिकी दार्शनिक थोरो, इमर्सन और फ्रांसीसी दार्शनिक रोमा रोला से अंतरंग पत्राचार करने वाले नेहरू शायद कौटिल्य के अर्थशास्त्र का मंडल सिद्धांत भूल गए. जहां विजिगीषु राज्य के अग्र भू भाग वाला राज्य अरि यानि की शत्रु होता है.
खैर आपको बताता चलूं कि भारत ही नेहरू के नेतृत्व में पहला गैर साम्यवादी जनतांत्रिक राज्य था जिसने जनवादी कम्युनिस्ट चीन को मान्यता प्रदान की. नेहरू ने अपने चीन प्रेम में सहयोगी सरदार के एम पणिक्कर को चीन भेजकर स्वयं चीन को सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट दिलाने की मुहिम चलाई. साथ ही बाडुंग शिखर सम्मेलन में भी चीन को आमंत्रित किया.
नेहरू उस दौर में चीन को लेकर इतने रोमांटिक (कल्पनावादी) हो गए थे कि तिब्बत पर चीन का आधिपत्य स्वीकार कर लिया. पर जब 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया तो नेहरू की विदेश नीति चौपट हो गई थी.
शायद आज यह प्रश्न प्रासंगिक ना हो , पर राहुल जी से इन सबके कारणों पर सवाल पूछने चाहिए. 1950 का दशक केवल चीन से युद्ध हेतु नहीं बल्कि तत्कालीन सरकार द्वारा उत्तर पूर्वी भारत को यथा स्थिति छोड़ने के लिए भी याद किया जा सकता है.नेहरू इस बात से अनभिज्ञ नहीं थे कि चीन लद्दाख के अक्साई चिन पर कब्जा जमा सकता है, और सड़के बना भी रहा है.
पर अंग्रेजों के प्रति अपने मोह के कारण नेहरू ने वेरियर अलविन को पूर्वोत्तर भारत का सलाहकार नियुक्त किया. यद्यपि अलविन सदाशयी व्यक्ति कहे जाते हैं जिन्हें ना तो राजनैतिक समझ थी और ना ही सामरिक चुनौतियों के प्रति संवेदनशीलता. हालांकि नारी रुस्तम जैसे भारतीय सीमा सुरक्षा बल के अधिकारियों की चीन के विषय में सलाह नेहरू ने किनारे कर दी थी.
उन्हें लगा कि नेपाल के साथ हुई 1950 की शांति संधि और (तत्कालीन) सिक्किम वा भूटान के भारत पक्ष में होने से हिमालय क्षेत्र एकदम सुरक्षित है. यह सोचना खतरनाक साबित हो गया, और भारत ने युद्ध की विभीषिका झेल ली.
इसके साथ ही पूर्वोत्तर को हाशिए पर रखना, वहां हो रहे इसाई मिशनरियों के प्रचार को ना रोकना और चीनी फंडिंग से ब्रेन वाशिंग के प्रति कांग्रेस सरकार का सोना भारत के लिए समस्या का कारण बन गया. उसका नतीजा यह रहा कि यह क्षेत्र आंतरिक सुरक्षा की बड़ी चुनौतियां खड़ा करने लगा.
अब जब फिर से LAC पर भारत चीन आमने सामने हैं तो भारत की चेतावनी साफ है कि भारत 1962 वाला भारत नहीं है. यह नया भारत है. पर सिर्फ आधुनिक सैन्य शक्तियों वाला नहीं बल्कि सुदृढ़ निर्णय निर्माण की क्षमता वाला.
इब संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का विद्यार्थी होने के नाते बस इतना कहना चाहूंगा कि पूर्व में तिहत्तर दिनों तक चले डोकलाम विवाद का शांतिपूर्ण हल निकला था. तब भी मीडिया चैनलों और चीन प्रेमियों ने ‘युद्ध होगा’ यह कहकर डराने का प्रयास किया.
इस बार भी शांतिपूर्ण हल निकलेगा, मैं ऐसी आशा करता हूं. और राहुल जी इन प्रश्नों से साक्षात्कार करें तो शायद समस्या की जड़ तक जा पाएं.
धन्यवाद.
#बड़का_लेखक