सैफ अली खान ने इंटरव्यू में कहा कि अंग्रेजों के आने से पहले इंडिया नहीं था। ज्यादातर लोगों ने ये मान लिया कि नवाब पटौदी के वारिस सैफ को इतिहास की जानकारी नहीं है। सही भी है पढ़ाई लिखाई का समय नहीं मिला। लेकिन सैफ को इतिहास की जानकारी नहीं है ये हम तब मानते जब वो कहते कि मुझे नहीं पता कि कब से भारत है। भारत नहीं था कहने का मतलब साफ है कि वो इतिहास को जानते हैं। कहीं ना कहीं से उन्होंने इतिहास को पढ़ा है। या किसी ना किसी ने उन्हें ये बताया है कि भारत का कंसेप्ट तो अंग्रेजों ने लाया।
सैफ की तरह मानने वाले और भी लोग हैं। उन्होंने भी कहीं से ये बातें पढ़ी या सुनी है। यहां गुनहगार सैफ अली खान से ज्याद वो इतिहासकार हैं जिन्होंने अपने वैचारिक आतंक के लिए दशकों इस तरह कि फेक हिस्ट्री और फेक नैरेटिव तैयार किए। देश के हजारों साल के नाम और इतिहास को बेहद शातिर ढंग से 300 साल पुराना बताकर यहां के इतिहास के साथ ही संस्कृति से भी जमकर खिलवाड़ किया। आज फेक न्यूज की बाढ़ आने के बाद दर्जनों फैक्ट चेकर पैदा हो गए। लेकिन फेक हिस्ट्री जब लिखी जा रही थी तब ना गुगल था ना यू ट्यूब। फैक्ट चेक करने के सारे पारंपरिक संसाधनों को फेक क्रिएट करने में लगा दिया गया। इतिहास लेखन को एजेंडा से सीधे-सीधे जोड़ दिया गया।
ये सिर्फ भारत में नहीं हुआ। दुनियाभर में ऐसे फेक नैरेटिव गढ़े गए। वामपंथ की फासीवादी विचारधारा को दक्षिण खिसका दिया गया। जिस हिटलर ने सोशलिस्ट पार्टी बनाई उसे दक्षिणपंथी बताया जाने लगा। वामपंथी मुसोलिनी ने जब रोम में मार्च किया तो लेनिन ने शाबाशी की चिट्ठी लिखी। वामपंथ की इस हिटलर, मुसोलिन और लेनिन वाली विचारधारा ने दुनिया में 10 करोड़ से ज्यादा लोगों की बलि ले ली। दुनिया जब हिटलर और मुसोलिनी के साथ ही वामपंथी विचारधारा से घृणा करने लगी तो धीरे से इतिहास गढ़ने वालों ने हमें बता दिया कि फासीवाद दक्षिण से आया है। तर्क ये दिया गया कि इन विचारधाराओं ने आपस में लड़ाईयां लड़ी इसलिए ये एक नहीं हो सकती। दूसरे विश्व युद्ध में हमने देखा कि एक तरफ वामपंथी थे और दूसरी तरफ फासीवादी थे। तब कई लोगों को लगा कि ये एक दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन ऐसा नहीं था।
एक तरह की आइडियोलॉजी जो ‘किसिंग कजिंस’ हैं, उनमें भी लड़ाई होती आई है। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट लड़े। शिया और सुन्नी लड़ते हैं। ऐसी लड़ाई सत्ता और शक्ति कि लड़ाई होती है। फासीवाद, वामपंथ, समाजवाद के बीच आपस में लड़ाईयां हुई लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो एक जैसे नहीं थे। दुनिया में जब वामपंथ के खिलाफ लहर शुरू हुई तो वामपंथी दलों को पहले लगा कि भारत में किसी को फासीवाद के बारे में पता नहीं है। लेकिन यहां भी फासीवाद की आलोचना होने लगी और लोग गाली देने लगे। उसके बाद वामपंथी इतिहासकारों ने ‘प्रोग्रेसिव रिवीजनिज्म’ किया। कॉलेज, मीडिया और फिल्मों के सहारे फासीवाद की नई परिभाषा तैयार की गई। इसके निर्माण का आधार भी पुराने फासीवादी ही थे। हिटलर ने कहा था कि छोटे झूठ पकड़े जा सकते हैं, लेकिन बड़े झूठ इतने बड़े होते हैं कि आपका दिमाग वहां तक नहीं पहुंच पाता। उन्हें आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता। छोटे झूठ की अपेक्षा बड़े झूठ को बेचना ज्यादा आसान होता है।
इस नए झूठे फासीवाद को धीरे-धीरे लेफ्ट से राइट की ओर शिफ्ट किया गया। जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता, फासीवाद के खांचे बनाकर उसमें दक्षिणपंथ को फिट कर दिया गया। राष्ट्रवादी को फासीवादी बताया जाने लगा। मोदी फासीवादी हैं क्योंकि हिटलर की तरह वो भी राष्ट्रवादी हैं। मोदी संविधान को खत्म कर देगा क्योंकि वो राष्ट्रवादी है। मोदी लोकतंत्र को खत्म कर देगा क्योंकि वो राष्ट्रवादी है। ये सारे विचार तथाकथित बुद्धिजीवियों ने तैयार किया। राष्ट्रवाद की इस परिभाषा के आधार पर तो महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, विंस्टन चर्चिल, अब्राहम लिंकन सभी फासीवादी हो जाएंगे। अगर कभी फासीवादी और नाजीवादी से पाला पड़ गया तो ये दिन रात जहर उगलने वाले शायद 5 मिनट भी ना बोल पाएं।
मोदी की जगह मुसोलिनी होता तो दिल्ली के प्रदर्शनकारियों को राजपथ पर गिरा कर मारता और रोने भी नहीं देता।
फासीवाद के दो रूप होते हैं।आइडियोलॉजिकल और टैक्टिकल। वामपंथ का फासीवादी विचार वाला तरीका फेल हो चुका है। अब वो टैक्टिकल तरीका अपना रहे हैं। इसमें पहले अल्पसंख्यक समूह बनाए गए। इसमें जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्र के साथ ही अब फेमिनिस्ट, गे, लेस्बियन, थर्ड जेंडर के आधार पर भी बांटा गया। फिर प्रोपेगैंडा मशीनरी ये बताएगी कि तुम शोसित हो और वामपंथ ही तुम्हारे लिए बचने और बदला लेने की जगह है। वामपंथी विचारकों ने अखबार में लेख छापना शुरू किया कि- क्यों वामपंथी महिलाएं बेहतर सेक्स का अनुभव करती हैं? दूसरी तरफ फेमिनिस्ट के लिए लिखेंगे कि- क्यों उन्हें पुरुषों की जरूरत नहीं है? अलग अलग जातियों के लिए लिखेंगे कि- कैसे जातिवाद की असली वजह राष्ट्रवाद है? क्यों लोगों के लिए वामपंथी, समाजवादी देश राष्ट्रवादी देश से बेहतर है? इस तरह से बंट जाने के बाद अब उन्हें एक दूसरे का डर दिखाकर और सामाजिक अधिकार की बातें कर अपनी ओर जोड़ते हैं। झूठ-फरेब पर आधारित वामपंथी विचार उसके बाद पूंजीवादी तकनीक का सहारा लेकर अपने झूठ को फैलाता है।
फेक न्यूज से ज्यादा खतरनाक है फेक इतिहास और फेक विचार। सैकड़ों साल की गुलामी की वजह से भारत में फेक इतिहास की जड़ें बेहद गहरी हैं। पहले तो आक्रमणकारियों ने सभ्यता, संस्कृति के पूरे कालखंड को तहस-नहस किया। उसके बाद एक खास तरह की विचारधारा ने बचे-खुचे हिस्से को पहले तो खत्म किया और फिर नया गढ़ कर लोगों को वैचारिक आतंक का शिकार बनाया। वर्ना कोई फिल्म वाला पहले तो इस तरह से बोलता नहीं। अगर बोल भी दिया तो उसी समय सामने वाला टोकता और कहता कि जो इतिहास तुमने पढ़ा या सुना है वो दरअसल फासीवादी आधार पर तैयार किया गया वामपंथी प्रोपगैंडा है।