लिंचिंग लिंचिंग में भी फरक होता है साहेब,
लिंचिंग लिंचिंग में भी फरक होता है साहेब,
एक इन्टॉलरेंट लिंचिंग है,
तो दूसरी केवल ग़लतफ़हमी.
और ये मैं नहीं कहता,
ये बतलाता है हमें हमारा सेक्युलर/लिबरल /बुद्धिजीवी समाज और निडर पत्रकार.
जान अखलाख की भी कीमती, जान तबरेज की भी अनमोल,
पर मरने वाले साधू, तो, इंडियन एक्सप्रेस के लिए ये चोर,
पहले में देश और समाज असहिंष्णु, हर तरफ शोर,
दूजे में बस सन्नाटा और चुप्पी चारो और.
और ये मैं नहीं कहता,
ये दीखता है हमें हमारा सेक्युलर/लिबरल /बुद्धिजीवी और निडर पत्रकार.
नफरत में अंधी भीड़ तबरेज को मारे तो ये इन्टॉलरेंस
वही नफरत भरी भीड़ साधु को मारे तो ये गलत फहमी,
एक ज़ाहिल भीड़ अखलाख की मारे तो समाज हिंसक,
वही ज़ाहिल भीड़ साधु को मारे तो ये अफवाह का नतीजा.
और ये मैं नहीं कहता,
ये बतलाता है हमें हमारा सेक्युलर/लिबरल /बुद्धिजीवी और निडर पत्रकार,
एक निरीह साधू का आखिरी उम्मीद में करुणा भरी नज़रो से,
पुलिस वाले का हाथ पकड़ना,
और उस वीरहीन /कायर सिपाही का,
हाथ छुड़ा के साधू को भीड़ को सौंप देना.
फिर सेक्युलर/लिबरल /बुद्धिजीवी और निडर पत्रकार का हमें बताना,
ये तो बस नतीजा है ग़लतफ़हमि का.
लिंचिंग लिंचिंग में भी फरक होता है साहेब,
लिंचिंग लिंचिंग में भी फरक होता है साहेब.
एक इन्टॉलरेंट लिंचिंग है, तो दूसरी केवल ग़लतफ़हमी.
और ये मैं नहीं कहता,
ये बतलाता है हमें हमारा सेक्युलर/लिबरल /बुद्धिजीवी और निडर पत्रकार.