मुसलमान भी तो मरे थे! विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म द कश्मीर फ़ाइल्ज़ जब से सिनेमाघरों में आई है तब से चर्चा में बनी हुई है। बॉक्स-ऑफिस ख़ूब चल रही है। इधर परंपरागत मार्केटिंग नहीं होने के बावज़ूद हाउसफुल हैं और अब तक 200 करोड़ से अधिक कमाई कर चुकी है। जैसा कि अपेक्षित ही था एक वर्ग इसे सिरमौर बनाएगा और एक विरोध ही करेगा। यहां तक कि बिना देखे ही इस फ़िल्म के विरोध में उतर आए। पहले इस फ़िल्म को लेकर अत्यंत उदासीन रहे। जब चर्चा होने लगी तो ख़ारिज़ करने की जद्दोजहद में लग गए।
इधर फ़िल्म देख भी ली तो ऐसा कुछ मिला नहीं जिसको झूठा बताया जा सके। नृशंसता और क्रूरता के दृश्य जो स्क्रीन पर उभरे, संभवत: सच उससे भी भयानक और असह्य रहा होगा। तो भाई लोगों से फ़िल्म की प्रगति पचाए नहीं पच रही। कश्मीरी पंडितों के पलायन और उनकी हत्याओं का दोष कभी तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन पर डाल रहे हैं तो कभी भाजपा के समर्थन से बनी सरकार पर।
लेकिन इधर एक कुतर्क बहुधा दिया जाता है- सिर्फ़ हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी मारे गए थे। इस दलील में बेईमानी और धूर्तता की बू आती है। वो इसलिए क्योंकि इस तरह की दलील देने वाले की नीयत को परखिए। वो आख़िर तपाक से यही क्यों कह रहे हैैं? किस बात के उघड़ जाने से भयभीत हैं? जो लोग यह दलील तत्परता से दे रहे हैं, क्या वो तब भी यही कहते हैं जब किसी जुनैद को चांटा मारा जाता है तब कि बचाने वाले हिन्दू थे। नहीं कहते।
अगर मैं कहूं कि हिटलर ने यहुदियों का नरसंहार किया और आप तपाक से बोल पड़ें कि उन्हें बचाने वाले जर्मन भी बहुत थे। इस दलील में बेईमानी निहित है। आपकी अंतश्चेतना में ‘किसी’ के लिए कुछ कोमल है। क्योंकि आपकी पीड़ित की पीड़ा में उतनी दिलचस्पी नहीं जितनी दूसरे में है। सच बात तो यह है कि आपकी दिलचस्पी उस दूसरे में भी नहीं है। जबकि हमलावर के लिए दिल धड़क रहा है। दरअसल उसका संरक्षण करने के लिए ऐसी दलीलें दी जातीं हैं।
आप देखिए इन लोगों की टाइमलाइन। कहीं भी इनमें यासीन मलिक और बिट्टा कराटे के प्रति तनिक भी रोष दिखा है क्या? उन्होंने तो सार्वजनिक रूप से लोगों की अनेक हत्याएं करने की बात को स्वीकार किया है। यासीन मलिक से श्री मनमोहन सिंह और अरुंधति रॉय की हाथ मिलाते हुए मुस्कुराती हुईं तस्वीरें हैं। क्या ‘मुसलमान भी मरे थे’ वाली दलील देने वालों ने कभी इनकी आलोचना की? नहीं कर सकते। जब यासीन मलिक को ‘सेकुलर’ कहा गया और कॉन्क्लेव में ‘यूथ लीडर’ के रूप में प्रोजेक्ट किया गया तो ये लोग मौन रहे और आज भी हैं तो फिर ये लोग कैसी भी दलीलें दें, धूर्ततापूर्ण ही लगेंगी।
जहां भी नरसंहार हुए हैं। वहां मानवीय पहलू भी उजले हुए। लोगों ने पीड़ा साझा कीं। लेकिन इससे वो मनुष्यता के ख़िलाफ़ हुआ अपराध गौण नहीं हो जाता। कश्मीर में पंडितों को पहचान के आधार पर मारा, बर्बरतापूर्वक मारा। और उस नरसंहार के केंद्र में इस्लाम, आज़ादी, भारत-विरोध और अलगाव ही था। भले ही अच्छे मुसलमानों ने अपने हिंदू पड़ोसियों के लिए कितनी ही जानें दी हों। इधर कोई लंपट अगर किसी अब्दुल के थप्पड़ भी मार दे तो समूचा हिन्दू समुदाय नफ़रती और सांप्रदायिक हो जाता है और उधर हिन्दू महिलाओं का बलात्कार कर आरी से काट दे और सामुहिक रूप से गोलियों से भून दे, तो भी शांतिप्रियता कायम रहती है।
अगर आतंकियों की करुणा और उदारता देखनी है ताे ‘शिकारा’ देख लीजिए। नंगा सच देखना है तो दिल पर पत्थर रखकर द कश्मीर फ़ाइल्ज़ देख लो। लेकिन यूं रोइए मत।