Saturday, November 2, 2024
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कानूनी जागरूकता और कानूनी सहायता आज़ादी के 73 साल बाद भी समाज के हर वर्ग तक पहुंच पाने में रहा नाकाम

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Abhinav Narayan Jha
Abhinav Narayan Jha
Abhinav Narayan is a law graduate from Amity University, Noida and currently a LLM Candidate. He is a vastly experienced candidate in the field of MUNs and youth parliaments. The core branches of Abhinav's expertise lies in Hindi writing, he writes Hindi poems and is a renowned orator. He is currently the President of the Hindi Literary Club, Amity University.

आज के दौर में जब हमारा देश वैश्विक पटल पर नई ऊंचाइयों को छू रहा है तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसी बहुत सी मूलभूत सुविधाएं है जिससे लोग कहीं न कहीं अभी भी वंचित है। अगर सही मायने में कहा जाए तो वंचित ही नहीं अपितु शोषित भी है। जी हां! सही सुना आपने। कानून के क्षेत्र में अगर बात की जाए तो बहुत ऐसी समस्याएं है जिनसे लोगों का दूर दूर तक नाता और रिश्ता नहीं है। बहुत सारे दावे किए जाते है, बहुत सारी सुविधाएं दी जाती है, बहुत सारी योजनाएं प्रदान की जाती है लेकिन जब आप धरातल पर इसे देखेंगे तो शायद ही इसका क्रियान्वयन संभव हो पाता है।

बेशक सुनने में सभी को बहुत अच्छा लगता है कि हमारे संविधान में कानूनी जागरूकता और कानूनी सहायता की भी बात की गई है। इससे संबंधित नियम भी बनाए गए है। राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर इससे संबंधित विधिक सेवा प्राधिकरण भी बनाएं गए है लेकिन कहीं न कहीं इन सबसे उलट अभी भी लोगों तक यह सुविधाएं नहीं पहुंच पा रही है। ख़ासकर वैसे वर्ग के लोग जो आर्थिक रूप से कमजोर है और जिन्हें अभी भी समाज में हीन भावना से देखा जाता है उन लोगों तक यह महज़ एक दीवा स्वप्न सा प्रतीत होता है।

हमारे संविधान की उद्देशिका (Preamble) को अगर आप उठा कर के देखेंगे तो आपको मिलेगा कि समाज के हर वर्ग के लोग चाहें वो सामाजिक रूप से हो या फिर आर्थिक रूप से अथवा राजनैतिक रूप से, सभी को एक समान न्याय देने की बात की गई है। हमारे न्याय व्यवस्था और न्यायिक तंत्र में नागरिकों का विश्वास इतना है कि कोई भी फ़ैसला हो वह उनके सर आंखों पर होता है। न्याय व्यवस्था प्रणाली में यह विश्वास बना रहे और सभी को समान न्याय पाने की समुचित व्यवस्था हो तथा उन्हें इसके लिए अवसर मिलें, इसके लिए हमारे संविधान में उचित व्यवस्था की गई है। संविधान को पलट कर देखने पर यह मिलेगा की संविधान के अनुच्छेद 39A में सभी के लिए न्याय सुनिश्चित किया गया है और मुख्य रूप से गरीबों तथा समाज के निचले तबके के लोगों के लिए निःशुल्क न्याय की व्यवस्था और कानूनी सहायता की बात की गई है। इतना ही नहीं संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 22(1) के तहत गिरफ़्तार किए गए व्यक्ति को भी अपने पसंद का वकील रखने और उनसे परामर्श करने का अधिकार प्राप्त है। अगर उन्हें किसी भी प्रकार की कानूनी सहायता भी चाहिए तो वह भी मुहैया करवाया जाएगा। यह राज्य का उत्तरदायित्व है कि उन्हें समान अवसर सुनिश्चित हो सकें।

यहीं नहीं इस समानता के आधार पर कमज़ोर वर्गों के लोगों के लिए सरकार ने वर्ष 1987 में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम पारित किया। इसी के तहत राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण यानी नालसा का गठन किया गया। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य देश में हो रहे कानूनी सहायता कार्यक्रम को लागू करवाना और उसका सुचारू रूप से मूल्यांकन और देखरेख करना प्रमुख है। इसके साथ ही राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण और जिला स्तर पर जिला विधिक सेवा प्राधिकरण का भी गठन किया गया। इसके साथ साथ उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में भी विधिक सेवा कमिटी का गठन किया गया। सभी संस्थाओं का मुख्य रूप से एक ही उद्देश्य है कि लोगों के बीच कानूनी सहायता कार्यक्रम और योजनाएं को लागू करवाया जाएं तथा मुफ़्त कानूनी सेवाएं वंचित लोगों तक पहुंचाया जाएं। इसके साथ साथ वैसे तमाम पहलुओं पर काम करना जिससे कमज़ोर वर्ग के लोगों तक यह सुविधा आसानी से पहुंच सकें।

गौर करने वाली बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति गरीब है, अशिक्षित है, अति पिछड़ा है, वंचित है, शोषित है, उन्हें अपने अधिकारों के बारे में नहीं पता है, उन्हें कानूनी पेंच नहीं पता है, उन्हें यह नहीं पता है कि उनके क्या अधिकार है? ऐसी परिस्थिति में यह हमारा कर्तव्य भी है और अधिकार भी है कि उन्हें न सिर्फ़ उनके अधिकारों के बारे में बताया जाए बल्कि उन्हें वह सारी सुविधा भी मुहैया कराया जाए जिससे वह आसानी से कानूनी सहायता के हकदार हो सकें। बहुत सारी महत्वपूर्ण बिंदु है जिसपर अगर ध्यान से देखा जाए तो आपको पता चलेगा कि वह कहीं न कहीं वह हमारे और आपके नज़रों से ओझल है।

ऐसा ही वाकया सामने आया था साल 1980 में जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने “खत्री बनाम स्टेट ऑफ बिहार” मामले में यह फ़ैसला सुनाया कि किसी भी आर्थिक रूप से कमजोर और असहाय अभियुक्त को अगर न्यायालय में पेश किया जाए तो यह न्यायाधीश का संवैधानिक कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करें कि उन्हें निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान हो रही है अथवा नहीं। अगर उन्हें यह सुविधा नहीं प्रदान हो रही है तो राज्य सरकार उन्हें तुरंत परामर्श के लिए वकील मुहैया करवाएं जिसके खर्च का वहन राज्य सरकार अपने सरकारी खजाने से करेगी।

आप इतिहास के पन्नों को पलट कर देखेंगे तो आप पाएंगे की सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय ने भी कानूनी सहायता और कानूनी जागरूकता की बात की है। ऐसा ही वाकया हुआ था साल 1983 में जब शीला बारसे बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा था कि यह पुलिस का संवैधानिक कर्तव्य है कि गिरफ्तारी के बाद व्यक्ति को नजदीकी विधिक सहायता केंद्र की सूचना दी जाएं ताकि समय पर उन्हें कानूनी सहायता मुहैया करवाया जा सकें। समय समय पर न्यायालय की टिप्पणी के बाद भी अभी तक हालात में कुछ सुधार नहीं देखने को मिला है।

यहां पर सुधार का तात्पर्य सिर्फ़ कुछ वर्गों तक सीमित नहीं है। बेशक कानून और न्याय व्यवस्था पहले से काफी सुदृढ़ हुई है और पहले के मुक़ाबले यह और भी मजबूत हुआ है लेकिन अगर गरीब लोगों तक न्याय पहुंचने की बात करें या फिर सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों की बात करें तो अभी भी उनके लिए न्याय और कानून का मतलब भारी भरकम ही नज़र आता है। प्रथम दृष्टया यह मालूम पड़ता है कि कहीं न कहीं कानून और न्याय संबंधित जागरूकता की अभी भी कमी है और अभी भी लोग इन सारी व्यवस्था से वंचित है। अगर कोई गरीब व्यक्ति या यूं कहें तो जिसको कानूनी समझ न के बराबर होता है उन्हें काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वह अपने अधिकारों की बात, अपनी जरूरत की चीज़ों के लिए न तो लड़ सकते है और न ही इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकते है। आवाज़ उठाने की कोई कोशिश भी करता है तो उसे दबा दिया जाता है। हमारे समाज में अभी भी समानता और अधिकारों की बात करने वाले लोगों को यह समझना होगा कि जबतक हम उन्हें समान रूप से देखेंगे नहीं तबतक दुनिया की कोई भी शक्ति उस बदल नहीं सकती है फिर चाहें संविधान ही क्यों न हो?

एक निर्दोष व्यक्ति पर अगर आरोप सिद्ध हो जाते है और उन्हें जेल भेज दिया जाता है तो आप यह देखेंगे कि उन्हें छूटने में वर्षों लग जाते है। कभी कभी तो जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर वह बरी होते है। यह हमारे समाज की विडम्बना नहीं है तो और क्या है? यहां पर सारी कानूनी सहायता और कानूनी जागरूकता धरा का धरा रह जाता है। न्यायालय तंत्र, कानून व्यवस्था, लॉ एंड ऑर्डर चरमरा सा जाता है। आखिर ऐसा क्यों और कब तक? आज के दौर में इस चीज़ को समझने की सबसे ज्यादा आवश्यकता है। हमारी कानून व्यवस्था और न्यायिक तंत्र तब असल मायने में सफल मानी जाएगी जब इन वर्गों के लोगों तक भी यह आसानी से उपलब्ध हो जाएं और उन्हें इसके लिए जद्दोजहद नहीं करना पड़े।

जय हिन्द! जय भारत!

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