अभी नरसों ही की बात है, हमने दोस्तों को कहा कि ‘चलो कहीं लटकटे हैं।’ तो वो सकपका गए। पूछने लगे कि कहीं हम बौरा तो नहीं गए हैं। ऐसी बात दोस्तों ने कही थी इसलिए हम भी हँस लिए, नहीं तो कबका हमें बौरा बोलने वाले का दाँत तोड़ दिए होते। खैर छोड़िए…
कल भी हम दोस्तों के साथ चौकड़ी जमाने का पूरा प्रायोजन वाट्सैप पर कर रहे थे। इसी प्रकरण में एक मित्र ने ‘स्वर टुकड़ी’ यानी हिन्दी में कहें तो आॅडियो क्लिप भेजी। हमनें उसको खेला यानी ‘प्ले’ करा तो मित्र की आवाज आई, “ब्रोज़ लेट्स हैंग आउट टुमॉरो! आई एंट गॉट टाइम टुडे।”
हम जवाब देने के लिए अभी फ़ोन पिटपिटाने ही रहे थे उतने में बाकी यारों ने हाँमी भर भी दी। हमें अपना आधा लिखा वाक्य मिटाना पड़ गया। दुर्भाग्यवश हमारी पिटपिटाने की गति बड़ी धीमी है। उसके बाद हमने कुछ देर और बकैती करी फिर पढ़ाई करने बैठ गए।
जब पढ़ कर उठे और थोड़ा सा टहलने लगे तब तक रात परवान चढ़ चुकी थी। और जैसा कि सभी जानते हैं कि रात दो बजे टहलने वालों को या तो शायराना विचार आते हैं नहीं तो दार्शनिक। वैसे तो हम नवाबों के शहर लखनऊ से हैं, लेकिन उर्दू के बड़े कम ही शब्द मालूम हैं इसलिए शायराना खयाल स्वतः ही हमसे दूरी बनाए रखते हैं। तो लाजमी है कि हम दार्शनिक बन चुके थे।
इसी दर्शन के सिलसिले में हमारा माथा ठनका, कि जब हमने सबसे हिन्दी में हैंग आउट करने की बात कही तो सब हम पर हँस दिए और हमको पागल भी घोषित कर दिए लेकिन जब उनने अंग्रेजी में लटकने के लिए कहा तो सब झट से राजी हो गए!
आम तौर पर तो कोई ऐसी ऐरी गैरी चीज़ों पे ध्यान भी न दे, पर हम ठहरे निशाचर दार्शनिक! हर फालतू बात पर गहरा दर्शन देना ही हमारे जीवन का एक मात्र मकसद है। और इसी मकसद की चेष्टा में हमें समझ आया कि हमारी हिन्दी ‘लॉफेबल’ और उनकी अंग्रेजी ‘ठंडी’ है। और ये भेद सिर्फ हमारे यारों दोस्तों तक ही सीमित नहीं है अपितु काफी व्यापक स्तर पर भी देखा जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर हिन्दुत्व तो कतई भर्त्सनीय है लेकिन ‘हिन्दूइज़्म्’ अति सराहनीय। यहां तक कि ‘हिन्दूइज़्म्’ हिन्दुत्व से कितना श्रेष्ठ है ये बताने के लिए पूरी पूरी किताबें लिख दी गईं हैं। एक किताब के लेखक ने अदालत में शपथ ले रखी थी कि वो हिन्दू नहीं हैं और उन्होंने ही अंग्रेजी किताब छपवा दी कि ‘[वो] हिन्दू क्यों हैं?’ शायद हिन्दी और अंग्रेजी के ‘हिन्दू’ भी अलग ही होते होंगे। यदि लेखक से कोई पूछे कि ‘हिन्दूइज़्म’ को हिन्दी में क्या कहते हैं तो जाने क्या जवाब देंगे! खैर, ये तो ऊंचे दर्जे की बात है और हम निम्न कोटि के व्यक्ति हैं। इन लेखक महाशय को निश्चय ही हमसे ज्यादा पता होगा जो इनकी किताब छपी। अवश्य ही हिन्दी का हिन्दू अति नीच हिन्दू होगा!
मगर बात सिर्फ ऐसे बड़े बड़े विषयों पर सीमित नहीं है। अब गालियों को ही ले लीजिए। हमें तो पिता जी ने संस्कार दिया की गाली देना बुरी बात है और हम भी कुछ समय पहले तक यही समझते थे। मगर पिता जी ने ये नहीं बताया कि केवल हिन्दी की गालियां बुरी होती हैं। अंग्रेजी गालियां तो आपको स्वतः ही ‘लिबरल’ बना देतीं हैं। उदाहरण स्वरुप ‘फ़क’ को ही ले लीजिए, जो इस जादुई शब्द का जितना ‘लिबरलता’ से प्रयोग करे वो उतना ही ‘मॉडर्न’ और ‘लिबरल’; जो न करे अथवा जिसे इस शब्द से खिन्नता का अनुभव वो ‘सच ए प्रूड’ (प्रूड प्रूडेंट का शॉर्ट है) यानी कि रूढ़िवादी करार दिया जाता है। बात और भी मजेदार तब हो जाती है जब आप हिन्दी में गरिया दें। फिर तो आप रूढ़िवादी मात्र के दर्जे से खट से खिसककर ‘इल बिहेव्ड हेटफुल फास्सिस्ट’ पर पहुंच जाते हैैं, भले ही आपने ‘फ़क’ का ही हिन्दी संस्करण बोला हो।
इसका मतलब यह है कि आपने जो भी बोला वो अगर गलत भाषा में बोल दिया जो उस बात का मोल कम तौला जाएगा। इस भाषाई भेद के और भी स्तर हैं। जैसे कि खूब भारी अंग्रेजी शब्द, जिनका किसी को अर्थ न पता हो, बोलिए और किसी को कुछ समझ न आए तो आप बड़े ज्ञानी विद्वान; मगर क्लिष्ठ हिन्दी में एक वाक्य कह कर देखिए, श्रोताओं की भृकुटी स्वयं ही तन जाएगी और नजर ऐसी कि आप कोई पाखंडी हों जो उनको मूर्ख बना रहा है!
ऐसा क्यों? मातृभाषा से सौतेला और जालिमों की भाषा से गर्लफ्रेंड सरीखा व्यवहार क्यों? जबकि अब हम एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं। हैं ना?
इस बात का हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। हम निशाचर दार्शनिक हैं; सिर्फ सवाल करते हैं। जवाब ढूंढ़ने लायक होते तो असली दार्शनिक बन जाते। यदि कोई पाठक चाहे तो अवश्य ही जवाब दे जाए।