हमारे देश मे कई समस्यायें है, उसमें से जो दुष्टतम है, वह है जातिवाद। नित्य समाचार-पत्र इस तरह की घतनाओं से अटे रहते है। कोई जाति किसी को भी नीचा दिखा सकती है। कभी ब्राह्मण-क्षत्रिय को, कभी क्षत्रिय-ब्राह्मण को, वैश्य-शूद्र को या शूद्र-ब्राह्मण को। यह विवाद इन सभी जातियों के भीतर भी है, शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एव ब्राह्मणों मे भी कई प्रकार है जो एक दूसरों से ऊँचे या नीचे है। यह तो हर भला व्यक्ति समझ जाता है की जातिवाद मे कोई तर्क नही है एव अनैतिक है परन्तु इसके अनेक कारणों मे से कुछ कारण ऐसे है जिनपर चर्चा या तो हुई नहीं या बहुत कम हुई एव वे सदैव मुंह-जोरी की गर्मी मे बच निकलते है।
पराजय की हीन भावना एव दोषारोपण
हमारे समाजों में सदैव अपने-अपने वर्गों के योगदान को गौरव से बताया जाता है, उसके विपरीत पीढ़ीयों से पुस्तकों में हमें बताया गया कि बाहरी शक्तियों के आक्रमण में भारतीय मात्र पराजित ही हुए है। सामान्य मन में प्रश्न उठना स्वभाविक है कि यदि हम इतने महान थे तो सतत पराजित कैसे हुए। तब ज्ञान के अभाव में सरल सा समाज सरल सा उपाय खोज लेता है कि, “दूसरे वर्ग ने अपना दायित्व नही निभाया”, “ब्राह्मणों को राज्य का मोह हो गया एव शत्रु से मिल गया”, “क्षत्रिय भोग-विलास के मद मे वस्तविकता से परे हो गया”, “वैश्य तो बस लाभ के पीछे भागता है, उसे देश से क्या”, “शूद्र दूर से देखते रहा, युद्ध में कभी भागी नहीं बना”, इत्यादि। ऐसे ही व्यर्थ के कुतर्क और मिथ्याओं को लेकर स्वयम को सांत्वना दे देता है। इस उत्तर से समय और प्रश्न दोनो ही बीत जाते है पर साथ ही दुसरे समाज के लिये घृणा का बीज भी पड़ जाता है। लोगों को दुसरे समाज से इतना द्वेष नहीं है, परन्तु लोगों के पास अगली पीढ़ी को देने के लिये उत्तर भी तो नही है। निरुत्तर समाज कुतर्कों से अपना सम्मान बच्चा लेता है।
अंग्रेजों के द्वारा निरादर को समाज का नियम मान लेना
भारतीय समाज पहले से ही बाहरी शक्तियों के विरुध्द पराजय से अपमानित था, लेकिन अंग्रेजों ने अपमान को स्वभाव बना दिया । अपने शासक से अपमानित होना एव उसी शासक के आदेश पर अन्य देश-वासियो को भी अपमानित करना दैनिक कार्य बन गया, जिसका प्रतिबिंब आज भी नौकरशाही मे देखने को मिलता है। स्वाभीमान से वन्चित व्यक्ति अपना क्रोध अपने से दुर्बल पे ही दिखाता है जिससे उसके मन की असहजता को क्षणिक सुख मिले। इस प्रथा ने समाज को समझा दिया कि दुर्बल का शोषण तो व्यवस्था का भाग है, और इसकी अलोचना करने वाले वह है जो स्वयम दुर्बल है अथवा ईर्षालु है। यद्यपि अंग्रेजी शासक के अधीन काम करने वाले किसी एक जाति के नहीं थे परन्तु “दुर्बल के शोषण” जैसा घिनौना कुतर्क “एैसा ही होता आ रहा है” की श्रेणी आने का प्रभाव समाज के हर ढांचे पर पड़ा, अंतर जाति संबंधों पर भी।
पुत्र मोह
जब भी आप किसी सामाजिक समस्या का अध्ययन करेगें तो उसकी जड़ में एक रोग के तत्व अवश्य पायेगें, “पुत्र मोह”। रामायण हो या महाभारत या आज का युग, पुत्र मोह ने जितनी हानि की है किसी अन्य रोग ने नही की। पुत्र मोह में मनुष्य वह सभी कार्य करता है जो अनैतिक, असामाजिक, असंवैधानिक एव अर्थहीन हो ताकि, ब्राह्मण के पुत्र का ब्राह्मणों जैसा सम्मान हो चाहे वो योग्य ना हो, क्षत्रिय गुण ना होने पर भी पुत्र क्षत्रिय कहलाये एव शूद्र का पुत्र क्षत्रिय-ब्राह्मण के पुत्र से अधिक ख्याति ना पाये। बिना परिश्रम के, आने वाली पीढ़ी वो सभी सुविधाये मिले जो पीढ़ी ने अर्जित नहीं किया। सम्पत्ति तो ठीक है, अपितु सम्मान एव सामाजिक प्रतिष्ठा भी उत्तराधिकार से मिले। अब स्वयम को बिना गुणों के ही बड़ा बनाना है तो अन्य को छोटा तो दिखाना ही पड़ेगा, जिसका चतुर उपाय है कि किसी जाति को ये स्मरण कराते रहो कि वे नीचे है, आने वाली सभी पीढ़ीयां इसको सहज ही स्वीकार लेंगी।
भगवान कृष्ण की वर्ण परिभाषा
अर्थात : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों (Saatvik, Raajas and Tamas) के द्वारा विभक्त (classified) किये गये हैं।
जातिवाद समाप्त करने के भयानक उपाय
एसा प्रतीत होता है कि भगवान कृष्ण के कहने के बाद तो सब स्पष्ट है, अब तो सभी वर्ग इसे मान ही लेंगे, परन्तु लोभी मन को कम ना आंके क्युंकि लोभ वो रोग है जिसके लिये मनुष्य इश्वर को भी नकार सकता है। उससे भी क्रूर वह लोग है जो दानवीय समाधान देते है जैसे, पूरी ब्राह्मण जाति को भारत ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी नीचा दिखाना, शूद्रों को उकसा कर हिन्दु धर्म से दूर करना, धर्मान्तरण और भी अनेक उपाय है। जरा सोचिये, क्या ब्राह्मण जाति का अपमान करने से ब्राह्मणों से सौहर्द बढ़ गया? क्या शुद्र का शोषण करने से वो हमे अपना भाई समझेगा? क्या क्षत्रिय की भर्त्सना करने से आपस मे स्नेह आ गया? क्या शुद्रों को उकसाने से जातियों के बीच की खायी कम हुई? क्या अन्तर्-जातीय संघर्शों से मन्-मुटाव कम हो गया? एक दुसरे को नीचा दिखाना शत्रु के इशारों पे नाचने के समान है, कभी किसी को नीचा दिखा के उसका ह्रदय परिवर्तन हुआ है? उसके विपरीत परिस्थिति बिगढ़ी ही है। तो क्युँ ना कोई आशावादी समाधान खोजा जाये जिससे हम उस परिवार को फ़िर से एक कर पाने मे सफ़ल हों। जब भगवान शिव ने सभी को समान माना है, हम मनुष्य कौन होते है भेदभाव करने वाले।
अज्ञानता का अधंकार कितना ही गहन हो, प्रकाश की किरण उसे भेद सकती है। इस समाज को यदि जातिवाद के जाल से निकलना है तो, इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य मे पढ़ाना होगा, सभी जन मानस को समान समझना होगा और पुत्र मोह को त्यागना होगा, तभी हम एक सभ्य समाज कि रचना कर सकते है जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी।
हठी शूद्र सा दृढ़ हो जा, ले ब्राह्मण सा ज्ञान।
वैश्य बन वास्तव को देख, बन क्षत्रिय बलवान।
–जयेन्द्र