भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन 28 दिसम्बर 1885 को एलान ऑक्टविअन ह्यूम द्वारा किया गया था। इस पार्टी का मुख्य काम अंग्रेजी हुकूमत और भारतीय जनता के बीच की दूरियों को कम करना था। ह्यूम का मुख्य काम यही था कि भारतीयों को इस बात का विश्वास दिलाना की अँग्रेजी हुकूमत के अलावा कोई भी उनके हित की बात नहीं सोच सकता।
कांग्रेस जहाँ एक तरफ जनता को अंग्रेजी हुकूमत के कड़े कायदे कानूनों को आसान करके समझा रही थी, वहीं दूसरी तरफ वो अंग्रेजी हुकूमत से जनता के प्रति नरम रुख अपनाने के लिए कह रही थी। अंग्रेजी हुकूमत की लूटपाट को अन्य तरिके और विचारों से सही समझाने का काम कांग्रेस कर रही थी।
कांग्रेस के गठन का मुख्य लक्ष्य सही जा रहा था कि तभी मोहनदास गांधी की अफ्रीका से वापसी हुई। गांधी जी के नेतृत्व में भारत की स्वतंत्रता की मांग ने जोर पकड़ा। चंपारण, नमक कानून, भारत छोड़ो आंदोलन से होते हुए अंततः 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर भारत का तिरंगा झंडा लहरा उठा।
स्वतंत्रता के बाद भी शासन का रंग-रूप लगभग-लगभग वही था, बस माई-बाप कहलानेवालों के चेहरे बदल गए। कोई अब ‘हम टुम से डो गुना लगान लेगा’ कहनेवाला नहीं बचा था। अंग्रेजी शासन के दौरान जिन अंग्रेजों के पास भारत मे व्यापार करने का लाइसेंस था उन्हें धीरे-धीरे कांग्रेस मित्रों को सौंप दिया गया और यहीं से लाइसेंस राज और वंशवाद का दौर आरम्भ हुआ।
नए शासक “राज” के द्वारपाल बन गए। स्वतंत्रता के बाद एक नई स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। 1950-1960 के दौर में कई नए संस्थान बने, जिससे भारतीय लोगों के सपनों को एक नई दिशा भी मिली। भारत एक ऐसा देश बनकर उभरा, जिससे और कॉलोनी के देश प्रेरणा ले सकते थे।
1970 के दशक में जनता को इस बात का अहसास होने लगा कि जिस आजादी के लिए लड़ाई लड़ी गई थी, वह तो दूर – दूर तक नहीं दिख रही है। भ्र्ष्टाचार और वंशवाद बबूल के पेड़ की जड़ों की तरह पनप चुका है। यहीं से “एंग्री यंग मैन” का जन्म हुआ जो सरकार से लोहा लेने के लिए तैयार था। राजनैतिक दल सुचारू शासन करने में नाकाबिल साबित हो रहा था और क्षेत्रीय पार्टी धीरे – धीरे अपना वजूद बना रहीं थीं। कांग्रेस के दिखाने वाले दांत अब अपना रंग खोने लगे थे।
2014 के चुनावों के बाद से कांग्रेस का पतन तेजी से हुआ लेकिन इस पतन की शुरुआत बहुत पहले ही 1975 में हो चुकी थी। अब कांग्रेस एक ब्रैंड के रूप में “थकान” अंतिम स्टेज पर है और इसका सबसे बड़ा कारण 1950 के बाद से कांग्रेस की नीतियों में हुए ‘शून्य’ बदलाव हैं। कांग्रेस के कई गुणधर्मों को अन्य पार्टियों ने अपना मूल मंत्र बना लिया। कांग्रेस को आज भी यही लग रहा है कि उनका मतदाता, वही गांव का गरीब है लेकिन कांग्रेस यह भूल गई गरीब और गरीबी दोनों है लेकिन गरीबों के सपने बदल गए हैं।
कांग्रेस की वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या, उनका नेतृत्व है। पार्टी के बड़े नेता रेत को हाथ से फिसलता देख रहें हैं लेकिन वो अपने स्वार्थ-लाभ के चलते, पार्टी के नेतृत्व में कोई परिवतर्न नहीं करना चाहते हैं। गांधी ब्रैंड धराशाही हो चुका है लेकिन उसे खूँटे पर टांगकर, अभी भी पार्टी को जीवन देने की कोशिश की जा रही है। आज की कांग्रेस, नोकिया के उस ब्रैंड की तरह हो गई है, जिसने हठ के चलते अपना वजूद ही खो दिया।
अंग्रेज 1947 में भारत से चले गए। अब देर सबेर उनकी अंतिम मैनेजिंग एजेंसी भी बोरिया – बिस्तरा समेट ही लेगी।
नोट: अविक चट्टोपाध्याय की पोस्ट का अनुवाद, लेखक की पूर्व अनुमति के साथ।