राजनीति पर लिखने से हम किसी ना किसी पक्ष में साथ खड़े दिखाई देंगे और नहीं देंगे तो दिखाया जाएगा जब अन्य पक्ष के लोगो के विचार आप से मेल नहीं खाएँगे। इसी तरह के प्रचार प्रसार की बात को आगे बढ़ाए तो ध्रुवीकरण की राजनीति का भाड़ा फुट जाएगा।
वर्ष 2014 से अब तक कई बुद्दिजीवी लोग इस देश के बहुसंख्यक समाज को धुर्वीकरण की राजनीति का शिकार बता चुके है। शायद कही पंथों की विचारधारा के टकराव को भी राजनीति से भी जोड़ा जाये। एक वर्ग है जो हमे हिन्दू मुस्लिम और अन्य भागो में हम बटे रखना चाहता है। वो इस बात का पूरा फ़ायदा उठाना चाहता है की हम इस 2014 से 2019 तक की गई गलती मान ले और फिर से अपने लोकत्रांतिक अधिकार को भूल जाये ताकि और राज करने वाला राज करे।
परन्तु ध्रुवीकरण का लांछन लगाने वाले कई लोग उस बहुसंख्यक समाज की पीड़ा समझ ने को तैयार ही नहीं है। शायद उससे एक तरीके की गुलामी की उम्मीद जो बन चुकी थी, की जो भी परोसा जाएगा मर कर भी खायेगा। नही भी खायेगा तो ज्यादा से ज्यादा मर ही तो जाएगा। पर आपना राज तो चलता रहेगा।
पर पता नहीं कैसे उस बहुसंख्यक समाज की नींद खुली, जो अपनी लोकतांत्रिक शक्ति को आँकने निकला, पहली बार 2014 लोकसभा चुनाव में किसी दूसरे राजनीतिक विचारधारा की ओर। जब गठबंधन की सरकारो से अपने और देश के हाल न सुधारने की उम्मीद टूटी तो पूर्णबहुमत तक सरकार तक लाकर खड़ा कर दिया। शायद उस समाज को कही से लगा की मूल मुद्दों पे बात ही नहीं रही। कोई इतिहास पर को लेकर परेशान था, कोई पंथ को लेकर, कोई गरीबी को लेकर तो अपने सांस्कृतिक ढ़ाचे में पनपी कुरीतियों को लेकर।
कुछ राष्ट्रीय पार्टी और कई क्षेत्रीय पार्टी से एक सामूहिक गुस्सा था जो 2014 में निकलना शुरू हुआ। फिर वर्षो से राज करने वालो के पसीने छूट गए। उन्हें ये कत्थई गवारा नही था की ये सरकाई हुए थाली में रोटी खाने वाले, रोटी का हक से कैसे माँग सकते है।
और धीरे धीरे प्रोपोगंडा युद्ध शुरू हुआ। पर इस बार ये युद्ध दोनो तरफ से था। कही ये फेक न्यूज़ के रूप फैलता रहा कभी न्यूज़ रूम के अंदर तक।
ये राजनीतिक खेल आज भी जारी है पर इस खेल खेल में समाज से उन सभी दलों को एक बात समझा दी की आपको दोनो पक्ष सुनने पड़ेंगे। आप राजनीति में किसी विचार धारा को समर्थन करते है ये आपका व्यक्तिगत मामला है पर अब दोनो पक्ष आपके सामने समक्ष है।
हो सकता है 2014 से बाद से देश मे कहे जाने वाले भक्त प्रवति के लोगो का जन्म हुआ हो पर इन लोगो ने देश उन चमचो को उजागर कर दिया जो कई वर्षों इस राज कर रहे थे।
हो सकता है 2014 के बाद देश कई तथाकथित राष्ट्र्वादी पत्रकार मैदान में उतरे हो जिसे उस बहुसंख्यक समाज ने ये मौका दिया जो तथाकथित महा उदारवादी पत्रकारों की न्यूज के व्यूज को गलत मान कर भी थाली में सरकाई रोटी खा रहा था।
हो सकता है 2014 के बाद सावरकर पर बाते सामने आगे आने लगी हो क्योंकि उसी अहिंसावादी गांधी जी मार्ग के पर चलने वाले समाज ने अपने खून के उबाल को पहचान लिया हो।
जिस ध्रुवीकरण की राजनीति को साम्प्रदायिक बता बता कर एक बुद्धिजीवी वर्ग अपने हाथ की चूड़ियां थोड़ रहा है वो शायद इतने वर्षों से वातानुकूलित कमरे से बाहर निकले बिना की समाज का हाल बता रहा था। इस बुद्धिजीवी वर्ग के आलस्य के कारण समाज ने पूर्णबहुमत दूसरी बार फिर दोहरा दिया। क्योंकि वो सबसे पहले इन्हें धरातल पे लाना चाहता था। समाज को ये कत्थई गवारा नहीं था की अब भी इन्ही की आँखों से दुनिया देखे। जागरण के वरिष्ट पत्रकार अनंत विजय जी की पुस्तक “मार्क्सवाद का अर्द्धसत्य” में तथाकथित बुद्दिजीवी और उदारवादी लोगो का दोगलापन जमकर उजाकर किया। राफेल विमान सौदे ने देश के एक बड़े अखबार तक को इस युद्ध मे हिस्सा लेते देखा जहाँ उसका भी एक तरफ की राजनीति की तरफ झुकाव साफ दिखा।
ये सब बहुसंख्यक समाज शांति से देख रहा था जिसे को ध्रुवीकरण के तले आप कितना ही दबाने की कोशिश पर अब वो सिर्फ अपना वोटिंग प्रतिशत बढ़ाने में लगा है। जहाँ पहले एक तरह एक ही तरह के न्यूज पर व्यूज आते थे आज समाज खुद उस न्यूज बन पर्दाफास करने में लगा है।
मौजूदा सरकार को किसी पंथ विशेष की दुश्मन करार दे कर अपने पक्ष रखने वाले उस पंथ विशेष के गलत कार्य पर चुप्पी, दुगलेनपल की पराकाष्ठा है। जिस सरकार को राइट विंग सरकार का तमगा लगा रखा है उसने गरीब कल्याण में बहुत कार्य किये। कही गैस दी, कही मकान, कही बिजली तो कही सीधा मुद्रा राशि खतो में। पर ये बातें उदारवादी गण को नजर ही नहीं आएगी। और जो इन बातों को उजागर करे उसे भक्त करार देना उनकी उपलब्धि है। भारत के मध्य वर्ग पर बात करे तो कर में निरंतर कमी देखी गयी पर कोई इसपे कोई चर्चा नही। कोई इस बात को उजागर करने को भी तैयार नहीं की पिछले छः वर्षो के तनख्वाह में जिस राशि इजाफा हुआ उस दर पर महंगाई नहीं बढ़ी जिसका सीधा मुनाफा हर वर्ग ने उठाया। बस बहस का सीधा तुक मुफ्त में क्या दिया उस पर लाकर छोड़ दिया जाता है। लोकतंत्र में जिस जनता को मोदी का भक्त करार दिया गया उसी जनता है दिल्ली विधानसभा चुनाव में किसी और को विजयी दिलाई। उदारवादी पत्रकारों और तथाकथित बुद्दिजीवीओ का एक वर्ग अपनी सहूलियत से समाज को ध्रुवीकरण का शिकार बताएगा। पर आज हर गली गूचे में समाज के पास सरकार के साथ या खिलाफ खड़े होने का वक्तव्य मौजूद है। पर जो साथ है वो ध्रुवीकरण का शिकार है और औऱ खिलाफ वो समझदारी की जड़ीबूटी का सेवन कर रहा है। ऐसा दर्शाया जाएगा।
लोकतंत्र में for the people और to the people ही नही पर by the people भी जरूरी है यहीं पहचान 2014 से 2019 तक के सफर में इस समाज ने जान लिया है। और इसी समाज ने सब के सामने दोनो पक्ष लाके खड़े कर दिए है। अब वही ध्रुवीकरण के शिकार दिल्ली का मुख्यमंत्री भी चुनते है,ओरिसा के भी और देश का प्रधानमंत्री भी। मतलब समाज जिस और करवट लेगा राजनीति उसी तरफ़ चलेगी और कोई ना कोई बुद्दिजीवी वर्ग आपको ध्रुवीकरण का शिकार बता कर चूड़ियां तोड़ता रहेगा।