पिछले महीने भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने भारत के अगले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा की। मूलतः ओडिशा के एक साधारण आदिवासी परिवार से आने वाली द्रौपदी मुर्मू अगर यह चुनाव जीत जाती हैं, तो वे इस देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बनेंगी।
उनके गृह राज्य ओडिशा की सत्ताधारी बीजद, मायावती की बसपा, पंजाब के शिरोमणि अकाली दल तथा जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस के समर्थन के बाद, उनकी जीत महज औपचारिकता ही रह गई है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि झारखंड की सत्ताधारी झामुमो भी, आदिवासी उम्मीदवार के नाम पर उनका समर्थन कर सकती है। भाजपा तथा एनडीए की अन्य पार्टियाँ उनके बहाने कांग्रेस को घेरने की कोशिश में लगी हुई हैं, जिसने हमेशा आदिवासी समाज से वोट तो लिया, लेकिन उनके नुमाइंदों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया।
लेकिन क्या द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनवाने के पीछे सिर्फ यही मकसद है? सच तो यह है कि भाजपा द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी के सहारे देश भर के आदिवासी वोट बैंक को साधने की कोशिश में लगी हुई है। अगर राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो देश में अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.9% (10 करोड़ से ज्यादा) है तथा उनके लिए 47 लोकसभा और 487 विधानसभा सीटें रिजर्व हैं।
कुछ महीनों बाद, गुजरात में चुनाव होने वाले हैं। गुजरात में करीब 15% आबादी आदिवासियों की है तथा उनके लिए 26 सीटें रिजर्व हैं। इसके अलावा तकरीबन 35 से 40 सीटों पर आदिवासी वोटर असरदार हैं। कुछ समय पहले तक, इन सीटों पर कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था। तो कहीं ना कहीं, राष्ट्रपति पद पर एक आदिवासी महिला का होना, भाजपा के लिए खासा लाभदायक साबित हो सकता है।
लेकिन पिछले ढाई दशकों से गुजरात की सत्ता पर काबिज भाजपा का लक्ष्य शायद इस से कहीं आगे है। इस साल पहले पंजाब और दो दिन पहले महाराष्ट्र की सत्ता गंवा चुकी कांग्रेस अब राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में ही सत्ता में बची है। इनमें से छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्य है तो वहीं राजस्थान में भी कई सीटों पर आदिवासी वोटरों का बोलबाला है। ज्ञात हो कि दो सौ विधानसभा सीटों वाले राजस्थान में 25 ऐसी विधानसभा सीटें हैं जो एसटी वर्ग के लिए आरक्षित की गई हैं, इसके अलावा पिछले चुनावों के दौरान 8 गैर आरक्षित सीटों पर भी एसटी वर्ग के विधायकों ने जीत हासिल की थी। कुल मिलाकर, राजस्थान में तकरीबन 40 सीटें ऐसी हैं जहां आदिवासी वोटर चुनावों में अहम रोल निभाते हैं। हालांकि राजस्थान में अधिकांशतः आदिवासियों को कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक ही माना जाता रहा है, लेकिन माना जा रहा है कि देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति के चुने जाने के बाद हवा का रूख बदल सकता है।
दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ की 90 में से 29 सीटें आदिवासी बहुल इलाकों से हैं, जो उनके लिए आरक्षित हैं। यहाँ आदिवासी वोटरों के सहारे भाजपा 15 सालों तक सत्ता में बनी रही, लेकिन 2018 के चुनावों में आदिवासियों के लिए सुरक्षित 29 सीटों में से भाजपा को महज तीन सीटें मिली थी। इन चुनावों में, इनमें से 25 सीटें जीत कर कांग्रेस सत्ता में आ गई।
राजस्थान और छत्तीसगढ़ के अलावा अगले साल भाजपा द्वारा शासित मध्य प्रदेश में भी चुनाव होने को हैं, जहाँ मतदाताओं में 21.5 प्रतिशत आदिवासी आबादी है और 15.6 प्रतिशत दलित हैं, लेकिन 2018 में इन समुदायों की बड़ी आबादी ने भाजपा को वोट नहीं दिया था। इस राज्य की 230 विधानसभा सीटों में से 87 विधानसभा सीटों पर आदिवासी वोटरों का सीधा असर है, जिनमें से 47 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा झारखंड भी एक आदिवासी बहुल राज्य है तथा यहाँ भाजपा का खासा दबदबा भी रहा है, तो निश्चित तौर पर, पार्टी को यहाँ भी इस कदम का फायदा मिलेगा।
भाजपा का मकसद राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से सत्ता हथियाना है, जिसके बाद वह सिर्फ झारखंड व तमिलनाडु सरीखे राज्यों में सत्ताधारी गठबंधन की जूनियर पार्टनर ही रह जाएगी।
अगर भाजपा यह करने में सफल हो पाई, तो यह प्रधानमंत्री मोदी के “कांग्रेस-मुक्त भारत” के सपने के साकार होने जैसा होगा। उसके बाद, अगले एकाध दशक तक, शायद भाजपा को चुनौती देने वाला राष्ट्रीय-स्तर का कोई दल नहीं बचेगा।