Friday, April 26, 2024
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न्यायालय या कानून के आधार पर फैसले देने वाले सरकारी कार्यालय

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Nagendra Pratap Singh
Nagendra Pratap Singhhttp://kanoonforall.com
An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.

अक्सर ही जब दो व्यक्तिओ के मध्य किसी विषय वस्तु के सन्दर्भ में वाद विवाद होता है तो उनमे से एक व्यक्ति ये कहते हुए पाया जाता है कि ठीक है “आओ तुम्हें मैं कोर्ट (न्यायालय) में देख लेता हूँ” या फिर उनमे से एक यह कहता है कि “आओ मैं तुम्हें कोर्ट में घसीट कर ले जाऊंगा फिर तुम समझोगे” या “आओ कोर्ट में मिलते हैं” या फिर अन्य किसी तथ्यों का सहारा लेकर वे एक दूसरे को कोर्ट में देख लेने कि चेतावनी देते हुए मिल जाते हैं।

ऐसा क्यों है, क्या कभी आप ने सोचा है?

जी हाँ ये आम आदमी का न्यायालय के प्रति उसका विश्वास बोलता है या फिर उसकी न्यायालय के प्रति असीम श्रद्धा बोलती है। पर क्या हमारे कोर्ट या न्यायालय भी आम आदमी के प्रति ऐसा हि रवैया रखते हैं। ये सोचने वाली बात है।

हर आदमी ये सोचता है कि न्यायालय से उसे न्याय मिलेगा परन्तु क्या न्यायालय कि शरण में जाने पर उसे वाकई न्याय मिलता है या फिर न्याय कि आस में वर्षो न्याय के दरवाजे पर दस्तक देते देते उसकी उमर निकल जाती है पर उसका केस उसके मरने के बाद भी जिंदा रहता है और कोर्ट या अदालतो में वैसे हि अकारण तारीखें पड़ती रहती हैं। फिर उसी आम आदमियों के बच्चे ये कहना शुरू कर देते हैं कि व्यर्थ में इतने वर्ष हमारे बाप दादा अदालतो के चक्कर काटते रहे इससे अच्छा होता कि आपस में हि झगड़ा सुलझा लेते।

दोस्तों यहि सत्य है। अब हम आम आदमी ही मूर्खता करते हैं जो इन अदालतो या कोर्ट को न्यायालय समझ लेते हैं। वास्तव में ये न्यायालय हैं ही नहीं।

ये तो क़ानून, गवाह और सबूत के आधार पर फैसले देने वाले सरकारी कार्यालय हैं। इनसे आप न्याय कि उम्मीद कैसे कर सकते हैं, हाँ इनसे आप फैसले या निर्णय कि उम्मीद अवश्य कर सकते हैं।

और क़ानून भी एैसे एैसे कि बस आप अपना सर पीट लो, उदाहरण के लिए Indian Education Act और Constitution में दिए गए प्रावधानो के अनुसार देवबन्द के मदरसों में वो शिक्षा दी जा सकती है जिससे तालिबान जैसे आतंकवादि संगठन पैदा हो गए हैं पर आप गुरुकुल नहीं खोल सकते, गीता, रामायण, महाभारत इत्यादि नहीं पढ़ा सकते। उसी प्रकार एक क़ानून के अनुसार यदि गाय, बैल, भैंस इत्यादि जानवर १५ वर्ष के हो गए तो आप उन्हें काट सकते हैं, परन्तु यदि आप ने किसी जानवर को मारा पीटा या अपने खेत से भगाने के लिए लट्ठ चलायी तो आप पर कानूनी शिकंजा कस जाएगा।

आप एक खास वर्ग के आस्था के नाम पर लाखों जानवरों को बेख़ौफ काट सकते हैं, परन्तु आप पतंग नहीं उड़ा सकते क्योंकि उसके मंझे से चिड़ियों के पंख उलझ जाते हैं उनकी मौत हो जाती है।दोस्तों वास्तव में हम देखें तो न्यायिक प्रक्रिया को समाप्त करने हेतु हि मैकाले नामक एक अंग्रेज ईसाई को नियुक्त किया था अंग्रेजो ने। इसी मैकाले ने Indian Penal Code, Cr P C और CPC बनायीं ताकि भारत के कोर्ट वर्षो तक केवल गोल गोल घूमते रहे और झगडो में किसी भी प्रकार का न्याय ना कर सके। इन अधिनियमों को बना कर हिंदुस्तान में लागु करने के बाद मैकाले ने अपने साथियों को कहा था की मैंने जो न्यायिक प्रणाली हिन्दुस्तानियों को दी है, उससे उन्हें न्याय के अलावा सबकुछ मिलेगा।

आप स्वयम् बताए जिस कमरे में एक औरत जिसके आँखों पर काली पट्टी बँधी है तराजू लिए खड़ी है, वो क्या अपनी अंधी आँखों से न्याय कर पाएगी।

अब ज़रा सोचिए,
हमारे देश में एक से बढ़कर एक न्यायप्रिय शासक हुए हैं, महाराज हरिश्चंद्र, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, स्कन्दगुप्त, महाराज कनिष्क, महाराज भोज, महाराज महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, महाराजा रणजीत सिंह, गुरु गोविन्द सिंह इत्यादि तो क्या उस समय न्यायालय नहीं होता था यदि नहीं होता था तो फिर न्याय कैसे होता था।

एक सच्चे उदाहरण से समझिये।

एक बार चन्द्रगुप्त मौर्य के पास दो माताओ का विवाद आया। दोनों माताए एक बालक के लिए लड़ रही थी। दोनों का दावा था कि ये बालक उनका पुत्र है दूसरी औरत झूठ बोल रही है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने दोनों माताओ को बच्चे के साथ अपने दरबार में बुलाया। महाराज ने पहली माता से कहा कि तथ्य पेश कर सिद्ध करो कि ये तुम्हारा पुत्र है। उस माता ने बहुत सारे तथ्य पेश कर सिद्ध कर दिया कि बच्चे कि माँ वो हि है। फिर महाराज ने दूसरी माता से कहा कि अब आप सिद्ध करो कि ये तुम्हारा पुत्र है। दूसरी माता ने भी तथ्य पेश कर सिद्ध किया कि वो इस बच्चे कि माँ है।

अब सारा दरबार असमंजस में कि बच्चे को किसे दिया जाए। महाराज अचानक मुस्कराये और एक दरबारी को आज्ञा दी कि अपने तलवार से इस बच्चे के दो टुकड़े करके आधा आधा इन दोनों में बाँट दो। इतना सुनते हि एक माता धरती पर लोट कर विनती करने लगी, महाराज मेरे इस पुत्र को इस दूसरी औरत को आप भले ही दे दो पर इसके दो टुकड़े ना करो, मेरा पुत्र भले ही इसके पास रहेगा पर कम से कम जिन्दा तो रहेगा।

इतना सुनते हि महाराज मुस्कराये और बोले न्याय हो गया, ये पुत्र इसी माता का हो सकता है, क्योंकि कोई भी माँ अपने पुत्र को अपने सामने मरते हुए नहीं देख सकती। और इस प्रकार मात्र एक या दो घंटे में न्याय हो गया।

अब ज़रा कल्पना कीजिए, आज कि न्यायिक व्यवस्था में यदि उन दो माताओ का विवाद न्यायालय में दाखिल हो तो न्याय तो छोडिये फैसला आने में कितना वर्ष लगेगा आप आसानी से कल्पना कर सकते हैं, जैसे

१ सबसे पहले सम्बन्धित न्यायालय में याचिका फाईल करो।
२ प्रारम्भिक जॉंच में खरा उतरने के बाद वो पंजीकृत होगा और याचिका संख्या मिलेगा।
३ निर्धारित तारीख को जाकर कोर्ट को मैटर समझाओ।
४ सामने वाली पार्टी को नोटिस इशू होगा।
५ फिर वो नोटिस @ कोर्ट का summon दूसरी पार्टी तक पहुँचाओ।
६ फिर summon पहुंचा दिया इसकी affidavit दाखिल करो।
७ एक दो तारीख तक प्रतीक्षा करो।
८ दूसरी पार्टी यदि वकील के साथ आयी तो सुनवाई हुई यदि कोर्ट को लगेगा तो अन्तरिम आदेश देगी नहीं तो प्रतिजवाब देने का समय मिलेगा जो पहले तो ३० दिन का होगा फिर ६० दिन और दिया जा सकता है।
१० आर्गुमेंट दोनों पक्षों के वकीलों द्वारा होगा, फिर कोर्ट आर्डर पास करने के लिए तारीख देगी।
११ आर्डर पास होगा किसी एक के पक्ष में,
१२ उसे दूसरा पक्ष या तो मान लेगा या फिर चुनौती देगा, मान लिया तो ठीक नहीं तो ऊपर के कोर्ट में अपील या पुनर्विचार याचिका जाएगा।
१३ वहाँ वाद विवाद शुरू यदि Stay आर्डर मिल गया तो निचली अदालत कि कार्यवाही रुक गई और ऊपर के अदालत में शुरू
१४ अब आते जाओ जाते जाओ तारीख पाओ वकील संग आओ और एक अन्तहीन कभी ना रुकने वाला सिलसिला शुरू…….

आज हमारी अदालतों में लगभग ४ करोड़ से ५ करोड़ के आस पास केस विचाराधीन हैं और यह एक कड़वी सच्चाई है।

तो आप स्वयम् इस तथ्य से अवगत हो सकते हैं अनुभव ले सकते हैं कि आज कि हमारी इंसाफ देने वाली व्यवस्था एक छलावा है और उसके अलावा कुछ नहीं। आज क़ानून, गवाह और सबूतों के आधार पर फैसले होते हैं न्याय नहीं।

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