हाल हीं में दक्षिणी दिल्ली के सराय काले खाँ गाँव में एक विशेष समुदाय के द्वारा दलित बस्ती में घुसकर आधे घंटे तक तांडव मचाया गया।उपद्रवियों द्वारा हिंदुओं की संपतियों को तहस–नहस किया गया। रिपोर्ट के अनुसार यह मामला दलित युवक के मुस्लिम समुदाय की लड़की से शादी करने से नाराज युवती के परिजनों और उनके साथियों ने गाँव की दलित बस्ती में बेखौफ जमकर उत्पात मचाने की है। बस्ती में हिंदुओं के कुल तीन गलियों को निशाना बनाते हुए तलवार लाठी डंडे और पत्थरों के साथ जमकर हमला किया गया। अपने-अपने घरों में रह रहे लोग अचानक हुए हमले से सहम गए। फिर भी लोगों के द्वारा आनन–फानन तुरंत ही दिल्ली पुलिस को घटना की सूचना दी गयी, घटना स्थल पर पुलिस पहुंचकर स्थिति का जायजा लिया और आगे की कारवाई पूरी की गई।
मीडिया रिपोर्ट को मानें तो मामला कुछ इस प्रकार का था कि सराय काले खाँ में रहने वाले एक दलित युवक एक मुस्लिम लड़की से प्रेम करता था और करीब छह माह पहले चोरी–छिपे उस युवती से प्रेम विवाह किया था। इन सब के बाद मुस्लिम परिवार ने अपनी लड़की का निकाह किसी अन्य व्यक्ति से तय कर दी थी। जिसके बाद अपने परिवार के खिलाफ युवती ने कानून की शरण लेते हुए दो दिन पहले ही सनलाइट कालोनी थाने में अपना बयान दर्ज कराने के बाद दलित युवक के साथ रहने उसके घर चली गई। युवक का परिवार युवती को लेकर अपने किसी किसी रिश्तेदार के घर गाजियाबाद चला गया। इसी से नाराज होकर मुस्लिम समुदाय के लोगों ने रात में तमाम हिन्दू इलाके को अपना निशाना बनाया।
लेकिन इन सब के बीच सवाल यह उठता है कि बार–बार दलित–मुस्लिम एकता के दुहाई देने वाले नेता गण इस मामले से बचने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? क्या दलित–मुस्लिम गठजोड़ की बात करना सिर्फ चुनावी स्टंट है? देश में स्वघोषित दलित नेता का दलित प्रेम सिर्फ दिखावा है। वहाँ के डरे-सहमे नागरिकों का यह कहना है कि इन दलित नेताओं से भरोसा ही उठ गया है, जो खुद को दलित नेता बताते हैं। लोग यह भी सवाल पूछ रहे हैं कि भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दलित–मुस्लिम के गठजोड़ के वकालत करने वाले ओवैसी और खुद को दलित नेता कहने वाले कांग्रेसी नेता उदित राज कहाँ हैं?
हाँ यह बात तय है कि यही घटना किसी दलित के साथ किसी स्वर्णजाति के लोगों के द्वारा होती, तो परिस्थिति अलग होती। तथाकथित सेकुलर, वामपंथी और स्वघोषित दलित नेता, दलित चिंतक हाय तौबा मचा रहे होते। टीवी डेबिट में भी लगातार बहस होते रहती, लेकिन इस घटना चर्चा कहीं नहीं हो रही है। सब के सब चुप्पी साधे हुए हैं। नेताओं द्वारा दलित के हितैषी बनने की कोशिश करना सिर्फ वोट बैंक के तरफ इशारा करता है। और कुछ सालों से दलितों को हिंदुओं से अलग करने की राजनीति चल रही है। दलित के मन में यह जहर भरा जा रहा है कि तुम्हारे साथ बुरा हो रहा है। नेताओं का भाषण भी बिना दलित के नाम लिए बिना पूरा नहीं होता है। लेकिन आज तथा कथित दलित नेता हरिजनों पर हुए अत्याचार पर चुप क्यों है?
क्या स्वघोषित दलित नेताओं का चुप रहने का मुख्य कारण यह तो नहीं है कि यह बर्बरता पूर्ण कृत्य एक विशेष समुदाय के द्वारा की गई। क्योंकि यह समुदाय अपने आप को सबसे ज्यादा शांतिप्रिय समझती है। सच तो यह है कि इस शांति प्रिय समुदाय को भी नेताओं के द्वारा सिर्फ वोट बैंक समझा गया है। जिन राजनीतिक पार्टियों को यह समुदाय सबसे ज्यादा अपना हमदर्द समझती है, वही दल इन्हे चुनाव जिताने के मशीन से ज्यादा कुछ नहीं मानते हैं।
अब समय आ गया कि दलित को हिंदुओं से विभाजित करने की षड्यंत्र रचने वाले स्वघोषित नेता और राजनीतिक पार्टियों को पहचान किया जाय और समाज में एकता स्थापित किया जाय। देश में सबका साथ,सबका विकास, सबका विश्वास की राजनीति होनी चाहिए। अगर किसी के साथ अत्याचार होता है, तो सभी को एक साथ आवाज उठानी चाहिए। अपने जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर बात करने से ही लोगों में विश्वास बढ़ेगा, साथ ही स्वघोषित दलित नेताओं, चिंतकों से हमारी अनुरोध है कि सराय काले खाँ में अनुसूचित जाति के हमले की घटना को सामाजिक न्याय के दृष्टि से देखें ऑर महसूस करते हुए वर्गिकरण की राजनीति से परहेज करें।
ज्योति रंजन पाठक– औथर चंचला (उपन्यास)