सोचता हूँ की इस समाज में रहकर क्या मिला केवल एक पहचानI मेरा भारतीय समाज के प्रति प्रेम बहुत है परन्तु कहीं न कहीं कुछ खालीपन है कुछ छुटा छुटा सा लगता है की कुछ झूट बोला जा रहा हैI मैं बात कर रहा हूँ देश में जातिगत भेदभाव की समस्या कीI
हाँ टॉपिक नया नहीं है परन्तु कभी सुलझा भी नहीं है, सब इस बारे में निबंध की भाषा में प्रवचन देंगे की ऐसा करना चाहिए वैसा करना चाहिए परन्तु दिल से सब यही सोचते हैं की मेरा वाला (जाति) ही सबसे अच्छा है, उच्च है, पवित्र है, सर्वोत्तम हैI मैं एक महान पुरुष हूँ जो इस जाति में जन्म लिया, या मैंने इस जाति में जन्म लेके एहसान किया हैI मेरी एक प्यारी आंटी हैं जो कहती हैं की हम फलाना आत से है परन्तु हम एक क्षत्रिय है, बस लिखते नहीं है, पर हम क्षत्रिय खुद को बोल सकते हैंI कमाल की बाते करती हैंI आंटी जात को लेके अलग ही दुनिया में जीती हैंI बेटे की शादी जात में होगी फिर लड़की वालो से उपहार (समझे की नहीं)I परन्तु उनका लड़का कुछ अलग चाहता था प्रेम विवाह अलग जात मेंI आंटी हो गयी नाराज़, बहुत खरी खोटी सुनाई बेटे को, उसने शादी भी कर ली, अब घर से बेटे का हुक्का पानी बंद हैI
मैं हमेशा से अपने आस पास के लोगो से ये पूछना चाहता था की क्या जात ही इसान की असली पहचान है? क्या जात से इंसान बुरा या अच्छा बनता है? क्या एक व्यक्ति बिना किसी वैमनस्य के किसी अन्य जात के व्यक्ति से विवाह नहीं कर सकता?भारतीय समाज में अभी भी इतने बदलावों के बावजूद हमेशा जात को इतना महत्त्व क्यों? क्यों इंसानियत, अच्छाई, परोपकार, अच्छी आदत इत्यादि को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती है, क्या ये किसी व्यक्ति के अच्छे इंसान होने की निशानी नहीं है? क्या सिर्फ एक ही जात में पैदा होके ही हम उस समाज की सारी आवश्यकता पूर्ण कर सकते हैं? हम क्यों ऐसा मानते है की मेरा समाज (जात ) ही मेरी दुनिया है जिसमे अन्य किसी का प्रवेश एक जघन्य अपराध है , किसने मुझे ये हक दिया की मैं ही चुनाव करूँगा की सामने वाला कैसा है, और अगर वो दुसरे जात का है तो पक्का उसे मई कटघरे में खड़ा करूँगा I क्या हम उस वैदिक सभ्यता को भूल गये है जहा एक ही परिवार में ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, इत्यादि रहते थे, जहाँ जाति नहीं वर्ण व्यवस्था थी, क्या हम एक दुसरे से खुद को अलग दिखने की दौड़ में इतने कट्टर हो गये की इंसानियत ही भूल गए?
जीवन अच्छा जीना, मानव मात्र का कल्याण करना, सबकी सेवा करना, सर्वे भवन्ति सुखिनः वाला श्लोक कहा जाता है जब अपने जात की बात आती है, क्या यही है हम जो अधूरे ज्ञान या कहे तो खोखले व्यक्तित्व के साथ हम जी रहे हैं, सामाजिक समरसता की बात करते हुए हम कब एक ऐसे दानव में बदल जाते हैं जो किसी का भी खून सिर्फ इसी बात पे पी सकता है की उस फलाने ने मेरे जात का अपमान किया है, कुछ अप्पत्तिजनक कहा हैI मेरे जात की लड़की से विवाह किया हैI क्या एक समाज के रूप में हम भारतीय इतने कमजोर हैं की आज तक उस कब्र में जा चुकी जात पात की संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं, जिसका कोई सम्बन्ध एक सफल जीवन जीने से बिलकुल भी नहीं है क्यूँ हम अपनी पहचान एक विशेष समुदाय से होने पर ही खुद को बड़ा मानते हैंI
माना की जातीय परंपरा एक भाग हैं भारतीय समाज काI परन्तु ये जातीय परंपरा कम और अंतरजातीय संघर्ष ज्यादा प्रतीत होता हैI भारत में लोग जात के नाम पर भीड़ जाते है, मार दिए जाते हैंI फायदे भी है की गैस एजेंसी वाला भैया लाइन में लगने नहीं देता क्यूंकि वो आपके जात वाला है जल्दी सिलिंडर मिल जायेगाI मेरे क्षेत्र में तो कहते हैं की फलाना जात की लड़की से शादी किया है वो टोनही (जादूगरनी) है! बताओ आँखों का खेल देखो उसे तो जादूगरनी दिख जाती है अन्धविश्वास मेंI असल में हाँ ये अन्धविश्वास ही है जो हम खुद एक दुसरे को मोतियाबिंद की तरह बाँट रहे हैं, फिर उसी से अंधे होकर एक दुसरे का गला काट रहे हैं, लड़ रहे हैं, बाट रहे हैं, समरसता सिर्फ नाम मात्र की रह गयी है, बचा है केवल अन्धविश्वास, केवल दिखावा, केवल अहम् की मैं ही हूँ सर्वशक्तिमान जातीय पुरुषI मैं ही हूँ जो पहचान करेगा असली व्यक्तिमात्र की जो इस संसार में रहने योग्य हैI बाकि सब तुछ्य प्राणी हमारी सेवा के लिए हैI
इतनी छोटी से धरती, जिसमे 75% पानी है, में कहाँ कहाँ भटको गे इतने अहंकार को एक दिन सब कुछ भस्म होके CARBON हो जायेगाI बेहतर है की एक इंसान बनो, जब MARS में रहेंगे तब कौन सी जात वाला पहले जायेगा इस आधार पर चयन नहीं होगा परन्तु इंसानियत और योग्यता ही पैमाना है अच्छे जीवन का, प्यार का, समरसता का, एकता का, आत्मसुख काI