भारत में हर कोई लगभग दस-बारह वर्ष की आयु तक मुंशी प्रेमचंद की कोई न कोई कहानी अवश्य पढ़ चुका होता है। जो प्रदेश हिन्दी भाषाभाषी नहीं हैं वहाँ भी अनुवाद के माध्यम से प्रेमचंद कहानी की दुनिया में प्रवेश कर ही जाते हैं। मुंशीजी की मृत्यु 1936 में हुई। अपने जीवनकल में उन्होंने लगभग तीन सौ कहानियों से हिन्दी साहित्य को विभूषित किया। परंतु यहाँ चर्चा मुंशी प्रेमचंद की उस कहानी की करेंगे जो लोगों की पहुँच से दूर रखी जाती है। कहानी का नाम है-‘जिहाद’। यदि पाठकों ने कहानी न पढ़ी हो तो समीक्षा पढ़ने से पूर्व चार-पाँच मिनट मे लिंक में दी हुई कहानी पढ़ लें अन्यथा कहानी के बिना समीक्षा का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
आज से लगभग सौ साल पहले लिखी गई इस कहानी का कथानक कुछ ऐसा है-
पश्चिमोत्तर (तत्कालीन भारत अफगानिस्तान सीमा और वर्तमान पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा) के एक गाँव से जान बचाकर भागता हुआ एक हिन्दू समूह है। जिनका पीछा मजहबी उन्माद में सने हुए वो मुसलमान कर रहे हैं जो सदियों से उनके साथ रहते आए थे। उद्देश्य है इनकी हत्या या धर्मांतरण। उनके मंदिर तोड़ दिए गए हैं। संपत्ति पर मुसलमानों ने अधिकार कर लिया है।
इस भागते हुए समूह में धर्मदास और खजानचंद नाम के दो युवा हैं जो श्यामा से प्रेम करते हैं। श्यामा की बुआ उसका विवाह खजानचंद से करना चाहती है परंतु उसकी प्रेमदृष्टि का पात्र धर्मदास है।
रास्ते में इन पर धर्मांध मुसलमानों का हमला होता है। पहले धर्मदास उनके हाथ लगता है जो तलवार के डर के कारण इस्लाम स्वीकार कर लेता है। खजानचंद लड़ता हुआ दो पठानों को मार गिराता है परंतु अंततः पकड़ लिया जाता है। आत्मगौरव, निजधर्म के सम्मान में वह मुसलमान हो जाने के स्थान पर मृत्यु को वरीयता देता है और जिहादियों के हाथों मारा जाता है। यही प्रेम त्रिकोण का टर्निंग पॉइंट बनता है। हिन्दू धर्म का महात्मय और स्वत्व की गूढ़ता समझने वाली वाली श्यामा खजानचंद के मृत शरीर को रीढ़विहीन धर्मदास से अधिक प्रेम योग्य मानती है। कुछ कृत्रिम नाटकीयता के बाद अंततः धर्मदास अपमानित होकर आत्महत्या कर लेता है।
कथानक बहुत ही सहज और मर्मस्पर्शी है। प्रेम-त्रिकोण के माध्यम से सहस्राब्दी लंबे वीभत्स यथार्थ का अंकन है।
न जाने कितने खजानचंदों की हत्याएं निरंतर होती रही हैं। वास्तविक श्यामाएं या तो अपमान के नारकीय जीवन को विवश हुई है या जौहर व्रत का पालन करने को। धर्मदास अपना धर्मत्याग अरबी नाम धारण कर के पठान की भूमिका आ रहे हैं। अपनी कुंठा और हीनभावना को छिपाने के लिए वो अब बचे हुए काफिरों को भी अपने जैसा कुंठित बनाने में लगे हुए हैं।
यदि ‘पश्चिमोत्तर’ की जगह लाहौर, ढाका या कराची कर दें और ‘रावलपिंडी’ के स्थान पर दिल्ली, कलकत्ता या अमृतसर तो कहानी 1947 की हो जाएगी। अगर पश्चिमोत्तर को कश्मीर घाटी कर दिया जाए और रावलपिंडी की ओर भागते हिन्दू अगर किसी तरह जवाहर सुरंग पार कर जम्मू की ओर भागने लगें तो यही कहानी 1989-1990 की हो जाएगी।
बस हिंदुओं की भूमि सिकुड़ती जा रही है।
इस कहानी में रावलपिंडी सुरक्षित स्थान है जो 20 वर्ष बाद ही इस्लामिक आतंकवाद का गढ़ हो जाता है। ऐसा नहीं है कि पश्चिमोत्तर कभी सुरक्षित नहीं था। कभी वो भारत के सर्वाधिक समृद्ध विश्वविद्यालय तक्षशिला के कारण विख्यात था। गांधार शैली की मूर्तिकला का जन्मस्थल था। वर्तमान में जिसे पाकिस्तान और बांग्लादेश कहते हैं उस स्थान पर हिंदुओं का हाल भी यही होगा ये तो यह कहानी लिखते हुए मुंशीजी ने स्वयं भी नहीं सोचा होगा। जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मलय सभी जगह इसी कहानी का वास्तविक रूप रहे होंगे। बस हिन्दू भाग रहे हैं। असहाय। निर्वीर्य्य।
वर्तमान भी यही है। उत्तर प्रदेश के कैराना या हरियाणा के मेवात में लगी ‘यह संपत्ति बिकाऊ है’ की पट्टिकाएं सभी ने देखी ही हैं। बंगाल, बिहार, तेलंगाना और केरल के मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर दिजनापुर, किशनगंज, मलप्पुरम जैसे कई जनपद यही कहानी कह रहे हैं।
कारण वही था, वही है- जिहाद।
प्रेमचंद ने भारत द्वारा पिछले हजार वर्षों से झेली जा रही विभीषिका को क्षोभ के साथ उकेरा है।
परंतु कथानक लेखकीय हस्तक्षेप से मुक्त नहीं है।
खजानचंद की मृत्यु पर श्यामा के विलाप के बाद पठानों का हृदय परिवर्तन दिखाया गया है। वे खजानचंद के अंतिम संस्कार में श्यामा की सहायता करते हैं। धर्मदास के अतिरिक्त सभी हिंदुओं को बिना धर्मपरिवर्तन ससम्मान वापस अपने गाँव ले जाने का वचन देते हैं।
काफिरों की हत्या को जन्नत का मार्ग और काफिरों की महिलाओं को ‘माल-ए-गनीमत’ का हिस्सा मानने वाले तथा हूरों से संसर्ग की चाह में अंधे जिहादियों से ऐसी अपेक्षा किसी भी जानकार व्यक्ति के गले नहीं उतरती। कश्मीर में गिरिजा टिक्कू के साथ हुई क्रूरता से लेकर इस्लामिक स्टेट के आतंकियों द्वारा यजीदी बच्चियों के साथ दिन में पचास-पचास बार की गई जघन्यता जैसे लाखों उदाहरण इतिहास में बिखरे पड़े हैं।
इस कहानी के लेखनकाल के समकालीन ही लें। ऐसा नहीं हुआ होगा कि खिलाफत आंदोलन के नाम पर मालाबार मे मुस्लिम मोपलाओं के द्वारा हिंदुओं की नृशंस हत्याओं और महिलाओं के सामूहिक शीलभंग का बर्बर रूप मुंशीजी की दृष्टि से छुपा रह गया हो।
परंतु प्रेमचंद पर महात्मा गांधी के ‘हृदय परिवर्तन द्वारा समाज सुधार’ के आदर्श का प्रभाव था।
वस्तुतः कहानी स्वाभाविक तब होती जब खजानचंद की हत्या के बाद पठान उसके शव को क्षत-विक्षत कर उसी जगह श्यामा के साथ बलात्कार करते और उसे ले जाकर काबुल की किसी बाजार में बेच देते। साथ ही बाकी सभी हिन्दू या तो मार दिए जाते या मुसलमान हो जाते। ऐसी स्थति को धर्मदास की आत्महत्या के लिए कहानी में पर्याप्त परिस्थितियों का जुटाव माना जाता।
दूसरा विकल्प यह हो सकता था कि खजानचंद की मृत्यु के बाद श्यामा की धर्मपरायणता देखकर हिंदुओं के रक्त में उबाल आता और धर्मदास व अन्य लोग मिलकर पठानों को मार गिराते।
परंतु ऐसा कुछ भी कहानी में नहीं दिखता।
‘सद्गति’ कहानी में ब्राह्मणों के एक शोषक भाग की निष्ठुरता का उद्घाटन करने की राह में समस्त ब्राह्मणों को शोषक-समाज के रंग से रंगने वाली उनकी लेखनी जिहादियों की बर्बरता, उन्माद और आतताई प्रवृत्ति की नग्नता प्रदर्शित करने में तनिक कुंठित होती दिखाई देती है।
अतः कथानक का एक छोटा भाग लेखक के प्रभाव से प्रेरित दिखाई देता है।
फिर भी सदैव ‘पंच परमेश्वर’ जैसे सांप्रदायिक सौहार्द के मंत्र को ही प्रसारित करने वाले मुंशीजी की ‘जिहाद’ की विशेषता यही है कि इस कहानी में उन्होंने इस्लामिक कट्टरता के नग्न यथार्थ को निर्दयता से प्रकाशित किया है। (वर्तमान में ट्विटर की भाषा में कहें तो वह राहुल ईश्वर की कृत्रिमता से निकलकर राहुल रौशन की वास्तविकता को गृहण कर रहे हैं।)
कथावस्तु में आरंभ, विकास (धर्मदास-खजानचंद संवाद), कौतूहल (जिहादियों का आक्रमण), चरम (खजानचंद की हत्या) और अंत (धर्मदास की आत्महत्या) की अवस्थाओं को देखा जा सकता है। संक्षिप्तता के गुण को धारण करते हुए भी इन सभी चरणों का पाया जाना एक दुष्कर कार्य है। यह कहानीकार की साहित्यिक उपलब्धि है।
‘जिहाद’ मे मुख्यतः तीन ही चरित्र हैं। धर्मदास, श्यामा और खजानचंद। पठानों की कृत्रिमता के अतिरिक्त पात्र परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करते है। धर्मदास मे इस्लाम स्वीकारने से पहले द्वंद दिखाई देता है, शेष दोनों चरित्र संकल्पित प्रतीत होते हैं। चरित्र अपने क्रियाकलापों से अपने स्वरूप का विकास करते हैं।
प्रेमचंद के चरित्रों के नामकरण विशेष होते हैं। नाम चरित्र के मनोविज्ञान को समझने में सहायता करते हैं। व्यक्तिगत और सामूहिक मनोविज्ञान को चरित्र से ढूंढ निकालने की कला मुंशीजी में अद्भुत है।
धर्मदास का नाम के साथ कॉन्ट्रास्ट दिखाया गया है। एक समय तो यह ‘लंबा, गठीला, रूपवान’ व्यक्ति ‘एक दर्जन भी आ जाएं तो भूनकर रख दूं’ की डींगें हांक रहा होता है परंतु परिस्थिति आने पर झटपट आत्मसमर्पण कर देता है। खजानचंद नाम के अनुसार धनाढ्य है। परंतु ‘दुबला-पतला, रूपहीन-सा’ यह युवक स्वाभिमान रूपी धन का भी खजांची निकलता है। ‘कितनी ही बार धर्मदास के हाथों वह पराजित हो चुका था’ परंतु अंततः श्यामा के प्रेम का वह अधिकारी बनता है।
‘श्यामा’ नाम सम्मोहक है। सोचते ही एक साँवली-सलोनी युवती का चित्र मस्तिष्क में उभरता है जिसके नैन-नक्श आकर्षक हैं, माथे पर केशों की लटें बिखरी हैं। जो साड़ी के पल्लू को को कमर लगाए हुए उलटे हाथ से पसीने की बूंदें पोछ रही है। जिसमे गंभीरता है, गरिमा है और शिशुता भी। और संभवतः वह भगवान कृष्ण की आराधिका भी हो। आप जिस पर मोहित भी हो सकते हैं और श्रद्धावश उसे साष्टांग प्रणाम करने का भी मन करता है।
श्यामा का चरित्र भी सर्वाधिक सशक्त हो कर निखरा है। उसको प्रेम धर्मदास से है लेकिन पठानों से गले मिलते देख वो खजानचंद से कहती है- “मैं चाहती हूं, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर! निर्लज्ज! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है।“
त्वरित निर्णय लेने की शक्ति है उसमे। नीर-क्षीर विवेकी तो इतनी है कि वह दुरूह स्थिति में भी आदर्श व्यक्ति का वरण करती है। क्योंकि ‘यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचने वाला कायर नहीं’।
वैचारिक स्पष्टता स्तर तो इसी पंक्ति से पता चलता है जब वह धर्मदास से कहती है- “तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंद सिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया।“
प्रभाव इतना है कि पूरे कथानक का रुख मोड़ दे। यहाँ तक की नंगी तलवार ताने जिहादियों के हृदय परिवर्तन जैसा ‘न भूतों न भविष्यतो’ कार्य भी करवा दे। कायर के मन में इतनी आत्मग्लानि का भाव दे दे कि उसे आत्महत्या के अतिरिक्त कोई विकल्प न बचे।
भारतीय समाज का धुरी महिलाएं ही हैं। वो प्रेरक हैं, संबलदात्री हैं, मार्गदर्शक हैं, पालक हैं। पुरुष सहायक की भूमिका में हैं। जो आर्थिक, युद्धक अथवा राजनीतिक कार्य करते दिखाई देते हैं। पर समाज का मेरुदंड महिलाएं ही हैं। अगर शिवाजी महाराज चौदह वर्ष की आयु में विजय यात्रा का आरंभ करते हैं तो कारण माँ जीजाबाई हैं और कोई नहीं।
श्यामा उस परंपरा की वाहिका है जिस परंपरा को देवी अहिल्याबाई होल्कर, रानी नाइकी देवी, रानी पद्मिनी और रानी लक्ष्मीबाई ने गौरंवान्वित किया है।
कहानी के चरित्र मुंशी प्रेमचंद की उपलब्धि हैं जो सीमित पृष्ठों मे असीमित भावों को समेटे हुए हैं।
देश-काल का वर्णन पर्याप्त है। पश्चिमोत्तर और रावलपिंडी के उल्लेख से स्थान का पता चलता है। कड़कड़ाती धूप, प्यास, बच्चों द्वारा रूदन रोकने, वृक्षहीन बीहड़ रास्तों और तलवारों के साथ काफ़िर-काफ़िर के नारों से वातावरण काफिरों के लिए भयानक होने की सूचना देता है।
यदि पिछले महीने मे काबुल के गुरुद्वारे में बम से मारे गए सिखों की चीत्कार सुने तो पता चलता है आज भी वातावरण वैसा ही है। जहां गुरुद्वारे में मारे गए लोगों का अंतिम संस्कार कर रहे परिजनों को भी बम से हमला कर के मार दिया जाता है।
कहानी के संवाद लघु एवं प्रभवोत्पादक हैं। चरित्र उद्घाटक हैं। कहानी के प्रवाह को बढ़ाते हैं। भावनाओं का सहेजने और वातावरण की सघनता बढ़ाने में सक्षम है। पठानों के संवादों से यदि सामने नाचती मृत्यु का भय जागृत होता है तो श्यामा के ओजपूर्ण संवादों से इस भय पर विजय की इच्छा। यदि दृश्य-विधान, संवाद और चरित्र-संकेत की दृष्टि से देखें तो ‘जिहाद’ का नाट्य रूपांतरण अत्यंत सहजता से हो सकता है। यह मुंशीजी की लेखनी का अनन्य कौशल है।
धर्मदास से संवाद में पठान कहते है- “मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं” तो दो पृष्ठ के बाद खजानचंद जिहादियों को उत्तर देता है- “मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है।“ इससे स्पष्ट होता है कि संवाद अलग-अलग होकर भी ऐसे बुने गए हैं की उनमें जुड़ाव स्पष्ट दिखता है।
भाषा-शैली की यदि बात की जाए तो अरबी-फारसी के शब्दों की अधिकता वाली हिन्दी उनकी प्रिय है। इसी को गांधीजी ‘हिन्दुस्तानी’ कहते थे। प्रेमचंद की शिक्षा स्वयं एक मदरसे में हुई थी। उनकी प्रारम्भिक रचनाएं उर्दू में थीं। बाद की भी कई रचनाएं मूलतः उर्दू में लिखी गईं एवं उनका प्रकाशन हिन्दी में हुआ। ‘रानी सारंधा’ जैसी कुछ संस्कृतनिष्ट रचनाओं को छोड़कर उनका लेखन हिन्दुस्तानी शैली का ही रहा है। कथाजगत में मुंशी जी इस शैली के और यह शैली मुंशीजी की पहचान बन गई।
‘जिहाद’ में यथास्थान तत्सम शब्दों का भी विद्वतापूर्ण प्रयोग हुआ है। विशेषतः हिन्दू धर्म के गौरवांकन के स्थानों पर। खजानचंद की गर्दन पर जब जिहादी तलवारें तानते है तब उसकी निर्भयता पर मुंशीजी लिखते हैं- “ख़ज़ानचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं।”
वहीं जब अंत में धर्मदास भागकर श्यामा की चौखट पर पहुंचता है तब वह दुत्कारते हुए कहती है- “मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ, जिसने हिंदू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया ! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ।“
भाषा कहीं-कहीं काव्यमय होती दिखती है। जहाँ उपमाओं का प्रयोग है तो दृश्य और श्रव्य बिम्ब की सघनता भी। एक उदाहरण अवलोकनीय है- “वृक्षों की कांपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियां भर रही हो।“
‘जहर का घूंट पीना’, ‘आंखों में अंधेरा छाना’ जैसे मुहावरों से पाठक को बांध लेना तो प्रेमचंद का जादू है ही।
प्रेमचंद की भाषा की एक अन्य विशेषता है- सूत्र-भाषा का प्रयोग। सूत्र वाक्य किसी भी गद्य के वो वाक्य होते हैं जो उसकी अहम कड़ी होते हुए भी उस गद्य से अलग अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखते हैं। प्रेमचंद लिखते हैं कि ‘हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं; बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं’।
यह सूत्र-वाक्य कहानी का भाग मात्र नहीं है। एक चिरकालिक सत्य है। जहाँ संगठित मजहबों के धर्मांध भारत की पुण्य-भूमि छेंके जा रहे हैं वहीं अधिकतर हिंदुओं को वस्तुस्थिति का भान भी नहीं है। अगर 1945 में कराची के किसी हिन्दू से बोलते कि तुमको यहाँ से भागना पड़ सकता है तो वो तुम्हारा मजाक उड़ाता। अगर 1985 मे किसी कश्मीरी हिन्दू से कहते कि तुम अपने इस वैभव से दूर दिल्ली के नालों के किनारे टेंट में रहोगे तो वो तुमको सांप्रदायिक कहता। और यह हाल अभी भी है। सभी शुतुरमुर्ग बने हुए हैं।
उद्देश्य की बात करने से पहले प्रेमचंद का दृष्टिकोण जानना आवश्यक है। लाहौर के मासिक-पत्र ‘नौरंगे ख्याल’ के संपादक से उन्होंने कहा था- “मेरी कहानियाँ प्रायः किसी न किसी प्रेरणा या अनुभव पर आधारित होती हैं। इसमे मैं नाटकीय रंग भरने की कोशिश करता हूँ। मैं कहानी में किसी दार्शनिक या भावात्मक लक्ष्य को दिखाना चाहता हूँ। जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं होता, मेरी कलम नहीं उठती।“
जिहाद वैसे भी स्पष्ट रूप से एक सोद्देश्य कहानी दिखाई पड़ती है। जहाँ न सिर्फ प्रेमचंद मृत्यु को धर्मांतरण से उच्च स्थान देकर हिन्दू समाज में उत्साह भरने का कार्य कर रहे हैं। श्यामा और खजानचंद के वाक्यों से हिन्दू जीवन मूल्यों को स्थापित कर रहे हैं। साथ ही जिहाद, कुफ्र, ईमान, जन्नत, हूर, फरिस्ते, सवाब आदि शब्दों मे निहित घृणा को भी उजागर कर रहे हैं। प्रेमचंद उद्घोष करते हैं कि ’ हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुंचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं!’
उनके उद्देश्य की स्पष्ट प्रतिध्वनि कहानी मे है। इसी कारण साहित्यिक संगठनों और प्रकाशन समूहों पर कुंडली मार के बैठे वामपंथियों ने इस कहानी को लोगों से छिपाकर रखने का प्रयास किया है। ‘प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ’ नामक किसी भी संकलन में आप ‘जिहाद’ को नहीं पाएंगे।
समस्या के साथ मुंशी प्रेमचंद समाधान पक्ष को भी प्रदर्शित करते हुए चलते हैं। भागने की एक सीमा होती है। और समस्या से भागना विकल्प होता ही नहीं है। संघर्ष ही विकल्प है। धर्म बेचकर जीने वाला कायर कहलाया जाएगा। स्त्रियाँ श्यामा के रूप में पथ प्रदर्शक हैं। प्रेमचंद कुरुक्षेत्र के भगवान कृष्ण बन कर ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ की प्रेरणा दे रहे हैं।
समग्रतः ‘जिहाद’ समय को जीत सर्वकालिक कहानी बनती है। यह समस्या-समाधान द्वय को प्रस्तुत करती है। नारी के आदर्श रूप की प्रस्तुति देती है। सही और गलत राह का अंतर स्पष्ट करती है। कथ्य और शिल्प दोनों में संदेश को जकड़कर प्रस्तुत करती है। इतना ही नहीं, कालांतर में आक्रान्ताओं की बर्बरता पर की गई वामपंथी लीपापोती के पलस्तर को भी झाड़ कर रक्तरंजित दीवार के सत्य को प्रकट करती है। अगर ‘पूस की रात’ और ‘गोदान’ किसानों के जीवन की ढेरों समस्याओं के चलचित्र है तो ‘जिहाद’ हिन्दुओ पर सदियों से किए गए अत्याचारों की पांडुलिपि।
‘कहानी सम्राट’ को इस प्रस्तुति के लिए केवल नमन ही किया जा सकता है।