आजकल रिश्ते बहुत नाज़ुक हो गए हैं या पहले के लोग ज़्यादा समझदार होते थे। आज एक पुत्र अपने पिता से ऐसे ग़ुरूर में बात करता है कि पिता भी झेंप जाता है। यारी दोस्ती भी आजकल इतनी क्षणिक है कि बचपन के दोस्तों को पहचाना तक नहीं जाता। रिश्तों में, समाज में दूरियाँ बढ़ रही हैं। शायद बढ़ती दुनिया का side-effect है और लोग कितना बँटे हुए हैं, नहीं? मतलब अपने पसंदीदा नेता या अभिनेता के लिए दोस्तों से लड़ लेते हैं। अगर आप उनके चहेते अभिनेता/सिलेब्रिटी को कुछ भी कटु कह दें तो ग्रुप छोड़ देते हैं। फिर सवाल आता है कि आपको वह सिलेब्रिटी पसन्द क्यों है? क्योंकि वह हमारे प्रदेश से है, क्योंकि वह फ़लानी भाषा बोलता है जो मेरी मातृभाषा है। आप एक ऐसे देश में हैं जहाँ विविधता के नाम पर हज़ार भाषाएँ, मत, पंथ, सम्प्रदाय और सबके अपने संगठन (छोटे, बड़े), ऐसे में लोगों का अपनी जात के प्रति, क़ौम के प्रति या अपनी जात/क़ौम के किसी व्यक्ति के प्रति संवेदनशील होना थोड़ा स्वाभाविक हो जाता है।
मैंने लिख दिया स्वाभाविक हो जाता है और आपने मान भी लिया। क्या यहाँ आपको कुछ ग़लत नहीं दिख रहा? बढ़ती दुनिया में ये अपनी क़ौम/जात/प्रदेश के सिलेब्रिटी के पीछे पागल होना ये कहाँ से तार्किक/प्रोग्रेसिव हुआ? तुम तो पुराने ज़माने के लोगों को दक़ियानूसी मानते हो और ये खुद क्या कर रहे हो? अच्छा उस स्टार के कपड़े/जूते नए हैं तो ये परिभाषा है कूल/नये/प्रोग्रेसिव की? इसी तरह एक दूसरे की राजनीतिक विचारधारा के प्रति भी परस्पर सम्मान अब दुर्लभ सा प्रतीत होता है। सोशल मीडिया पर अब ये तथाकथित स्टार्स भी एक दूसरे की विचारधारा के प्रति असहिष्णु हो हुए हैं, इन्होंने अपने अपने गुट बना लिए हैं । यह भी मुझे एकता का उदाहरण तो क़तई नहीं लगता। फिर उनके समर्थक (अनुयायी) आपस में लड़ते रहते हैं। अपने स्टार को सही साबित करने के चक्कर में वे मूल विषय से भटक जाते हैं। ये लोग कोशिश भी नहीं करते कि विषय के बारे में जानकर लोगों की क्या राय है एक बार वही जान लें (वैसे भी युवाओं को सारा ज्ञान इन्स्टग्रैम यूनिवर्सिटी पर मिल ही जाता है)।
ये लोग सीधे दूसरी कम्यूनिटी को निशाना बनाते हैं। मतलब तुम्हारे बीच का कोई इंसान, तुम्हारा कोई दोस्त अगर उस कम्यूनिटी का हो तो तुम ये भूल जाओगे कि वो तुम्हारा सुख दुःख में साथ रहने वाला दोस्त है बल्कि तुम उसको इस कारण से गाली देने लगोगे क्योंकि उसके बिरादरी के किसी ने कुछ अपराध कर दिया है। और तो और ये कहाँ की समझदारी है कि ये फ़लाना स्टार ने हज़ार करोड़ कमा लिया तो उसी में ख़ुश होने लगे। तुम्हें क्या मिल रहा है इस हज़ार करोड़ से ? तुम अपने किसी सगे सम्बन्धी या दोस्त की तरक़्क़ी में ख़ुश हो तो समझ भी आता है। ये कैसी विचारधारा है ?? मुझे ये बिलकुल नहीं समझ आता कि किसी की निजी सफलता (अगर मशहूर होने को और कुछ करोड़ रुपये कमा लेने को सफलता कहें तो) तुम्हारा शो-ऑफ़ कैसे बन सकता है? हाँ तुम उसके संघर्ष से प्रेरणा लेकर ज़रूर कुछ आगे कर लो या उसके जैसे या उससे भी बेहतर बन जाओ लेकिन ये तो मेरी समझ के पूरी तरह बाहर है कि उसकी लैविश लाइफ़्स्टायल पे तुम गर्व महसूस करो, फिर उसके व्यभिचार/भ्रष्टाचार को भी नज़रंदाज़ कर दो या उसपे भी गर्व महसूस करोगे? लेकिन अपने दोस्त को या अपने समाज में अगर क़ोई ऐसा करे तो उससे तुरंत रिश्ता तोड़ लोगे, फिर उस स्टार पे इतनी मेहरबानी क्यों?
हमारे देश की ख़ूबसूरती है इसकी विविधता। कहते हैं हमारे यहाँ विविधता में एकता है। मुझे पहले ऐसा ही लगता था लेकिन अब मुझे सच में लगता है कि लोग बँटे हुए हैं। उनका समर्थन अपनी भाषा को ही है, अपने प्रदेश के स्टार को ही है। दिखाने वाली एकता ज़रूर जान गए हैं ये लोग कि दूसरे पंथ के त्योहारों पे किसी दूसरे पंथ के मित्र को मुबारकबाद देके उसकी फ़ोटो इंस्टा पे लगा के कूल बन जाएँगे लेकिन अंदर से ये लोग अभी भी सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी जाति और प्रदेश पे ही अटके हुए हैं। इतिहास में यदि सौ साल पीछे चले जायें तो आपको लोगों की मानसिकता में बहुत अधिक अंतर नहीं पता चलेगा।
क्या कारण है कि ये सारी क़ौमी एकता सिर्फ़ अपने क़ौम के लिए ही लागू होती है? और ये समाज तो पहले की अपेक्षा अधिक शिक्षित है, पश्चिम देशों से भी अच्छा ख़ासा प्रभावित है फिर भी ढाक के तीन पात। ऐसा मुझे गत कुछ अनुभवों से और ज़्यादा लग रहा है कि देश की विविधता अब विभाजन का रूप ले रही है। मैं यह नहीं कह रहा कि देश टूटने की कगार पर है, नहीं! सरदार पटेल जैसी इच्छाशक्ति ने ही इस देश को जोड़ा था और अभी भी उन्हीं कारणों से देश बचा हुआ है/रहेगा भी। लेकिन लोगों को अलग अलग गुटों में ख़ुश करने का ही ये नतीजा है कि खुलेआम देश-विरोधी विचारधारा के प्रति उनका प्यार बढ़ता रहा और वो बार बार आप पर दबाव बनाते रहे कि या तो हमारी माँगें पूरी करो नहीं तो देश जला देंगे। यह किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। यह कैसी गांधीवादी विचारधारा है जो हर बार अंततः हिंसा पर ही ख़त्म होती है?
आज देश को बोस के विचारों को और गम्भीरता से पढ़ने और समझने की ज़रूरत है, भगत सिंह के सारे लेखों को पढ़ने समझने की ज़रूरत है, ज़रूरत है कि सावरकर और अम्बेडकर के विचारों को भी खुले दिमाग़ से समझा जाए और विभाजनकारी सोच को पूरी तरह ख़त्म किया जाए।