मुलायम सिंह के देहावसान के बाद की उत्तर प्रदेश की राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ राजनीति करने वाले नेताओं का एक युग समाप्त हो गया है। मुलायम सिंह यादव के समकालीन सभी बड़े नेता मान्यवर कांशीराम कल्याण सिंह चौधरी अजीत सिंह पूर्व में ही स्वर्गधाम निवास कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव ने सदैव राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन किया। दूसरों को भी उन मूल्यों का पालन करने हेतु प्रेरित किया। वे सदा मुद्दों की राजनीति व मुद्दों व विचारधारा का विरोध करते थे, किसी का व्यक्तिगत विरोध नहीं।
आज के समय में लोकतांत्रिक मूल्यों की यह राजनीतिक परिपाटी विलुप्त हो चुकी है। वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष में अगर आप मुखरता से किसी पार्टी या किसी नेता के मुद्दों अथवा उनकी विचारधारा का विरोध करोगे तो आपको राजनैतिक के साथ-साथ व्यक्तिगत दुश्मन समझ लिया जाएगा परंतु मुलायम सिंह व उनके समकालीन नेताओं की राजनीति में ऐसा नहीं था। जिनके आपको कई उदाहरण देखने को मिलेंगे। मुलायम व माननीय काशीराम धुर विरोधी होने के बाद भी गठबंधन करते हैं। 1993 में राम लहर के बावजूद मुलायम सिंह दूसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं। यह केवल उनके लोकतांत्रिक मूल्यों व विरोधियों का भी सम्मान के कारण ही मुमकिन हुआ कि जिन चौधरी अजीत सिंह को 1989 में उन्होंने डी पी यादव की सहायता से मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया उन दोनों के आपसी संबंध लगभग अच्छे रहे बीच में कुछ खटास जरूर भाई लेकिन बाद तक भी उनके बीच गठबंधन रहा। उत्तर प्रदेश की राजनीति से 4 रंगों की विदाई वह हो गई है काशीराम का नीला, कल्याण सिंह भगवा, चौधरी अजीत सिंह हरा मुलायम सिंह लाल।
प्रदेश की राजनीति से ये सभी रंग या यूं कहें अध्याय समाप्त हो चुका है। अभी उनके अगली पीढ़ी पर जिम्मेदारी आ चुकी है। मुलायम सिंह चौधरी चरण सिंह व लोहिया के शिष्य रहे और सदैव अपनी स्पष्ट राजनीति के लिए जाने जाते थे उन्होंने हमेशा संप्रदायवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी चाहे उन्हें कितना ही राजनीतिक नुकसान क्यों न झेलना पड़े। चौधरी चरण सिंह के प्रति उनका सम्मान व भक्ति भाव सदा रहा।
चाहे मेरठ यूनिवर्सिटी का नाम चौधरी साहब के नाम पर करना हो या लखनऊ एयरपोर्ट का, अनेक परियोजनाओं का नाम चौधरी साहब के नाम से उन्होंने रखा, व स्वयं को सदा चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक वारिस के तौर पर प्रस्तुत किया। चौधरी चरण सिंह के देहांत के बाद पहले मुलायम सिंह बहुगुणा के साथ गए व फिर मुलायम के साथ गए, उनके राजनैतिक दाँव से सभी अचंभित थे जनता पार्टी चाहती थी कि अजित सिंह मुख्यमंत्री बने व मुलायम उनके डिप्टी, परंतु मुलायम नही माने वीपी सिंह के लाख मनाने के बावजूद भी वो अपने इरादे से नही हटे, चंद्रशेखर ने भी वीपी सिंह से बदला लेने के लिए मुलायम का समर्थन कर दिया ओर अपनी राजनैतिक चपलता के कारण गुप्तमतदान के बाद मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने।
मुलायम सिंह के जाने के बाद समाजवादी पार्टी की राजनीतिक चुनौतियां भी कम नहीं होंगी। सबसे पहली चुनौती उनकी सीट मैनपुरी में होगी जहां पर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को उपचुनाव से गुजरना होगा। यह उनके लिए इतना आसान नहीं होगा क्योंकि हाल ही के उपचुनाव में रामपुर, आजमगढ़ में जो समाजवादी पार्टी के गढ़ समझे जाते थे दोनों चुनाव में उनको हार का सामना करना पड़ा। मैनपुरी सीट पर अखिलेश यादव को पहली चुनौती मुख्य चुनौती चाचा शिवपाल को साथ रखने की भी होगी।
क्योंकि उनको नाराज करने का नतीजा 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव व रामगोपाल यादव देख चुके हैं, शिवपाल के कारण अक्षय यादव को भाजपा उम्मीदवार के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा था। अखिलेश किस तरह से शिवपाल के साथ समन्वय बैठा पाते हैं। यह देखने योग्य होगा क्योंकि अगर इस चुनाव में परिणाम पार्टी के विपरीत होते है तो अखिलेश के नेतृत्व पर सवाल उठने लाजमी है क्योंकि अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी लगातार दो लोकसभा 2014, 2019 व 2 विधानसभा 2017, 2022 हार चुकी है।
जहाँ 2024 लोकसभा चुनावो में डेढ़ वर्ष का ही समय बचा है, परंतु इस बार बिना बसपा गठबंधन के अखिलेश यादव अकेले चुनाव लड़ेंगे तो पिछली बार की अपेक्षा थोड़ा मुश्किल हो सकता है। क्योंकि मोदी सरकार को खिलाफ महंगाई के अलावा कोई मुद्दा उठाने में सभी विपक्षी पार्टियां असफल रही है, व महंगाई का मुद्दा भी इतने प्रभावी तरीके से कोई भी विपक्षी पार्टी नही उठा पाई है। अखिलेश यादव विधान सभा चुनाव से पहले चंद्रशेखर के साथ गठबंधन करना चाहते थे पर सीटों पर पेंच फसने के कारण कोई समझौता नही हो पाया।
इस बार बेहतर रहेगा कि वो चंद्रशेखर रावण जयंत चौधरी व कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव में जाएं, उन्हें फायदा ये होगा कि बसपा के बराबर कोई भी पार्टी सीट भी नही मांगेगी व समाजवादी पार्टी अधिक ज्यादा सीट पर चुनाव लड़ पाएगी। बसपा का वोट बैंक लगातार खिसक रहा है। गठबंधन के कारण लोकसभा में 10 सीट मिली थी वो विधानसभा में अकेले लड़ने पर 1 सीट रह गयी। इस कारण बसपा को पिछली बार की तरह बराबर सीट देने का कोई तुक नही बनता है। ये अखिलेश यादव व उनकी समाजवादी पार्टी के लिए चुनौती होगी कि वह किस प्रकार मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा पातें है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में चारों रंगों की गमगीन विदाई हो चुकी है। मुलायम सिंह यादव इन चारों रंगों के अंतिम प्रतीक के तौर पर याद किए जाएंगे। लाल रंग सदा उनके साथ रहा चाहे वह पार्टी का झंडा हो या उनकी टोपी ये रंग अंतिम समय तक उनके साथ बना रहा। मान्यवर कांशीराम सबसे पहले गोलोक वासी बने जिन्होंने अपना पूरा राजनीतिक जीवन दलितों को राजनीति में बेहतर स्थान मिले इस कोशिश में गुजार दिया।
उन्होंने नीले रंग को सदा महत्व दिया चाहे पार्टी का झंडा हो या पटका नीला रंग सदा उनके साथ रहा। कल्याण सिंह प्रदेश की राजनीति में लगभग दो दशक तक भगवा राजनीति के सूत्रधार रहे उन्होंने मंदिर आंदोलन का खुलेआम सहयोग किया व बाबरी मस्जिद विध्वंस भी उनके कार्यकाल में हुआ इस बात का कोई भी मलाल उन्हें नहीं था।
वह सदा उत्तर प्रदेश में भगवा राजनीति के लिए याद किए जाएंगे। वही चौधरी अजीत सिंह सदा किसानों की राजनीति करते रहे।हालांकि यह राजनीति विरासत में जरूर मिली थी परंतु उस समय राजनीति में आने के बाद पिता की मृत्यु व मुलायम सिंह और बहुगुणा द्वारा पार्टी में दो धड़े बना दिए थे जिस कारण वे कुछ कमजोर भी पड़ गए थे। हरा रंग सदैव उनके साथ रहा, पार्टी का झंडा हो चाहे टोपी या कोई भी पोस्टर बैनर सदैव उन्होंने हरे रंग को शामिल किया। पिछले वर्ष कोरोना के कारण उनका भी निधन हो चुका है, तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से आज इन चारों रंग का एक अध्याय समाप्त हो चुका है।