दिल्ली नगर निगम के चुनावों की तारीखों का एलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. नगर निगम के चुनावों को “मिनी-विधान सभा चुनाव” भी माना जा सकता है. गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी विधान सभा चुनाव इसी साल होने हैं. हाल ही में पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में भाजपा ४ राज्यों में विजयी हुईं है. पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन को मिली हार की तुलना दिल्ली विधान सभा में भाजपा की हार से की जा सकती है, जहां कांग्रेस और केजरीवाल के “अघोषित गठबंधन” का फायदा केजरीवाल को मिला और उसी के बदले में पंजाब चुनावों में इसी “अघोषित गठबंधन” के तहत केजरीवाल ने पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनबाने में मदद की. यह सभी को मालूम है कि केजरीवाल ने पंजाब में अकाली-भाजपा के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगाई है. अगर केजरीवाल को मिले वोट प्रतिशत और अकाली-भाजपा गठबंधन के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाए तो वह इतना ज्यादा है कि अगर केजरीवाल पंजाब में नहीं लड़ रहे होते तो वहां अकाली भाजपा गठबंधन को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसी ही जीत मिलनी लगभग तय थी.
यह बात भी सच है कि अकाली-भाजपा गठबंधन की सरकार वहां पिछले १० सालों से कायम थी और वहां सरकार उस तरीके से नहीं चल रही थी, जिस तरह से भाजपा की सरकारें अन्य राज्यों में चल रही हैं. अगर पंजाब में सिर्फ भाजपा की सरकार चल रही होती, तो उसे किसी भी “अघोषित या घोषित गठबंधन” से हराना बेहद मुश्किल होता. हालांकि दिल्ली और पंजाब के बाद इस “अघोषित” गठबंधन की कलई भी जनता के सामने खुल चुकी है और दुबारा से जनता किसी ऐसे गठबंधन को कामयाब होने देगी, उसमे संदेह है.
दिल्ली नगर निगम के चुनाव हों या फिर गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव, इन सभी जगहों पर जिन राजनीतिक दलों की शिरकत होने की सम्भावना है, वे कांग्रेस, भाजपा और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ही है. इन सभी पार्टियों की चाल, चरित्र और चेहरा देश की जनता भली-भाँति जानती है. रही सही कसर देश का मीडिया और सोशल मीडिया पूरी कर देता है. चुनावों में हार जीत का आकलन राजनीतिक दलों की जनता में बन रही छवि पर निर्भर करता है और जनता के बीच में किसी भी राजनीतिक दाल की छवि उसके कामों से बनती है. हाल के ५ राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में जिन राजनीतिक दलों को करारी हार मिली है, उनकी हार का विश्लेषण मैं अपने पिछले लेख में कर चूका हूँ.
यहां यह बताना भी मैं जरूरी समझता हूँ कि अभी तक मैंने सिर्फ दो बार ही चुनावी आकलन किये हैं और दोनों ही बार वे शत प्रतिशत सच साबित हुए हैं. २ अप्रैल २०१४ को मैंने सबसे पहले यह ब्लॉग लिखा था, “रोक नहीं सकता अब कोई मोदी की सरकार”, और इसके बाद मई २०१४ में भारी बहुमत से केंद्र में भाजपा की सरकार बनी थी. इसी तरह १४ फरवरी २०१७ को सबसे पहले मैंने- “उत्तर प्रदेश में भाजपा की बम्पर जीत के संकेत” शीर्षक से ब्लॉग लिखा था, और उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे इस बात के साक्षी हैं, कि मेरा आकलन एकदम दुरुस्त था.
अब इस बात के विश्लेषण पर आते हैं कि आगामी दिल्ली नगर निगम, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भाजपा क्यों जीतेगी और बाकी पार्टियां क्यों हारेंगी. दरअसल देखा जाए तो २०१४ के बाद से ही किसी पार्टी की हार या जीत नहीं हो रही है- जीत उस विचारधारा की हो रही है, जिसे देश की जनता स्वीकार कर रही है. जो हारी हुई पार्टियां हैं, वह अपनी हार के लिए अपनी विचारधारा का कोई भी दोष नहीं मान रही हैं, अभी तक हारी हुई पार्टियों ने हार के जो कारण बताये हैं, उनमे से कुछ मुख्य कारण इस तरह से हैं :
१. पहला मुख्य कारण जो हारी हुई पार्टियों की तरफ से बताया गया, वह था: “EVM मशीनों में गड़बड़ी की वजह से हम हार गए”. इस हास्यास्पद और बचकाने बहाने से हारी हुई पार्टियों की छवि पहले से और ज्यादा ख़राब हुई है और इसका खामियाज़ा इन लोगों को आने वाले चुनावों में भी भुगतना पड़ सकता है.
२. हारने का दूसरा मुख्य कारण कांग्रेस पार्टी के नेता देते दिखाई दे रहे हैं. उनका कहना है क़ि पार्टी में अब नेतृत्व परिवर्तन होना चाहिए. राहुल, प्रियंका और सोनिया गाँधी जैसे “करिश्माई” नेताओं को पहले ही आज़माया जा चुका है. बाकी के और कौन-कौन से “करिश्माई” नेता कांग्रेस पार्टी में और बचे हुए हैं, उन्हें भी देश क़ी जनता बखूबी जानती है. राहुल गाँधी पहले ही कई बार यह बात बोल चुके हैं क़ि भाजपा के साथ उनकी पार्टी की विचारधारा की लड़ाई है. इसका मतलब यह हुआ क़ि कांग्रेस पार्टी अपनी विचारधारा में कोई बदलाव करने के लिए तैयार नहीं है. कांग्रेस की विचारधारा “देश को जाति-पाति-धर्म-संप्रदाय में बांटकर तुष्टिकरण के जरिये ध्रुवीकरण” की रही है, जिसे देश की जनता पूरी तरह से नकार चुकी है. खुद केजरीवाल की पार्टी भी कांग्रेस पार्टी के दिखाए गए रास्ते पर न सिर्फ चल रही है, बल्कि इस समय यह होड़ लगी हुई है कि कांग्रेस पार्टी की इस विचारधारा को आगॆ ले जाने में बाज़ी कांग्रेस मारेगी या फिर केजरीवाल की आम आदमी पार्टी. जब एक गलत विचारधारा को पल्लवित-पोषित करने के लिए राजनीतिक पार्टियों में प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाए, तो नतीजे का अंदाज़ा लगाना बिलकुल मुश्किल नहीं होता है.
अब ऐसे हालातों में पाठक खुद ही तय करें कि दिल्ली नगर निगम के चुनाव हों या फिर गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव, भाजपा को यह पार्टियां कैसे हरा सकती हैं ?