Sunday, November 3, 2024
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वाकई सैक्यूलरिज्म या “स्टाकहोम सिंड्रोम”?

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Subhadra Papriwal
Subhadra Papriwal
Mr. Subhadra Papriwal is a senior political analyst , columnist , entrepreneur and President of Karuna, a non governmental NGO

उन लोगों ने यह पूछने के लिए विवश कर दिया है जो किन्हीं विशेष विचारधाराओं और संस्कृतियों के लिए तो अंधश्रद्धालु बने रहते हैं लेकिन जिस संस्कृति में वे स्वं जन्म लेते हैं उसके प्रति सिर्फ घृणा का ही भाव रखते हैं। उसपर भी अचरज इस बात का है कि ये लोग स्वं को संसार से पृथक, विचार वान, प्रगतिशील, विकासोन्मुखी, सहिष्णुतावादी और बुद्धीजीवी मानते हैं। और अंततः, स्वं को धर्म निरपेक्ष या महान सैक्यूलर मानते हैं। सबसे मजेदार तथ्य तो यह है कि यह एक खास वर्ग है जो उपरोक्त सभी उपमाएं खुद-ब-खुद अपने आप को देता है और आत्मविमुग्ध रहता है कि सारा देश भी उन्हें इस ही नजर से देख रहा है।

इस मनोविकार के कारणों को बहुत तलाशने पर भी नहीं मिले। लेकिन अचानक ही यह सब देखकर मुझे स्कूल/ कालेज के दिनों की कुछ घटनाएं याद आ गई। उन दिनों क्लास के सबसे बदमाश, झगड़ालू, लड़ाकू और दुष्ट किस्म के किसी एक या अनेक लड़कों  के प्रति दब्बू व डरपोक किस्म के अन्य छात्रों का व्यवहार स्मरण हो आया।

उन दुष्ट किस्म के लड़कों का प्रभाव वैसे तो सभी पर होता था लेकिन दो खास किस्म के छात्र थे जो कुछ विचित्र आचरण के कारण बरबस ही याद आ गये। एक छोटा समूह उन लड़कों का बन गया था जो सबसे अधिक डरपोक किस्म के थे और वे उन उद्दंडियों से पूरी तरह घुल मिल गए थे और अपनी पहचान खत्म करके उनके रंग में पूरी तरह रंग गये थे। दूसरा समूह उन छात्रों का बना जो आमतौर पर अपनी पहचान तो बनाए रखते थे लेकिन उन दुष्टों से नजदीकी दिखाने की कोशिश करते थे। उनकी चापलूसी और खुशामद करना एक आम बात होती थी और बहुत से साथी उनसे सहमति दिखाने की भरसक कोशिश करते थे, उनकी नज़रों में बहुत मित्रवत व्यवहार करते थे। उनकी कृपा का पात्र बनने की होड़ रहती थी। यह कुछ अधिक समझदार छात्रों का समूह होता था जो भयभीत तो होता था किन्तु भय को छिपाने की कला में माहिर होता था। लेकिन उनका वो अदृश्य भय ही प्रेरित करता था कि वे यह साबित करें कि वे मैरिट के आधार पर, यानि ठोस कारणों के आधार पर उन दुष्ट छात्रों  के सबसे नजदीक हैं, उनके विचारों और चाल चलन के सबसे बड़े समर्थक हैं।

यह भी याद आता है कि एक तीसरा समूह होता था जो पहले ही दिन से आत्माभिमानी होता था और इन दोनों समूहों से दूरी बनाए रखता था। कुलमिलाकर एक अदृश्य भय की ऐसी प्रतिक्रिया पहले पहल वहीं देखने को मिली थी। तीसरा समूह ऐसा था जिसे इन सभी गतिविधियों से कोई लेना देना नहीं होता था और वह सिर्फ अपने काम से काम रखने में, पढ़ाई-लिखाई में ही पूरी तरह केन्द्रित रहता था किन्तु यह समूह भी उन बाहुबलियों से अपनी नापसंदगी का कभी इज़हार नहीं करता था।बल्कि उनके प्रति पूर्ण सहमति दिखाने का प्रयास करता था। यानि “कौन लफड़ा मोल ले” जैसी मानसिकता होती थी।

अब इसमें सबसे नाटकीय घटनाक्रम यह होता था कि वह बाहुबली छात्र जिसका वर्गीकरण हम अजलाफ श्रेणी में कर सकते हैं, यदि किसी एक छात्र अथवा उस छात्र समूह का उपहास कर रहा होता था तो उस समूह के किसी भी छात्र को उसकी बातों का विरोध करने का साहस नहीं होता था। बल्कि, वो समूह बढ़-चढ़ कर अपनी ही तौहीन का आनंद लेते दिखाई देते थे इस भय से कि कहीं उस दुष्ट बाहुबली की कृपा कम ना हो जाए। इस समूह का वर्गीकरण हम अरजाल श्रेणी में कर सकते हैं।इनमें अशराफ कोई भी नहीं है। जितना अधिक दुष्ट किस्म का वह होता था उतना ही अधिक नजदीकी दिखाने वालों की होड़ होती थी। विद्यालय प्रशासन यदि उन उद्दंडियों के विरुद्ध कोई भी कदम उठाने या कार्रवाई की योजना बनाता था तो पहले वाले दोनों समूहों का यह धार्मिक कर्तव्य हो जाता था कि उन सभी तथ्यों को, सबूतों और आरोपों को नकार दें। यानि कि एक तरह का सलैक्टिव सैकूलरिज्म देखने को मिलता था जो सिर्फ उन बाहुबलियों की सुविधा अनुकूल होता था और स्पष्टत:, भय जनित ही होता था। जो जितना अधिक प्रताड़ित हुआ वह उतना ही अधिक नजदीकी दिखाने के लिए लालाइत दिखाई देता था। जिसके साथ सबसे ज्यादा दुष्टतापूर्ण व्यवहार हुआ वह उतना ही अधिक कंप्रोमाइज करता दिखाई दिया।

कुलमिलाकर, अपनी स्वं की ही तौहीन करके भी, अपने आत्मगौरव और आत्माभिमान की तिलांजलि देकर उन दुष्टों का कृपा पात्र बनने का खेल आप सभी ने भी देखा अवश्य होगा भले ही भागीदारी सभी ने नहीं निभाई हो। हमने यह सब विद्यार्थी जीवन में देखा था और हम इन सभी घटनाओं को भूल भी गए थे।
अचानक से यह सब पुनः स्मरण होने लगा। कुछ घटनाओं ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आखिर ये कौन लोग हैं जो कुछ दुष्ट, हिंसक, आतताई, आतंकी, बलात्कारी और हर प्रकार से निकृष्ट विचारधाराओं का समर्थन करते रहते हैं। कौन हैं वे लोग जिन्हें अपने आत्म गौरव की लेशमात्र भी परवाह नहीं है। और ये लोग अपने आपको सैक्यूलर, लिबरल कहते हैं न जाने इनका निर्माण कैसे हुआ है।

चलिए, इससे पहले कि हम सैकुलर गिरोह के सबसे बड़े प्रजनन केन्द्रों पर नजर दौड़ाएं, यह समझने की कोशिश करते हैं कि भला यह स्टाकहोम सिंड्रोम क्या है। हो सकता है अधिकांश लोगों को ज्ञात हो इसलिए संक्षिप्त में समझिए स्टाकहोम सिंड्रोम क्या है।

नोरमाल्मस्ट्रांग बैंक डकैती, स्टाकहोम स्वीडन सन् 1973. पुलिस और प्रशासन यह देखकर स्तब्ध रह गया था कि चार दिनों तक बंधक बने रहने के उपरांत और फिर अपहरण से छूटने के बाद भी अपहृत लोगों ने अपराधियों के लिए इस हद तक सहानुभूति विकसित कर ली थी कि वे अपने खिलाफ किए गए अपराध की सजा दिलाना तो दूर, अपराधियों के बचाव में उतर गये। उनकी कायरता से भय ने जन्म लिया। इस भय ने बंधकों को शिकारी से कृपा पाने को प्रेरित किया और शिकारी ने उनका जीवन समाप्त नहीं करके उन पर बहुत बड़ा उपकार कर दिया ऐसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन बंधकों पर पड़ा। मनोवैज्ञानिकों ने इस बीमारी का गहराई से अध्ययन करने के बाद इसका नामकरण किया। इस बीमारी से ग्रस्त लोग बहुत लंबे अरसे से हमारे ही बीच में रह रहे हैं। अब हमें आसानी से समझ में आ सकता है कि इस तथाकथित सेक्युलर जमात का जन्म कैसे हुआ होगा।
यूरोप के देशों में जहां जहां नागरिकों ने क्रूसेड अथवा  जिहादियों का सामना किया वहां के लोग अपनी मूल पहचान के गौरव को भुला देने के लिए मजबूर हुए और या तो अत्याचारियों के शरणागत होकर उन्हीं में विलीन हो गये या कालांतर में स्वं को सैक्यूलर लिबरल कहने लगे ताकि वे आक्रांताओं के पक्ष में बोलते रहें ताकि उनकी कृपा मिलती रहे जबकि वे या तो क्रूसेड से या इस्लामी जिहाद से प्रताड़ित होकर ही इस आवरण में छिप गए थे। वे किसी भी कारण वश धर्मांतरित होने से बच तो गये थे लेकिन अब भी उनमें यह संरक्षण पाने जितना भय छिपा था।

आप गौर करेंगे तो यह पाएंगे कि पूरे विश्व में सैक्यूलर, लिबरल लोग या तो ईसाइयत अथवा इस्लाम के अथवा दोनों के भारी समर्थन में होंगे और अन्य उन सभी आस्थाओं का जो उदार हैं, अनादर करना ही सैक्यूलर होने की प्रमुख शर्त मानते होंगे, आप गौर से देखिए।

कारण भी समझ में आएगा। यूरोप के बाद भारत में अलग-अलग इलाकों में इस्लामी जिहाद ने पैर पसारे। छोटा-सा उदाहरण देखिए कि अचेतन मन पर भय कितनी गहरी छाप छोड़ता है। अजमेर की दरगाह।ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती। वही कहानी है इस दरगाह की। बलात धर्म परिवर्तन, मंदिरों का विध्वंस, काफिरों का बेरहमी से कत्ल, अनगिनत जघन्यतम बलात्कार। जो उनके रंग में नहीं ढले लेकिन भयाक्रांत रहे, आज भी लंबी लंबी पंक्तियों में इंतजार करते दिखाई देते हैं, वहां चादर चढ़ाने के लिए।ये वो दूसरी श्रेणी के विद्यार्थी हैं जिनसे हम स्कूल-कांलेज में मिल चुके हैं।  जहां जहां नागरिकों पर इस जिहाद की प्रताड़ना अधिक हुईं वहां वहां के लोग अधिकाधिक सैकुलर होते चले गए। बाद में जब कुछ क्षेत्रों में ईसाइयत ने पैर पसारे तो वहां भी भय ने अपना असर दिखाना शुरू किया। बंगाल, केरल, दिल्ली आदि ऐसे क्षेत्र हैं जहां के कुछ लोग या तो उनके रंग में पूरी तरह रंग गये अर्थात अपनी पहचान बदल बैठे।  कुछ लोग जो अपने डर से जीत नहीं सके वे स्टाकहोम सिंड्रोम के शिकार होकर खुद को सैक्यूलर, लिबरल कहने लगे। 
टीपू सुल्तान ने दक्षिण में सर्वाधिक संहार किया था। उसको सम्मान देने के लिए पहले प्रकार के विद्यार्थियों में होड़ मची हो तो अचरज की कोई बात नहीं। लेकिन यहां तो दूसरे प्रकार के लोगों में होड़ मची हुई है। ये जो दूसरे प्रकार के लोग हैं, यदि वाकई समभाव वाले यानि सैकुलर होते तो वे टीपू सुल्तान नहीं मार्तंड वर्मा की जयंती मना रहे होते। लेकिन वर्मा ने तो इनके साथ कोई दुष्टता की ही नहीं तो ये स्टाकहोम सिंड्रोम के शिकार मार्तंड वर्मा से भला कैसे हो सकते थे ??

उत्तर प्रदेश के बहराइच में गाज़ी पीर की दरगाह है। यह दरगाह उन विद्यार्थियों द्वारा संचालित होती है जिनका वर्गीकरण हमने अरजाल किस्म में किया था। लेकिन इस दरगाह में सालभर रहने वाली भीड़ उन लोगों की होती है जो गाज़ी के एक हजार वर्ष पुराने अत्याचारों के भय से मुक्त नहीं हो सके। सबसे मजेदार बात तो यह है कि इस गाज़ी के जिहादी आतंक का अंत करने वाले राजा सोहेलदेव को याद करने वाला वहां पर कोई नहीं है।यही हाल दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया की दरगाह का है। मैसूर के आस पास के सैंकड़ों गांवों के लोग कभी भी वीरप्पन के खिलाफ आवाज नहीं उठा सके, बल्कि ना सिर्फ उसका सहयोग करते रहे, पुलिस और प्रशासन के विरुद्ध भी षड्यंत्रों में शामिल रहे। चंबल के बीहड़ों के अनेक किस्से हैं जब आसपास के गांव वालों ने, इतना प्रताड़ित होने के उपरांत भी कभी भी डकैतों के विरुद्ध आवाज नहीं की।

एक बिल्कुल ताजातरीन उदाहरण और देखिए

LIBERALISM IS A MENTAL DISORDER

source: dailymail.co.uk

After the brutal rape and murder of an EU official’s daughter by a Muslim migrant, parents of the girl begged for her killer NOT to be sentenced and also started a foundation in her name for Muslim migrants, & even asking for donations so that they can help more and more migrants. As the victim girl was too a supporter of the migrants. ¹

अब इनके मनो विकार को दया भावना कहेंगे, क्षमाशीलता कहेंगे, महान सैक्यूलर कहेंगे या डर से जनित सैकुलर मानसिकता? ये समूह एकाक्षी धर्मनिरपेक्ष यानी one-eyed secular or pseudo secular or selective secular लोगों का समूह है।मैं व्यक्तिगत रूप से यह मानता हूं कि भारत तो अतुलनीय धर्म सापेक्ष, पंथ निरपेक्ष देश रहा है जहां अनेकांत जैसी सोच पल्लवित हुई हो और  सम्राटों के द्वारा एक ही प्रांगण में शैव, बौद्ध और जैन दार्शनिक केंद्रों का निर्माण कराया गया हो चाहे राजगीर हो या अजंता एलोरा, वहां भी भय का प्रतिफल यानि सैकुलरवाद जैसी कोई सोच लाने की आवश्यकता नहीं थी किन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि इस कायरता को भी भारत में गर्व से परोसने वाले कुछ प्रोफेसर हमारे देश के विश्वविद्यालयों में छात्रों को पढ़ाने तक का दुस्साहस करते दिखाई देते हैं।

बहुत विस्तार में जाने से पहले आप स्वं ही फ़ौरी तौर पर देखिए कि उन इलाकों में ही आपको ये सैकुलर गिरोह के सदस्य अधिक मिलेंगे जहां जहां इस्लाम अथवा ईसाइयत द्वारा अधिकाधिक प्रताड़ना की गई। उन इलाकों के लोग या तो इनके भीतर ही विलीन हो गए या कुछ लोग डर से जीत नहीं सकने के कारण सैक्यूलर बन गये। भारतीय दर्शन को देखने के पश्चात यह सुनिश्चित हो जाता है कि सैक्यूलरिज्म कुछ नहीं अपितु भय का विशिष्ट उत्पाद यानि स्टाकहोम सिंड्रोम ही है।

References

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