भारतवर्ष की अलौकिक दैदीप्यमान विभूतियों की श्रृंखला में श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर अद्वितीय थे। उनका राष्ट्रहित, राष्ट्रोत्थान, हिन्दुत्व रक्षा के लिए किये गये सतत कार्यों तथा उनकी राष्ट्रीय विचारधारा जो असंख्य जनमानस के मस्तिष्क से कभी विस्मृत नहीं होंगे। वैसे तो २०वीं सदी में भारत में अनेक गरिमायुक्त महापुरुष हुए हैं परन्तु श्रीगुरुजी उन सब से भिन्न थे, क्योंकि उन जैसा हिन्दू जीवन की आध्यात्मिकता, हिन्दू समाज की एकता और हिन्दुस्थान की अखण्डता के विचार का पोषक और उपासक कोई अन्य न था। श्रीगुरुजी की हिन्दू राष्ट्र निष्ठा असंदिग्ध थी। श्रीगुरुजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक के रूप में सन् 1940 से 1973तक, इन 33 वर्षों में श्रीगुरुजी नें संघ को अखिल भारतीय स्वरुप प्रदान किया। इस कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारप्रणाली को सूत्रबध्द किया। श्रीगुरुजी, अपनी विचार शक्ति व कार्यशक्ति से विभिन्न क्षेत्रों एवम् संगठनों के कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्रोत बनें।
श्रीगुरूजी का सामाजिक दर्शन:
श्रीगुरूजी के विचारों को “चुनिंदा” और संदर्भ से हट कर उद्धरण करना भारतीय अकादमिक जगत का एक वर्ग तथा अलोकप्रिय हाशिये को प्राप्त कम्यूनिस्ट विचारकों ने षड्यंत्र पूर्वक किया। इन कथित विद्वानों ने समय समय पर कारवां मैगज़ीन जैसे अनेकों अपने लॉबी -गैंग की पत्र पत्रिकाओं में तथ्य विहीन, दूषित मानसिकता से श्रीगुरूजी के प्रति अनर्गल प्रलाप कियें। एक ग्रंथ “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” को उद्धृत कर समाज को भ्रमित करने का पुरजोर कोशिस किया है। यह ग्रन्थ 1939 में प्रकाशित किया गया था। एक परेशान और छद्म घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति ने निश्चित रूप से पुस्तक की सामग्री को प्रभावित करते हुये, पुस्तक के रचनाकार के रूप में श्रीगुरुजी को प्रचारित किया। जबकि “तथ्य यह है कि पुस्तक न तो गुरुजी और न ही आरएसएस के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। जिसका खंडन स्वयं श्रीगुरुजी ने किया था कि पुस्तक में उनका विचार नहीं है और न ही इसका संघ के सिद्धांतो से कोई लेना देना है। वैसे भी इस पुस्तक के प्रकाशन के एक वर्ष बाद, श्री गुरूजी संघ के सरसंघचालक बने थे। फिर यह पुस्तक संघ के आधिकारिक विचार कैसे हो सकता है। गौरतलब है की इस पुस्तक में संदर्भित यह बात “हिंदुस्तान में विदेशी जाति को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना होगा। हिंदू धर्म का सम्मान करना और आदरपूर्ण स्थान देना सीखना होगा, हिंदू जाति और संस्कृति की महिमा के अलावा और किसी विचार को नहीं मानना होगा। और अपने अलग अस्तित्व को भुलाकर हिंदू जाति में विलय हो जाना होगा। यह विचार संघ का नहीं है। संघ तो सिर्फ राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर हिन्दू संस्कृति के संरक्षण और उसके उत्थान के लिए काम करता। किसी को दबाना, सतना, या जबरन अपनी सोच को थोपना न तो हिन्दू धर्म में कभी किसी ने किया, और न ही कभी संघ का ऐसा इतिहास रहा। इस देश में आजादी के बाद सर्वाधिक समय सत्ता में संघ के विपरीत विचार के लोग रहे, यदि संघ कोई अनुचित कार्य कर रहा होता तो उसी कालखंडमें संघ इतना सर्व स्वीकार्य एवं व्यापक कैसे हो गया?
दलित समाज के सन्दर्भ में फैलाया गया भ्रम: माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी के चित्र लगा एक पोस्टर सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है जिसमें उनके हवाले से संघ दलित पिछड़ो को बराबरी के अधिकार का विरोध है ऐसा बताया जा रहा है। जबकि सचाई यह है की श्रीगुरुजी, विश्व हिंदू परिषद् के पहले सम्मेलन प्रयागराज 1966 में सभी पंथो के संतो को एक मंच पर लाकर “हिन्दव: सहोदरा सर्वे, ना हिन्दु पतितो भवेत” का प्रस्ताव पारित करवाया था। जिसका अर्थ था सभी हिन्दू एक ही माता के संतान है अपना सहोदर हैं कोई अछूत नहीं है। श्री लिमिये के एक प्रश्न की अपृश्यता क्या है? के जवाब में श्री गुरु जी कहते हैं अस्पृश्यता केवल अस्पृश्यों का ही प्रश्न नहीं है। कौन कहां जन्म लेता है यह किसी के बस में तो है नहीं, मैं किस कुल में जन्म लूंगा यह कोई नहीं बता सकता। अतः अस्पृशयता कुछ लोगों के संकुचित मनोभावना के नामकरण है। अतः अस्पृश्यता समाप्त करना इसका तात्पर्य उस संकुचित भावना को समाप्त करना है। (गु.स.खंड 9 पृष्ठ संख्या 179-180) जैसे विचार रखने वाला व्यक्ति दलित विरोधी कैसे हो सकता है!
श्री गुरूजी का मुस्लिमों के प्रति विचार:
1971 में एक अरबी विद्वान डॉ. सैफुद्दीन जीलानी के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “हमारी धार्मिक मान्यता और दर्शन के अनुसार, एक मुसलमान! हिंदू जितना ही अच्छा है। यहाँ अकेला हिंदू नहीं है जो परम देवत्व तक पहुंच जाएगा। सभी को अपने स्वयं के पंथ के अनुसार अपने मार्ग का अनुसरण करने का अधिकार है। ”
1972 में द इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक “खुशवंत सिंह” को दिए साक्षात्कार में श्री गुरूजी ने कहा “हमें यह एहसास कराएं कि हम सभी एक ही स्टॉक से आने वाले, इस मिट्टी के बच्चे हैं, हमारे पूर्वजों भी एक है और महत्वाकांक्षाएं भी, ऐसा मैं विश्वास करता हूँ, भारतीयकरण का यही अर्थ हैं!
श्रीगुरुजी द्वारा भारत की एकता, अखण्डता के लिए किया गया कार्य अमूल्य। चाहे स्वतंत्रता के बाद कश्मीर विलय हो या फिर अन्य कोई महत्वपूर्ण प्रकरण। श्री गुरूजी को राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा की भारी चिंता लगी रहती थी। उनके अनुसार भारत कर्मभूमि, धर्मभूमि और पुण्यभूमि है। यहां का जीवन विश्व के लिए आदर्श है। ऐसे उत्त्कृष्ट विचारों वाले महामानव को खोखले और कंगाल मानसिकता वाले कम्युनिस्ट लॉबी द्वारा ओछे कुचक्र में डालना ठीक नहीं है और न ही देशभक्त श्रीगुरुजी के प्रति ऐसा व्यवहार उचित है।
वीरेंद्र पांडेय
(लेखक सहायक आचार्य एवं शोधकर्ता हैं )