Saturday, July 27, 2024
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यह कन्हैयालाल नहीं भारत के विचार का कत्ल है

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Chandan Anand
Chandan Anand
PhD Student at Central University of Himachal Pradesh.

धनंजय कीर द्वारा लिखित डाॅ. आम्बेडकर की जीवनी में एक स्थान पर मतांतरण के विषय पर डाॅ. आम्बेडकर के विचारों को उद्धरित करते हुए वह कहा गया है, ‘‘यदि मैं इस्लाम या ईसाई मत को अपनाता हूं तो मेरे साथ वंचित वर्ग के लाखों लोग उस मार्ग को अपनाएंगे। इससे उनके आने वाली पीढ़ियां अराष्ट्रीय हो जाएंगी।’’ अभारतीय मजहब में मतांतरण से राष्ट्रांतरण होता है यह बात डाॅ. आम्बेडकर बहुत पहले कह चुके थे। इस राष्ट्रांतरण के फलस्वरूप अभारतीय मजहब या रीलिजन में मतांतरित हुई पीढ़ि की न केवल आस्था भारत से बाहर हो जाती है अपितु उसका विचार और व्यवहार भी भारतीय मूल्यों सा नहीं रहता। कुछ दिन पूर्व राजस्थान के उदयपुर में हुआ कन्हैयालाल का कत्ल उसी भारतीयता का कत्ल है जिसका डर डाॅ. आम्बेडकर को बहुत पहले से था।

वास्तव में भारत का विचार और इतिहास समृद्ध संवाद परंपरा और शास्त्रार्थ का रहा है। विश्व की तमाम बड़ी सभ्यताएं और उनका इतिहास जहां आज केवल संग्रहालयों व पुस्तकों में देखने को मिलता है, वहीं इसी संवाद परंपरा के चलते भारत की सभ्यता, सनातन संस्कृति और परंपराएं आज भी बनी हुई हैं। शास्त्रार्थ और संवाद की इस परंपरा के फलस्वरूप अनेकों दर्शन, सम्प्रदाय, मत और विचारों का यहां जन्म हुआ और परस्पर चलते भी रहे। भारत ‘एकं सद् विप्रा बहुदा वदंति’ के अपने विचार को चरितार्थ करता हुआ हर एक मत, पंथ, सम्प्रदार्य और दर्शन की बात को सुनने और उसपर हर प्रकार की चर्चा करने की स्वतंत्रता के साथ आगे बढ़ा। इसी कारण भारत में कभी एकरूप और जड़ समाज, परंपराएं और व्यवस्थाएं नहीं रही।

लेकिन 8वीं शताब्दी से भारत में शुरु हुए विदेशी आक्रमणों के साथ जो मजहब और विचार आक्रांताओं के साथ आए उनमें दूसरे की बात को सत्य मानना तो दूर उसे सुनना भी नागवारा था। यूरोप और इस्लामी देशों का इतिहास बताता है कि यह जड़ परम्पराओं और मजहबी अंधविश्वास में जकड़ी हुई सभ्यताएं रही हैं। इन अभारतीय विचारों और मजहबों के साथ यही स्थिति आज तक बनी हुई है। चूंकि जिन सभ्यताओं और क्षेत्र से यह मजहब और आक्रांता आए वहां संवाद की गुंजाईश और अपनी बात कहने की स्वतंत्रता न आज है न तब थी।

किसी नई बात को सुनने और मानने की सहिष्णुता इनमें कभी नहीं रही। 1893 में शिकागो में वर्लड रीलिजन सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द ने अपने प्रथम भाषण में भी यही बात कही थी कि हम सब कूएं के मैंढक की तरह अपने रीलिजन और विचार को ही सत्य मानते है, जबकि भारत का विचार एकं सद विप्र बहुदा वदंति का है। यानि सत्य एक है और उसको जानने के या उस तक पहुंचने के मार्ग अनेक हैं। यदि आपका मार्ग सही है तो मुझे भी अपने मार्ग से जाने की स्वतंत्रता है। जो बात स्वामी विवेकानंद ने उस समय समझाने का प्रयास किया था वह बात अभारतीय मजहबों और विचारों को न तब स्वीकार थी और न अब।

जितने भी अभारतीय मजहब, रीलिजन और विचार हैं उनके अनुसार उनके द्वारा कही गई बात ही अंतिम सत्य है। इसलिए या तो उनके मत को ही सत्य मानों अन्यथा कत्ल हो जाओ। अरब, तुर्क, मंगोल और यूरोपीय आक्रांताओं से लेकर आज तक अभारतीय विचारों को मानने वालों का व्यवहार और कार्यप्रणाली इसी प्रकार रही है। दूसरे विचार और मार्ग को मानने वाले के साथ बंधुभाव और प्रेम से रहना इन विचारों के लिए असम्भव सा है। अपनी पुस्तक थाॅटस आॅन पाकिस्तान में डाॅ. आम्बेडकर लिखते हैं, ‘‘इस्लाम का भ्रातृत्व भाव मानवता का भ्रातृत्व भाव नहीं है।

यह मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व भाव है। यह बन्धुत्व की बात करता है परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है। जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा और शत्रुता ही है। इस्लाम सामाजिक शासन की एक विशिष्ट पद्धति है और वह इस देश की शासन पद्धति से मेल नहीं खाती। मुसलमानों की निष्ठा जिस देश में वे रहते हैं उसके प्रति नहीं होती। उनकी निष्ठा उन मजहबी विश्वासों के प्रति होती है जिसका वह हिस्सा हैं। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत सोचना अत्यन्त कठिन है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन वहीं उनकी आस्था है।

दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बंधी मानने की अनुमति नहीं देता….वह देशभक्ति, लोकतंत्र या पंथनिरपेक्षता में विश्वास नहीं करता। वह बुद्धिवाद पर आधारित नहीं है। वह तर्क को स्वीकार नहीं करता। वह रूढ़ियों या परम्परा से चिपका हुआ जड़ हो गया है। गतिशीलता जो मानव प्रगति का मूल मंत्र है, वह इसका विरोधी है। यही कारण है कि किसी प्रकार के सुधार, विशेषकर महिलाओं की हालत, निकाह के नियम, तलाक, संपत्ति के हक के संबंध में बेहद पिछड़ा हुआ है।’’

लगभग कुछ इसी प्रकार की स्थिति सभी अभारतीय मजहबों और विचारधाराओं की है। यहां संवाद की गुंजाईश नहीं है, तर्क के लिए स्थान नहीं है, अपनी पुस्तकों, ऐतिहासिक विभूतियों, आराध्यों और विचारों का विशलेषण करने की स्वतंत्रता नहीं है और यही सब भारत नहीं है। भारत का अर्थ ही संवाद है, विशलेषण है, नयापन है, चर्चा है, अपने विचारों को तर्कों पर परखना है, दर्शनों पर शास्त्रार्थ करना है, हर एक की बात को सुनना और तर्कपूर्वक उसका उत्तर देना है। इसलिए जो भी मजहब या विचार यह कहता है कि मेरी कही गई बात ही अंतिम सत्य है, मेरा रास्ता ही सही है और इसपर किसी भी प्रकार की चर्चा और विश्लेषण की गुंजाईश नहीं है वह भारत विरोधी है। ऐसी घटनाओं के चलते कईं लोग भारतीयता, लोकतंत्र और स्वतंत्रता के खतरे की बात करते हैं।

वास्तव में लोकतंत्र और स्वतंत्रता ही तब तक है जब तक भारत का विचार है और भारतीयता का मूल ही संवाद की परंपरा और एकं सद् विपदा बहुदा वदंति का विचार है। अपनी बात और मार्ग को मनवाने के लिए दूसरों का कत्ल करने वाले भारतीयता के शत्रु हैं। भारतीयता और भारत को बचाने हेतु ‘शठे शाठयं समाचरेत’ की नीति को अपनाते हुए इनपर लगाम लगाना आवश्यक है। अन्यथा यह मजहब और विचारधाराएं किसी कन्हैयालाल नहीं अपितु भारत के विचार का कत्ल इसी प्रकार करते रहेंगे और भारत अपनी समृद्ध संवाद परंपरा को छोड़कर इस सभ्यताओं की तरह जड़ बन जाएगा।

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