मैं कांतारा को इस साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहना चाहता हूँ। इस फ़िल्म में सभी कलाकारों का अभिनय उत्तम है। इसका संगीत और BGM बहुत ही सुन्दर और अर्थपूर्ण है। फ़िल्म की कहानी और पटकथा में हर वह अवयव सम्मिलित है जो इसकी सुन्दरता को सिर्फ़ बढ़ाता ही है। Action choreography बेहतरीन है। Cinematography इतनी सुन्दर है कि आप इसे दूसरी बार ज़रूर देखना चाहेंगे। Editing भी सटीक है। ये हो गयी वो मोटी मोटी बातें जिस आधार पर एक फ़िल्म को अच्छी फ़िल्म कह सकते हैं। अभी मैंने निर्देशन और ऋषभ शेट्टी पर बात नहीं की उस पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। ये फ़िल्म सभी हिन्दी दर्शकों को देखनी चाहिए। ‘क्यों देखनी चाहिए’ इस पर आगे चर्चा करूँगा।
पहले फ़िल्म के विषय पर थोड़ी बात कर लेते हैं। फ़िल्म कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ा क्षेत्र के किसी/कुछ गाँव में प्रचलित लोक-कथा पर आधारित है। ऋषभ शेट्टी ने ही इसे लिखा और निर्देशित किया है। मूल विषय की आत्मा को समेटे हुए (जो हल्की तो बिल्कुल नहीं है बल्कि दैवीय है) कैसे एक ऐसी फ़िल्म लिखी जा सकती है जो आपको bore ना करे, यह कोई ऋषभ से सीखे। इनके संवादों में हास्य भी है और इनके पात्र इतने सजीव हैं कि आप उनसे जुड़ पाते हैं। फ़िल्म का निर्देशन भी ऋषभ शेट्टी ने किया है जो कि मेरी समझ में तब मुश्किल हो जाता है जब आप स्वयं मुख्य भूमिका में हों और आपको बहुत सारा action भी करना हो, एक विशेष प्रकार का नृत्य भी करना हो और दैवीय अभिनय भी करना हो।
मैं इसे दैवीय इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जो ऋषभ ने आख़िरी १५-२० मिनटों में किया है वो आपको स्तब्ध कर देगा। ऋषभ अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं। उनपर निश्चय ही दैव का आशीर्वाद है। कांतारा फ़िल्म एक प्रकार से मनुष्य और प्रकृति के बीच के संघर्ष को इस तरह से दिखाती है कि मुख्य नायक शिवा (ऋषभ) को पहले जंगली सुअर का शिकार करते हुए दिखाया जाता है, जंगल काटते हुए दिखाया जाता है लेकिन अंत में दैव (क्षेत्रपाल बनकर आते हैं) के द्वारा अपने लोगों की, उनकी भूमि की रक्षा करते हुए भी दिखाया जाता हैं। कांतारा में जैसा कि मैंने पहले ही लिखा कि दक्षिण कन्नड़ा के लोक कथा को तो दिखाया ही गया, वहाँ के प्रचलित खेल कम्बल को भी दिखाया गया है और ‘भूत कोला’ इस अद्भुत नृत्य और इसके पीछे के आध्यात्मिक विचार को बहुत ही सुन्दर और सकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है।
अब कुछ टिप्पणी विषय को लेकर मिल रही प्रतिक्रिया पर और ‘ऐसे विषय हिन्दी फ़िल्म में कभी क्यों नहीं जगह पाते’ इस पर। जिस स्तर का काम ऋषभ ने किया है उनका एक राष्ट्रीय पुरस्कार तो निश्चित है फिर वो उन्हें चाहे अभिनय के लिए मिले या निर्देशन के लिए। निर्देशन में यह भी आता है कि आप हर कलाकार से उसका श्रेष्ठ काम निकलवा पा रहे हो या नहीं और कांतारा में एक एक कलाकार ने अपने काम से फ़िल्म को एक सुन्दर पेंटिंग की तरह रंग दिया है। ऋषभ की प्रतिभा अब विश्व पहचान रही है और सराह रही है लेकिन मैंने शायद ही किसी हिन्दी कलाकार/सितारे का कोई tweet देखा हो जिसने ऋषभ की या फ़िल्म के लिए २ शब्द लिखे हों।
जितने रुपयों में ऋषभ ने पूरी फ़िल्म बना डाली उससे ज़्यादा तो ये हिन्दी सितारे अपनी फ़ीस माँगते हैं और प्रतिभा के नाम पर क्या है वो सबको धीरे धीरे पता चल ही जा रहा है। ख़ैर देखते हैं ये लोग इस फ़िल्म पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं। हिन्दी फ़िल्म में हम कभी ऐसा क्यों नहीं देख पाते कि लोक कथाओं को सुन्दरता से चित्रित किया गया हो या? क्या ऐसे स्वतंत्र विचार रखने वाले कलाकारों का हिन्दी फ़िल्म के निर्देशक सम्मान नहीं करते? क्या ऐसे विचारों को ही हिन्दी फ़िल्मों में हीन भावना से देखा जाता है? क्या हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री भारतीय लोक कथाओं को घृणित दृष्टि से देखती है? यदि नहीं तो अभी तक एक भी ऐसी फ़िल्म क्यों नहीं जो किसी प्रथा या परम्परा को सकारात्मक रूप में दिखाती हो जबकि हर दूसरी फ़िल्म में इसका मज़ाक़ बनते ज़रूर देखा जा सकता है।
कांतारा में एक गीत है जो ‘भूत कोला’ के समय background में बजता है जिसके शब्द हैं ‘भगवान विष्णु, जो श्रेष्ठतम भगवान हैं, अपने तीसरे अवतार वराह रूप में आते हैं और अपने लोगों की रक्षा करते हैं’। मैं देखना चाहूँगा कि हिन्दी फ़िल्म के बुद्धिजीवी कांतारा पर अपनी क्या प्रतिक्रिया देते हैं क्योंकि भारतीयता से सबसे अधिक घृणा तो वही वर्ग करता है। और शायद यही कारण है कि उनकी फ़िल्मों में या तो आपको भारत और भारतीयता के प्रति नकारात्मकता दिखती है या फिर एक अतिवादी सोच। इसीलिए शायद किसी भी देव के प्रति समर्पण का भाव इनके फ़िल्मों से अधिकतर ग़ायब ही होता है।
बहुत से फ़िल्मी बुद्धिजीवी स्व-घोषित नास्तिक भी हैं इसलिए भी समर्पण नदारद रहता है। ख़ैर फ़िलहाल एक अच्छी बात ये हो रही है आजकल कि हिन्दी दर्शक दक्षिण की कुछ फ़िल्में अपना रहे हैं और औसत से कम स्तर वाली हिन्दी फ़िल्मों को नकार रहे हैं। हाँ हिन्दी फ़िल्मों के जो नये youtuber critic हैं वे ज़रूर आजकल दक्षिण की अच्छी फ़िल्मों पर अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया दे रहे हैं और उन्हें अपना भी रहे हैं। आशा है भाषा की दीवार एक दिन और महीन हो जायेगी और हिन्दी दर्शक और अधिक संख्या में अच्छी दक्षिण भारतीय/ मराठी अथवा अन्य किसी भाषा की फ़िल्म को प्यार देंगे। फ़िलहाल मैं चाहूँगा कि हर हिन्दी दर्शक कांतारा को सपरिवार अवश्य देखे।