‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ के दर्शन में विश्वास रखने वाले देश में पाश्चात्य समाज की मूल उपज नारीवादी आंदोलन कितना प्रासंगिक है यह इस बात पर निर्भर करता है कि- हम अपनी संस्कृति की मूल शिक्षाओं से कितना विचलित हुए हैं। समानता का नारा देकर नारी को पुरुष के स्तर पर लाने का प्रयास इस देश में वैसे ही है जैसे बड़ी लकीर को मिटाकर छोटी के बराबर कर देना। ऐसा कोई सामाजिक-धार्मिक अनुष्ठान नहीं है जिसे बिना नारी की उपस्थिति के संपूर्ण मान लिया जाए। प्रकृति रूप में वह सदैव पूजनीया रही है। विश्व में केवल भारत ही ऐसा समाज है जो अपने देश को भी माता के रूप में देखता है। उत्कट राष्ट्रभक्ति का पर्याय जापान में भी जापानमाता जैसी कोई अवधारणा नहीं है। माता के वात्सल्य का अनुभव दुग्धपान से ही किया जा सकता है इसीलिए हमारे यहाँ संसाधनों के दोहन की अवधारणा रही है न कि शोषण की।
सैमुएल पी. हंटिंगटन कहते हैं कि- आजकल जो भी विश्व-रंगमंच पर दिखाई दे रहा है वह सभ्यताओं के टकराव का परिणाम है। सीधे तौर पर समझा जाए तो यह विश्व के दो प्रमुख सेमेटिक रिलिजन के बीच आपसी वर्चस्व की लड़ाई है जिसने आतंकवाद जैसी समस्या दुनिया को दी है। किसी संप्रदाय के धार्मिक विश्वास को लक्ष्य करना मेरा उद्देश्य नहीं है परंतु नारीवाद के पक्षकार क्या ये पूछने का साहस करेंगे कि- दोनों ही सम्प्रदायों की धार्मिक आस्थाओं में नारी का क्या स्थान है? क्यों आधी जनसंख्या को पुरुषतत्त्व ईश्वर के समक्ष झुकने को विवश किया जाए? उसे अपनी लैंगिक चेतना के अनुरूप नारीतत्त्व आराध्य चुनने की स्वतंत्रता क्यों न दी जाए? भारतीय मूल्यों और विश्वासों को हमेशा लक्ष्य बनाने वाले इस दुनिया के तथाकथित बुद्धिजीवी क्या अपने-अपने देश में धर्मसुधार की आवश्यकता महसूस नहीं करते? मुझे आश्चर्य नहीं है कि- क्यों नारीवाद की उत्पत्ति उसी जगत में हुई जहाँ इसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी। परंतु अभी तक यह आंदोलन वहाँ समस्याओं की मूल जड़ों पर प्रहार करने का साहस नहीं जुटा पाया है।
भारत में जहाँ नारी को स्वयंवर तक की स्वतंत्रता रही हो वहाँ स्वतंत्रता, समानता का नारा देना उसके महत्त्व को कमतर करने का ही दुस्साहस कहा जा सकता है। यहाँ तो ईश्वर को भी सर्वप्रथम ‘त्वमेव माता’ का सम्बोधन दिया जाता है। पौराणिक कथानकों का बखान कर नारी की वर्तमान स्थिति को दुर्लक्ष्य करना मेरा अभिप्राय कतई नहीं है। लेकिन किसी आंदोलन की आवश्यकता और अनिवार्यता में अंतर होता है। भारत में नारी की वर्तमान स्थिति और सामाजिक कुरीतियों के कारण खोजने हों तो ज्यादा दूर नहीं, मध्यकालीन इतिहास पर तीखी नजर डालिए। पर्दा प्रथा से लेकर भ्रूण हत्या तक की सारी बीमारियों की जड़ इसी कालखंड में नजर आएँगी। यही वह दौर था जब इस राष्ट्र का बाहरी सभ्यताओं से प्रत्यक्ष सामना हुआ।
क्रमणकारियों ने सर्वाधिक अत्याचार महिलाओं पर ही किए। नारी की सुंदरता जिनके लिए श्रद्धा नहीं भोग की वस्तु थी। कहना न होगा कि- इसी पाशविक नृशंसता के फलस्वरूप उस दौर के हमारे पराभूत समाज ने नारी की सामाजिक पहुँच का दायरा संकीर्ण किया तथा उसे चारदीवारी के बंधन में छुपाकर रखना सुरक्षित समझा। इस राष्ट्र का पौरुष अपनी श्रद्धा की रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध हुआ था। यहीं से समस्याओं की शुरुआत होती है तथा मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं कि- एक दिन इतिहास के निष्पक्ष लेखक इसे हमारे राष्ट्रजीवन की सबसे बड़ी पराजय के रूप में स्वीकार करने का साहस दिखाएँगे।
अभी हम स्वतन्त्र हैं तथा अपनी समस्याओं के उपचार की औषधि अपनी जलवायु के अनुरूप ही खोजें तो बेहतर होगा। स्थायी सी हो गई अपने वर्चस्व की स्थिति में पुरुष समाज आनंद महसूस करने लगा है। अपने आत्म-निरीक्षण का कष्ट वह उठाना नहीं चाहता। इतिहास पर आवरण डालकर अपने उच्च सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति वह उदासीन बने रहना चाहता है। वैश्विक षड्यंत्र भी इस समाज को अपने अतीत के गौरव में झाँकने की सम्भावना को हतोत्साहित करते हैं। समय आ गया है अगर हमने अपनी सोच नहीं बदली तो यह महान राष्ट्र फिर पराजय की कगार पर पहुँच जाएगा। नारी को उसका यथोचित सम्मान और स्वातंत्र्य यथाशीघ्र बिना किसी पूर्वाग्रहों के शुद्ध अंतःकरण से पुनः प्रदान करना होगा। इसी में भारतीय संस्कृति का गौरव और विश्व का कल्याण निहित है।
भूमंडल की समस्त नारीशक्ति को मेरा प्रणाम।
हैप्पी इंटरनेशनल वीमन्स डे।