वट सावित्री व्रत/पूजा भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तों में ज्येष्ठ माह में की जाती है. वट वृक्ष की छाया में होने वाला यह व्रत सती सावित्री के आख्यान से जुड़ा है जिसका वर्णन महाभारत के वनपर्व में युधिष्ठिर –मार्कंडेय सम्वाद में आता है. काल की गति में बहते हुए वट सावित्री व्रत का महत्व विवाहित स्त्रियों द्वारा पति की दीर्घायु की कामना के व्रत के रूप में रह गया. वट वृक्ष के नीचे सावित्री की कथा बहती रही उसका मर्म खोता रहा.
बदलते परिवेश में नारीवाद ने पितृसत्तात्मक परम्पराओं का विरोध प्रारंभ किया. वट सावित्री जैसे पर्वों को पुरुष प्रधानता का द्योतक माना गया और तर्कों के साथ उन पर प्रहार किया गया. स्त्री ही क्यों पुरुष के लिए प्रार्थना/पूजा/व्रत/तपस्या करे? पुरुष क्यों नहीं? पुरुष के लिए ऐसे उपवास क्यों नहीं? बचपन से ही सती सावित्री को आदर्श बना कर स्त्री को मानसिक दासता में जकड़ना क्यों? क्या स्त्री को ही पुरुष के जीवन की आवयश्कता है, पुरुष को स्त्री के दीर्घायु होने की कोई कामना नहीं? इन तर्कों के प्रभाव में वटसावित्री जैसे पर्वों के लिए उत्सवधर्मिता कम होती गयी. उत्साह का स्थान पारिवारिक दबाव के कारण परम्परा पालन ने ले लिया. कोई भी पर्व, उत्सव, व्रत, पूजा, अनुष्ठान करना और उस पर विश्वास करना या न करना नितांत निजी निर्णय है अतः इस पर कोई प्रश्नचिन्ह या विवाद नहीं होना चाहिए.
बात करते हैं सावित्री की जिसे पितृसत्तात्मक परम्पराओं के विरोध का सर्वाधिक परिणाम भुगतना पड़ा. हम में से अधिकांश लोग पौराणिक चरित्रों के विषय में प्रायः उतना और वैसा ही जानते हैं जितना अपने आस-पास के लोगों से सुनते हैं. एक प्रतिशत लोग भी इन चरित्रों को मूल ग्रन्थ में जाकर स्वयं नहीं पढ़ते. काल के प्रवाह में “सावित्री” स्त्री की तेजस्विता के स्थान पर स्त्री की पराधीनता का प्रतीक हो गयी जिसकी एकमात्र पहचान उसका पति की सेवा करना था. वो एक निरीह स्त्री थी. पति से परे उसकी पहचान ही नहीं है. स्वाभाविक है स्त्री का यह रूप आज की नारी को स्वीकार्य नहीं है और ऐसी स्त्री को कोई भी अपना आदर्श क्यों मानेगा? सती सावित्री संबोधन सम्मान के स्थान पर उपहास का द्योतक हो गया.
आइये सावित्री की कथा को नवल दृष्टि से देखते हैं. राजा अश्वपति द्वारा अनेक वर्षों तक तपस्या किये जाने के वरदान स्वरुप सावित्री का जन्म हुआ था यानि सावित्री कोई अनचाही संतान नहीं थी अपितु वरदान रूप और वांछित थी. विवाह योग्य होने पर राजा ने उसे अपने वर का चुनाव करने के लिए यात्रा पर भेजा यानि सावित्री में इतना सामर्थ्य और विचारशीलता थी कि वो अपने वर का चयन कर सके. सावित्री को लकड़ी काट रहे सत्यवान से प्रेम हो गया और उसने सत्यवान को अपना वर चुन लिया. इसका राजा ने बहुत विरोध किया कहाँ एक राजकुमारी और कहाँ एक वन में निर्वाह करने वाला. सावित्री ने अपना निर्णय नहीं बदला यानि स्थापित सामाजिक रूढ़ि और भेद भाव को चुनौती दी. नारद मुनि ने कहा, सत्यवान की आयु में अब एक वर्ष ही शेष है सत्यवान से विवाह करने पर सावित्री को बड़ा आत्मिक दुःख और विरह झेलना होगा फिर ही सावित्री अडिग रही उसने निर्णय नहीं बदला यानि अपने प्रेम की रक्षा के लिए वो कैसी भी परिस्थितियों का सामना करने और अपने निर्णय का परिणाम स्वीकार करने को प्रस्तुत थी. विवाह करके वो सत्यवान के साथ वन को जाती है. एक वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर लकड़ी काटते हुए सत्यवान के प्राण लेने हेतु यमराज आते हैं. उनके साथ सावित्री का लम्बा वार्तालाप होता है. उसकी बुद्धिमत्ता, तर्कशीलता और प्रेम से प्रभावित यमराज उसे वरदान मांगने को कहते हैं. वो पहले अपने श्वसुर और पिता के लिए उपयुक्त वर मांगती है फिर भी यमराज के पीछे चलती है और अन्ततः यमराज अनेक वरदानों के साथ सत्यवान के प्राण भी लौटा देते हैं सत्यवान पुनः जीवित हो जाते हैं यानि सावित्री में स्वयं यमराज से टकरा जाने का साहस भी था और विजयी होने का सामर्थ्य भी.
एक स्त्री जो अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है, लिए गए निर्णय पर अडिग रहना जानती है, निर्णय का कुछ भी परिणाम हो उसे स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत है, अपने प्रेम के लिए राजमहल को त्याग वन को जा सकती है, अपने प्रिय की प्राणरक्षा के लिए सीधे यमराज से टकराने का साहस और विजयी होने का सामर्थ्य रखती है क्या वो स्त्री निरीह या अबला हो सकती है? क्या वो स्त्री मात्र पितृ सत्तात्मक समाज का प्रतीक है? क्या वह स्त्री आज की स्त्री में मानसिक दासता का बीज बो सकती है? कोई वट सावित्री व्रत को स्वीकार करे या अस्वीकार ये निजी निर्णय है किन्तु सावित्री को स्त्री दासता और निरीहता का प्रतीक न कहें वो भारत के स्त्री समाज का तेजवान पुंज है.