हाल ही में कुछ बहुचर्चित घटनाक्रम देखने को मिले कि कैसे हैदराबाद में कुछ मनुष्य रूपी राक्षसों ने युवती की बलात्कार के बाद हत्या की। देश का गुस्सा फूट पड़ा, मोमबत्ती वाले जुलूस निकाले गए और अंत में आरोपितों को एनकाउंटर के माध्यम से सजा मिल गयी। लम्बी सुनवाई क़े बाद निर्भया केस के भी चारो आरोपितों को फांसी का निर्णय आ गया। आक्रोशित लोगो द्वारा कई सुझाव दिए गए कि बलात्कारियो को कैसी सजा मिलनी चाहिए, जैसे कि गोली मार दी जाये या भीड़ के हवाले किया जाये। क्रोध आना जायज़ भी है पर इन सब के बीच यह बात पीछे रह गयी कि इस प्रकार के अपराधों की वजह क्या है, और कैसे ये रोके जा सकते हैं?
बात जब इसकी वजह पर आती है की क्यों ऐसी घटनाएं होती हैं तो किसी व्यक्ति या वर्ग के ऊपर इसकी जिम्मेदारी नहीं थोपी जा सकती। नजरिये की माने तो अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से लड़को या लड़कियों को बड़ी आसानी से दोषी ठहरा दिया जाता है। कुछ लोग कहते हैं की लड़के अपनी मानसिकता बदलें और कुछ कहते हैं की लड़किया अपना पहनावा ठीक करें। अगर मानसिकता को ही इसकी वजह माना जाये तो ये कहाँ से आ रही है क्यों आ रही है इस पर भी विस्तार से बात होनी चाहिए।
कभी गौर किया है आपके आसपास के माहौल की असलियत क्या है? उदाहरण के लिए जैसे हमें अक्सर गाने सुनने का शौक होता है। जो गाने रिलीज़ हो रहे हैं और हम सुन रहे हैं उनका मतलब क्या है? क्या सन्देश मिल रहा है उससे? आप देखेंगे कि लगभग 90% म्यूजिक में कोई शख्स जोकि कथित तौर पर उसमे हीरो दर्शाया गया है, वो किसी लड़की की तारीफ करने, समझाने या उसके लिए अपनी प्यार की मिसाल देने की बात करता पाया जाता है, और इस प्रकार एक नैरेटिव बनाता है की उसका एक मात्र लक्ष्य उस स्त्री को हासिल करना ही रह गया है। और इस प्रकार के गाने वैचारिक अश्लीलता को बढ़ावा देने के अलावा कुछ नहीं करते। मूवीज को ही देखिये, घूम फिर कर एक ही एजेंडा सामने आता है की बस लड़की ही चाहिए हीरो को। बहुत कम ही ऐसी मूवीज बनायीं जाती हैं जो इन सबसे अलग मुद्दे पे होती हैं।
अब बारी आती है सोशल मीडिया की; अश्लीलता तो जैसे जरुरी सी हो गयी है। कहीं- कहीं तो ऐसा है कि जब तक आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग न हो तब तक आपका कंटेंट आकर्षक नहीं लगेगा। ऐसे ही अनगिनत शॉर्ट स्टोरी और वीडियो भी उपलब्ध हैं जिसमे दिखाया जाता है कि फलाने व्यक्ति ने किस प्रकार मौके का फायदा उठाकर किसी क़े साथ जबरदस्ती की या फिर कैसे उसने पारिवारिक संबंधो को शर्मसार किया। दर्शकों को पता भी नहीं चलता की कैसे उन्हें अपने मन में अश्लील विचार लाने को मजबूर किया जाता है। टेलीविज़न पर भी कुछ विज्ञापन अश्लीलता की मिलावट करके प्रोडक्ट का प्रचार करते देखे जा सकते हैं। फिर जब स्त्री को उपभोग का माध्यम समझना ही एकमात्र उद्देश्य सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है तो क्यों ‘गलत निगाहों‘ को दोष देना? बाकी रही-सही कसर बॉलीवुड की शर्म और लिहाज से रहित कुछ हस्तियॉं पूरी कर देती हैं जिन्हें युवाओं का एक वर्ग अपना आदर्श मानता है।
इन सब के अलावा लड़कियों क़े पहनावे को दोष देने वालो का भी अपना विस्तृत पक्ष है। पिछले 2 दशकों में भारतीयों ने पश्चिमी पहनावे को ज्यादा वरीयता देना शुरू किया है। पुरुषों का सफर शर्ट, पैंट या जीन्स पर ही लगभग थम गया परन्तु अति आधुनिकता रूपी स्वतंत्रता की चाह में महिलाओ क़े एक वर्ग का सफर अभी नहीं रुका। बात बिलकुल सही है कि कौन क्या पहनेगा, ये बताने का अधिकार किसी को नहीं है और न ही मिल सकता है। लेकिन तुलनात्मक रूप से ज्यादा आधुनिक और आकर्षक दिखने का मतलब सभ्य समाज की मर्यादा और स्वयं की शिष्टाचारिता की सीमा पार करना कतई नहीं हो सकता।
हालाँकि सरकार इन अपराधों को न केवल कम करने बल्कि रोकने के लिए काम कर रही है, जिसमे फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट तथा सख्त कानून भी शामिल हैं। लेकिन सरकार के साथ समाज की भी जिम्मेदारी है कि अपने आस-पास हो रही संदिग्ध गतिविधि पर तुरंत आपत्ति करे, ना कि ‘छोडो ..हमें क्या करना‘ बोल कर किनारा कर ले। इन अपराधों में संलिप्त लोगो के साथ वह समाज भी उतना ही जिम्मेदार होता है जो छेड़खानी, लड़के-लड़कियों की आवारागर्दी और सरेराह बेशर्मी जैसी घटनाओं को सामान्य समझकर नज़रअंदाज़ करता है,और फिर बलात्कार होने के बाद पूछता है की कौन जिम्मेदार….?