हमारे देश में हर दस साल पर जनगणना किये जाने का प्रावधान है, आखिरी जनगणना 2001 में हुई थी और इस लिहाज से यह वर्ष भी जनगणना किये जाने का वर्ष है। भारत जैसे विशाल भूभाग और जनसंख्या वाले देश के लिए जनगणना करना जितना जरूरी है उतना ही बड़ा कार्य भी यह है। करोड़ों रुपयों के खर्च अलावा, हजारों-लाखों लोग इस कार्य में जुटते हैं, घर-घर जाकर आंकड़े जुटाते हैं। इस जनगणना में किसी परिवार में लोगों की संख्या के अतिरिक्त, उनकी शिक्षा, आय, नौकरी, शौचालय, रसोई गैस की उपलब्धता आदि कई चीजों की जानकारी ली जाती है।
इन आकंड़ों से आने वाले समय में देश की नीतियों- योजनाओं पर फर्क पड़ता है। सरकार इसके अनुसार ही लोगों की स्थिति को ध्यान में रखकर योजनायें बनाती है। इन सबके लिहाज से जनगणना किसी भी देश के लिए बहुत आवश्यक काम मालूम पड़ता है। लेकिन हर आवश्यक काम को अनावश्यक बनाया जा सकता है अगर इरादे नेक न हों। जनगणना जैसे महत्वपूर्ण और राष्ट्रनिर्माण के कार्य को राष्ट्रविरोधी बनाने की कोशिशें भी आज राजनीतिक हवाओं में तैरती नजर आ रही हैं और इसके पीछे एक बेहद तुच्छ कारण है– ‘जाति’।
पिछले कुछ दिनों से जाति जनगणना की मांग जाति आधारित राजनीति करने वाले कई नेताओं की तरफ से उठती रही है। उनकी मांग है कि इस बार की इस जनगणना में लोगों की जाति की भी गिनती की जाये। वे चाहते हैं कि इस बात का आंकड़ा सामने आये कि भारत गणराज्य कितनी अलग-अलग जातियों में बंटा हुआ है। यह आंकड़ा जाहिर है कि वैश्विक रूप से उजागर होगा। ऐसे में यह कितना विडम्बनापूर्ण होगा कि दुनिया जो आज भारत के सुपरपॉवर बनते जाने, अंतरिक्ष विज्ञान में हमारे ज्ञान की प्रशस्ति की बातें करती है वह इसपर बात करे कि भारत के लोग कितनी हज़ार जातियों में विभाजित हैं! यह अपने आप में कितनी ज्यादा राष्ट्रविरोधी सोच है इसे सोचा जा सकता है।
हाँलाकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति भारतीय सामाजिक व्यवस्था का एक ऐसा तत्व है जिससे राजनीति, व्यवसाय, शिक्षा आदि बहुत सारी चीजें तय होती रही हैं। बावजूद इसके कि जाति एक काल्पनिक अस्मिता है इसका बहुत ज्यादा हस्तक्षेप हमारे राजनीतिक विमर्शों में रहा है। हमारा देश विभिन्न अस्मिताओं का देश है। ये अस्मिताएं जाति आधारित होने के अलावा सांप्रदायिक, क्षेत्रीय, भाषायी, लैंगिक भी रही हैं। अस्मिताओं का यह खेल बहुत जटिल है। कब कौन सी अस्मिता मजबूत हो जाएगी और कौन सी कमजोर, यह कह पाना मुश्किल है। लेकिन इन सबके बावजूद हमारा देश एक राष्ट्र के रूप में हमेशा संगठित रहा है।
जब-जब देश के सम्मान और सुरक्षा की बात आई है देश में भिन्न-भिन्न अस्मिताओं के लोग अपनी किसी विशिष्ट अस्मिता को त्यागकर भारतीय होने की पहचान को मजबूत करते नजर आये हैं। जब भारतीय खिलाड़ी विदेशी धरती पर मेडल जीतते हैं और तिरंगा लहराते हैं तो क्या कोई भारतीय उनकी जाति पूछकर रोमांचित होता है? जब हमारे वायुसैनिक दुश्मन देश के आतंकी ठिकानों को सर्जिकल स्ट्राइक करके नष्ट करते हैं तो क्या कोई भारतीय उन वीर सैनिकों की जाति पूछकर गर्व का अनुभव करता है?
जवाब है नहीं। हाँलाकि हम जानते हैं कि हर उस भारतीय की कोई न कोई जाति जरूर होती है। लेकिन इस स्थिति में वह भारतीय अपनी जाति की अस्मिता को बहुत पीछे छोड़कर अपनी भारतीयता की अस्मिता को धारण करता है। देश की एकता और अखंडता के सूत्र इसी भावना में छिपे हैं कि हम अपनी उन सभी अस्मिताओं को जो देश की एकता के खिलाफ जाती हैं, भूल जाएँ, ख़त्म कर दें या उनसे आगे निकल आयें। इसलिए मेरा मानना है कि जाति की पहचान को भूलकर राष्ट्रीयता की पहचान को मजबूत करने की कोशिशें हों।
विभिन्न अस्मिताओं वाले हमारे समाज में जाति की अस्मिता कैसे कमजोर हो और राष्ट्रीयता की अस्मिता कैसे मजबूत हो? यह एक ऐसा सवाल है जिसमें राष्ट्रनिर्माण के बुनियादी सवाल छिपे हैं। सर्वप्रथम सामने यही सवाल है कि हम राष्ट्र से क्या समझते हैं? इसका जवाब मैं किसी और से नहीं संविधान निर्माता और दलितों के मसीहा डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर से प्राप्त करता हूँ। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि राष्ट्र किसी भौगोलिक भूभाग में ऐसे लोगों का समूह है जिनके बीच करुणा, भाईचारा और सह अस्तित्व की भावना हो। इसलिए उनका साफ़ साफ़ कहना था कि सबसे पहले अगर कोई चीज राष्ट्रविरोधी है तो वह है – जाति। यही वह चीज है जो करुणा, भाईचारे और सह अस्तित्व की भावना को रोकती है। जाति की अस्मिता का कमजोर पड़ना और राष्ट्रीयता की भावना का उभार साथ साथ चलने वाली चीजें हैं। जैसे-जैसे राष्ट्रीयता की भावना मजबूत होगी जाति की भावना कमजोर पड़ेगी और जैसे-जैसे जाति की भावना कमजोर पड़ेगी राष्ट्रीयता की भावना मजबूत होगी। फिर भी आज हमारे देश के कुछ राजनेता इसी राष्ट्रविरोधी चीज को संवैधानिक दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं। इसलिए उन राजनेताओं की राष्ट्रविरोधी नीति को भी समझने की भी जरूरत है।
जाति की जनगणना देश में पहली बार 1881 में और आखिरी बार 1931 में हुई थी, इसे करने वाले अंग्रेज शासक थे जिन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति से इस देश पर शासन किया। जाति की जनगणना भी उनकी इसी नीति से प्रभावित थी। आज भी कुछ लोग उनकी इस नीति पर काम कर रहे हैं। चुनाव जीतने और इसके लिए किसी भी हद तक जाने के विचार का ही प्रतिफल है- जाति जनगणना की मांग। जाति जनगणना अगर होगी तो अलग अलग क्षेत्रों में हरेक छोटी-बड़ी जाति की संख्या सामने आएगी फिर इसपर खड़ी होगी चुनावी तुष्टिकरण की राजनीति। हर चुनावी दल चुनाव जीतने के लिए जाति आधारित हथकंडे अपनाएगा और इसके पीछे विकास की राजनीति बहुत पीछे छूट जाएगी। हरेक भारतवासी के अंदर राष्ट्रीयता की अस्मिता जो दिनोंदिन मजबूत हो रही है वह कमजोर होती जाएगी और हमारा यह देश भिन्न-भिन्न जातियों में बंटा एक भूभाग बनकर रह जायेगा। इसलिए यह जरूरी है कि जाति जनगणना के इस विचार का पुरजोर विरोध किया जाये। हमारे युवा जो जाति विरोधी राजनीति के प्रमुख प्रस्तावक हैं वे इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।
हमारा देश जिसने अभी अभी ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मनाया है, वह अपनी आज़ादी के 75 साल पूरे करने पर तकनीक, ऊर्जा, शिक्षा, विकास की बातें करे या जाति की यह फैसला हरेक देशवासी को करना है। आने वाले 25 सालों में जब हम आज़ादी की सौंवीं वर्षगाँठ मनाएंगे, हम अपने देश को सर्वाधिक विकसित देशों की कतार में देखना चाहते हैं या जाति जैसी मध्यकालीन मूल्यों की दलदल में फंसे देश के रूप में, यह फैसला हमें आज करना है। अगर हमारी चाह पहले विकल्प की है तो जाति जनगणना की मांग का विरोध हमारा प्राथमिक दायित्व होना चाहिए।