भारत की आजादी के बाद भाषिक आधार पर राज्यों का गठन किसी से छिपा नहीं है। भारत की मिट्टी में सांस्कृतिक वैविध्य कूट-कूट कर भरा है और संस्कृति भाषा से जुड़ी है इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता। जब राज्यों का गठन किया जा रहा था तो सबसे तीव्र आंदोलन उस समय मद्रास राज्य के तेलुगू भाषियों ने किया। अलग तेलुगू राज्य के गठन के लिए गांधीवादी नेता पोट्टी श्रीरामुलू आमरण अनशन पर बैठ गए, ये आंदोलन 50 दिन से ज़्यादा चला और अंततः उनका स्वर्गवास हो गया लेकिन उसके बाद भड़के आंदोलन के दबाव में मद्रास से भाषाई आधार पर तोड़कर जिस राज्य का गठन किया गया वह आंध्र प्रदेश कहलाया।
भारतीय राज्यों के भाषिक आधार पर पुनर्गठन की कहानी सर्वविदित है। लेकिन एक बात गौर करने लायक है कि यूरोप, धार्मिक और सांस्कृतिक तौर पर एक होने के बावजूद सिर्फ़ भाषिक आधार पर अलग-अलग देशों में बँट गया था। यह बात हमारे नेताओं ने बहुत अच्छे तरीके से जान ली थी कि जो यूरोप एक ही धर्म को मानने वालों का देश था वह बस इसलिए टूट गया क्योंकि वहां के क्षत्रपों की भाषाऍं अलग-अलग थीं। इसलिए भारत के संविधान में राजभाषा का प्रावधान किया गया था किंतु आज छ: दशकों के बाद भी संविधान में प्रावधानित किए गए नियमों का अनुपालन नहीं हो पाया क्योंकि उस समय भी विरोध मुखर था और आज भी मुखर है। संविधान सभा ने राजकाज की भाषा के तौर पर 15 साल के लिए अंग्रेज़ी को मान्यता दी थी जो ग़ैर हिंदीभाषी राज्यों के विरोध की वजह से अब तक बनी हुई है। इस विरोध के बल पर अनेको राजनैतिक पार्टियों ने अपनी रोटियां सेककर सत्ता तक पहुँच बनाई, यह सब जानते हैं। आज फिर यह राजनैतिक पार्टियां मौका तलाश रही हैं।
जरा गौर कीजिए कि भारत में तो न जाने कितने धर्म, संस्कृतियॉं और भाषाओं-बोलियों का निवास हैं क्या हम धीरे-धीरे भाषा और धर्म के मुद्दों पर विभाजनकारी नीतियों की ओर अग्रसर हो रहे हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि जब भारत में भाषायी आधार पर राज्यों का गठन किया जा रहा था ठीक उसी समय धर्म के आधार पर भारत से विभाजित होकर एक नया देश बन गया। और यह नया-नया बना देश फिर दो टुकड़ों में टूट गया क्योंकि पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान की भाषाऍं अलग-अलग थीं जो नया देश बना वह भाषा के नाम पर बंग्लादेश कहलाया।
जब अप्रैल 2017 में राजभाषा संसदीय समिति की सिफारिशों पर राष्ट्रपति जी ने हस्ताक्षर किए थे उस समय भी यह जिन बोतल से बाहर निकला और ट्विटर एवं टीवी पर डीबेट की जाने लगीं। इन दिनों अब एक नए विवाद ने जन्म ले लिया है। गौरतलब है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा 31 मई, 2019 को केंद्रीय मंत्रिमंडल के सामने पेश किया गया था। इस मसौदे में ड्राफ्ट राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने हिंदी और अंग्रेजी को एक भारतीय क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ ‘स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने’ के लिए अनिवार्य करने की सिफारिश की थी।
मसौदा मानव संसाधन मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर भी अपलोड करने के बाद, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसे पढ़ने और विश्लेषण करने का अनुरोध किया था। हालांकि मसौदा पेश किए जाने के तुरंत बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी भाषा को लेकर बहस छिड़ गई और प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र को लेकर विवाद गहरा गया। गौर करने लायक है कि नई शिक्षा नीति पर काम वर्ष 2015 में शुरू हो गया था जब सत्ता में पहली बार आई मोदी सरकार ने इसे अपने एजेंडे में प्रमुखता से शामिल किया था। कितनी अजीब बात है कि इसरो के पूर्व अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन जो दक्षिण के राज्य से हैं उनके नेतृत्व में तैयार हुई इस नई शिक्षा नीति के मसौदे का विरोध भारत के दक्षिणी राज्यों की ओर से ही प्रमुखता से हो रहा है।
यहॉं यह जान लेना आवश्यक होगा कि त्रिभाषा सूत्र है क्या बला..? त्रिभाषा सूत्र के बारे में संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है। सन् 1956 में अखिल भारतीय शिक्षा परिषद् ने इसे मूल रूप में अपनी संस्तुति के रूप में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में रखा था और मुख्यमंत्रियों ने इसका अनुमोदन भी कर दिया था। 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसका समर्थन किया गया था और सन् 1968 में ही पुन: अनुमोदित कर दिया गया था। सन् 1992 में संसद ने इसके कार्यान्वयन की संस्तुति कर दी थी। इस नीति के तहत हिंदी से इतर भाषा वाले राज्यों में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढाया जाना था और हिंदी भाषी राज्यों में भारत कि किसी भी एक भाषा को तीसरी भाषा के रूप में पढाया जाना था।
मगर इसमें एक पैच था, वह यह कि यह संस्तुति राज्यों के लिए बाध्यता मूलक नहीं थी क्योंकि शिक्षा राज्यों का विषय है। ग़ैर हिंदी भाषी प्रदेशों के छात्रों ने अंग्रेज़ी और अपनी मातृ भाषा के साथ हिंदी, तमिल, तेलुगू, मराठी और कहीं बांग्ला पढ़ी, लेकिन हिंदी भाषी प्रदेशों के छात्रों ने संस्कृत को अपनी तीसरी भाषा बना लिया जो देश के किसी भी हिस्से में प्रमुखता से बोली नहीं जाती। यहॉं तक केंद्रीय विद्यालय जैसे संगठनों के छात्रों ने दक्षिण भारतीय भाषाओं के बजाए विदेशी भाषा को तीसरी भाषा के रूप में पढा। निस्संदेह पुरातन संस्कृत और फ्रेंच जैसी विदेशी भाषाओं को त्रिभाषा फार्मूले में फिट कर हिंदी भाषी प्रदेशों ने ग़ैर हिंदी भाषी प्रदेशों से अपनी जो दूरी बढ़ाई, उसे कम करने के आसार निकट भविष्य में तो दिखायी नहीं देते।
कोई भी हिंदी प्रेमी या राज्य भाषा प्रेमी दबी जुबान में इस बात को जरूर स्वीकार कर लेगा कि हिंदी ने मगधी, मैथिली, भोजपुरी, मारवाड़ी, हरीयाणवी और पंजाबी सरीखी बोलियों और भाषाओं को हासिये पर ला दिया है। आज बच्चे स्कूलों में अंग्रेज़ी और घरों में हिंदी बोलते हैं। मान लो कुछ लोग अपनी बोली बोल भी लेते हैं तो उन्हें अपनी क्षेत्रीय भाषा लिखनी नहीं आती। हिंदी पट्टी के राज्यों और दक्षिण भारतीय राज्यों, उत्तर-पूर्व के राज्यों के बच्चे ठीक से अपनी भाषा न बोल पाते हैं न लिख पाते हैं क्योंकि उन्हें बचपन से हीं अंग्रेजी में बोलना और पढना सिखाया जा रहा है। यानी अंग्रेज़ी ने हिंदी को बेदख़ल कर दिया है और हिंदी ने देशी बोलियों को। आज जो हिंदी आपको दिख रही है वह केवल बाजार के कारण दिख रही है। हिंदी आज बाजार की भाषा बन कर रह गई है लेकिन शिक्षा और कार्यालयीन भाषा में वह लगातार पिछड़ती जा रही है। इस क्षेत्र में न केवल हिंदी बल्की क्षेत्रीय भाषाऍं भी पिछड़ रही है क्योंकि अब राजकाज की भाषा अंग्रेजी होती जा रही है।
प्रश्न यह है कि क्या भारत गणराज्य और इसके राज्यों को हमेशा-हमेशा के लिए अंग्रेज़ी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के साथ जीना सीख लेना चाहिए। सच तो यह है कि न हिंदी से खतरा है न क्षेत्रीय भाषाओं से, अब हिंदी और तमिल समेत सभी भारतीय भाषाओं को अंग्रेज़ी के साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ मिल कर लड़ने की ज़रूरत है। क्योंकि यदि हम इसी तरह भाषाई मामलों पर तल्खी लाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब भारत के हालात भी यूरोप जैसे हो जाए। इसलिए एक स्थायी देश के निर्माण के लिए समाजवाद और राष्ट्रवाद दोनों जरूरी हैं, भाषाई विवाद नहीं।
–डॉ. ललित सिंह राजपुरोहित