Background (पृष्ठभूमी)
अंग्रेजो के शासनकाल मे भारतवर्ष की आजादी के लिये सन १८५७ई. मे वीर क्रांतिकारीयो द्वारा किये गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजो को पहली बार हिंदुस्तान के जनमानस व सैनिको के सामूहिक क्रोध व असंतोष का सामना करना पड़ा।
परमवीर स्वर्गीय वीर_दामोदर_सावरकर द्वारा लिपिबद्ध किये गये इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को पढ़ने से प्रथम दृष्टया ये आभास हो जाता है कि इससे अंग्रेजो के साम्राज्य की चूले हिल गयी थी, वो बूरी तरह से घबरा गये थे। इस सैनिक व जनता के मिलेजुले राष्ट्रिय आंदोलन ने हर हिंदुस्तानी के हृदय मे अपने देश के स्वतंत्रता का बीज बो दीया था और वो किसी भी किमत पर आजादी चाहते थे। अंग्रेजो को जानमाल का काफी नुकसान हुवा था और सच पूछे तो इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भारत मे बैठे अंग्रेज व ब्रिटेन मे बैठा इनका राजतंत्र बूरी तरह घबरा गया था।
अंग्रेजो ने आंदोलन को बूरी तरह कुचलने के तुरंत बाद इसके पिछे के कारणो को जानने और तत्कालीन वर्तमान स्थिती के बारे मे जानने के लिये एक गोपनीय अनुसंधान (Investigation) कराया। सात खण्डो वाली एक ‘गोपनीय रिपोर्ट’ तैयार की गयी। १९१३ मे प्रकाशित हुयी “ए. ओ.ह्युम” की जिवनी मे इस सात खण्डो वाली गोपनीय रिपोर्ट का विस्तृत चर्चा की गयी, जिसे A.O.Hume को १८७८ ई.मे शिमला प्रवास के दौरान पढ़ने और विचार कर कुछ समाधान निकालने का आदेश मिला था।
इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद फिरंगीयों (अंग्रेजों) को पक्का यकिन हो गया था भारत में ‘असंतोष उबल रहा है।’ और तत्कालीन अग्रेज सरकार के खिलाफ एक बड़ी साजिश रची जा रही है। निचले तबके लोग ब्रिटिश शासन को सशस्त्र क्रांति के द्वारा उखाड़ फेकने वाले है। इसके पहले १८५७ ई. का जब विद्रोह हुआ था उसमें भारतीय राजाओं नवावो, तालुकेदारो, जमीदारो का नेतृत्व था। लेकिन यह विद्रोह जो पनप रहा था। उसमें समाज का अंतिम व्यक्ति सशस्त्र आन्दोलन कि तैयारी में जुट गया था।
१८५७ की क्रान्ति के विफलता के बाद भारतीय जनता व सैनिको में पनपते- बढ़ते असंतोष को हिंसा के ज्वालामुखी के रूप में बदलने और किसी भी समय फूटने से रोकने और असंतोष की वाष्प’ को दिशाहीन करने और क्रोध को शांत करने हेतु उस समय के मौजूदा वाइसराय लॉर्ड डफरिन के निर्देश, मार्गदर्शन और सलाह पर अवकाश प्राप्त आई.सी.एस. अधिकारी स्कॉटलैंड निवासी ऐलन ओक्टोवियन ह्यूम (ए.ओ.ह्यूम) और उनके ७२ साथियों ने २८ दिसम्बर, १८८५ ′ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। ईसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के लिये एक ‘सुरछाकवच’ के रूप मे कार्य करना था।
पंजाब केशरी व महान क्रांतिकारी स्वं लाला लाजपतरायजी ने यंग ईंडीया मे छपे अपने एक लेख में लिखा था कि ”कांग्रेस लॉर्ड डफरिन के दिमांग की उपज है।” इसके बाद अपनी बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लिखा था कि, ”कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य राजनीतिक आजादी हासिल करने से कही ज्यादा यह था कि उस समय ब्रिटिश साम्राज्य पर आसन्न खतरो से उसे बचाया जा सकें। यही नही उदारवादी सी. एफ. एड्रूज और गिरजा मुखर्जी ने भी १९३८ मे प्रकाशित ‘भारत में कांग्रेस का उदय और विकास’ में ‘सुरक्षा कवच’ की बात पूरी तरह स्वीकार की थी।
१९३९ई में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संचालक एम. एस. गोलवलकर ने भी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के कारण उसे गैर- राष्ट्रवादी ठहराने के लिए ‘सुरक्षा कवच’ की इस परिकल्पना का इस्तेमाल किया था। उन्होंने अपने परचे ‘वी’ (हम) में कहा था कि हिन्दू राष्ट्रीय चेतना को उन लोगो ने तबाह कर दिया जो ‘राष्ट्रवादी होने का दावा करते है। गोलवलकर के अनुसार, “उस समय ‘उबल रहे राष्ट्रवाद’ के खिलाफ ‘सुरक्षा कवच’ के तौर पर कांग्रेस की स्थापना की गई थी।”
राष्ट्रवादी नेतावो का मानना था कि:-
ए. ओ. ह्यूम और दूसरे अंग्रेज उदारवादियों ने कांग्रेस का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार के ‘सुरक्षा कवच’ के तौर पर करना भी चाहा हो, तो भी ये लोग कांग्रेस के लिए ‘तड़ित चालाक’ जैसे काम करेंगे और आन्दोलन पर गिरने वाली सरकारी दमन की बिजली से उसे बचा लेगे और जैसा कि बाद के हालात गवाह है, इस मामलों में राष्ट्रवादी नेतावो का अंदाजा और उम्मीदें सही निकली।
निष्कर्ष:-
आरंभिक दिनो मे इस पार्टी का उद्देश्य ब्रिटेन से भारत की आजादी की लड़ाई लड़ना नहीं था। कांग्रेस का गठन देश के प्रबुद्ध लोगों को एक मंच पर साथ लाने के उद्देश्य से किया गया था ताकि देश के लोगों के लिए नीतियों के निर्माण में मदद मिल सके। क्रांतिकारीयों के गतिविधियों का पता लगाया जा सके और उनके आंदोलन को कूचला जा सके। थियोसॉफिल सोसायटी के १७ सदस्यों को साथ लेकर एओ ह्यूम ने पार्टी बनाई। इसका पहला अधिवेशन मुंबई में हुआ जिसकी अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की थी।
कांग्रेस का चरम व ढलान:-
1907 में काँग्रेस में दो दल बन चुके थे – गरम दल एवं नरम दल। गरम दल का नेतृत्व स्वतंत्रता सेनानी स्व. श्री बाल गंगाधर तिलक, स्व. श्री लाला लाजपत राय एवं स्व.श्री बिपिन चंद्र पाल (जिन्हें लाल-बाल-पाल भी कहा जाता है) कर रहे थे। नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता एवं दादा भाई नौरोजी कर रहे थे। गरम दल पूर्ण स्वराज की माँग कर रहा था परन्तु नरम दल ब्रिटिश राज में स्वशासन चाहता था। प्रथम विश्व युद्ध के छिड़ने के बाद सन् १९१६ की लखनऊ बैठक में दोनों दल फिर एक हो गये और होम रूल आंदोलन की शुरुआत हुई जिसके तहत ब्रिटिश राज में भारत के लिये अधिराजकिय पद (अर्थात डोमिनियन स्टेट्स) की माँग की गयी। १९१५ में गाँधी जी के भारत आगमन के साथ काँग्रेस में बहुत बड़ा बदलाव आया। १९१९ में जालियाँवाला बाग हत्याकांड के पश्चात गान्धी काँग्रेस के महासचिव बने। तत्पश्चात् राष्ट्रीय नेताओं की एक नयी पीढ़ी आयी जिसमें स्व. श्री सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, स्व. श्री डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, स्व. श्री महादेव देसाई एवं अमर स्वतंत्रता सेनानी और आज़ाद हिन्द सर्कार के प्रथम प्रधानमंत्री श्री सुभाष चंद्र बोस आदि शामिल थे।
महान सुभाष चंद्र बोस व गाँधीजी के विचारो मे द्वंद:-
सन १९२१ में भारत आते ही सुभाष चंद्र बोस ने गांधीजी से मुलाकात की और इसके बाद कांग्रेस में काम शुरू कर दिया था। यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए और कांग्रेस में उनका रुतबा भी काफी बढ़ गया। लेकिन, श्री सुभाष चन्द्र बोस, श्री बाल गंगाधर तिलक (गरम दल) के समर्थक थे जबकि गांधी श्री गोपाल कृष्ण गोखले (नरम) दल के। शुरूआती मतभेद यहीं से उभरने शुरू हुए। सन १९२७ में श्री सुभाष चंद्र बोस ने ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा दिया। यह पहला मौका था जब गांधी जी और उनके बीच के खराब संबंध सामने आए। सन १९२८ में इस नारे को कमजोर कर दिया गया। नरम-गरम दल के बीच दूरियां इसमें काफी बढ़ी। इसके बाद १९२९ में गांधी जी ने नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया।
ध्यान देने वाली बात ये है कि हिंदुस्तान रिपब्लिक सोशलिस्ट एसोषियेसन के जाबाज क्रांतिकारीयों जिसमे आजाद, बिस्मिल, अशफाक, भगत सिंह सुखदेव, बटुकेश्वर इत्यादी शामिल थे उन्होने भी “पूर्ण स्वराज्य” का नार बूलंद किया जिसकी गूज ब्रिटेन मे बैठे राजघराने के कानो मे भी पड़ने लगी और फिर १९४२ में बोस के इसी नारे को नए ढंग से पेश कर कांग्रेस ने देशभर में बड़ा आंदोलन छेड़ा था।
यादे रखें
दांडी मार्च :
सन 1930 में जब गांधी जी ने दांडी मार्च किया तो श्री सुभाष चंद्र बोस इसके समर्थन में आ गए जबकि जवाहर लाल नेहरू ने इसका विरोध किया था। नेहरू इस मार्च से डरे हुए थे जबकि बोस ने इसकी तुलना नेपोलियन के मार्च से करते हुए इसे ऐतिहासिक बताया। इसे लेकर दोनों नेताओं के बीच वैचारिक खटास को सभी लोगों ने साफ तौर पर महसूस किया था।
गोलमेज सम्मेलन 1931:
दूसरे गोल मेज सम्मेलन के बाद तो सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी से सीधे तौर पर सवालात किया। गांधी जी ने इस सम्मेलन में अल्पसंख्यक का मुद्दा उठाया था जबकि बोस का स्पष्ट मानना था कि यहां भारत की आजादी को लेकर बात होनी चाहिए थी। इस मुद्दे पर गांधी जी की वजह से नेहरू और बोस के बीच दूरियां बढ़नी शुरू हो गई थी। सन १९३८ ई. मे गाँधीजी व नेहरू के लाख विरोध के बाद भी श्री सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के अध्यछ पद का चुनाव जित लिया जो गाँधी जी को कत्तई नही भाया और उनके आह्वान पर तत्कालिन कांग्रेसीयों ने अपने स्तिफे देकर सुभाष चंद्र बोस को काम ही नही करने दिया।
सन 1939 मे कांग्रेस के अध्यछ पद का चुनाव:-
गाँधीजी, सुभाष चंद्र बोस जी के गरम दल वाली नीतियों के विरूद्ध थे अत: वो कभी नही चाहते थे कि कांग्रेस का अध्यछ कोई गरम दल वाला बनें अत: जब सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के अध्यछ पद का चुनाव लड़ने की ठानी तो पहले गाँधी जी ने उन्हें उम्मिदवार ना बनने के लिये कहा और फिर अपने शागिर्द पट्टाभी सितारमैया को अपना उम्मिदवार बनाके सुभाष चंद्र बोस को सामने खड़ा कर दिया। कांग्रेस मे सुभाष बाबू का रुतबा ईसी से पता चल जाता है कि गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाष बाबू ने पट्टाभी सितारमैया को भारी अंतर से पराजित कर अध्यछ पद का चुनाव जित लिया!
गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैया की हार को अपनी व्यक्तिगत हार मानी और एक बार फिर अपने अनुयायियो को कांग्रेस से स्तिफा देने को लिये भावानात्मक प्रार्थना की जिसका परिणाम के हुवा की सरदार पटेल तक ने स्तिफा दे दिया…… इस असहयोग से दुखी होकर सुभाष बाबू ने कांग्रेस से स्तिफा दे दिया और आल ईण्डिया फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।
शेष अगले अंक में भाग-2
ये लेख वेबदुनिया मे किये गये शोधो व अनुसंधानो के आधार पर संकलित किया गया है यदि किसी व्यक्ति विशेष को आपत्ति है तो अपनी आपत्ती के अनुसार साछ्यो के आधार पर ईसे दुरूस्त कर सकता है…..
धन्यवाद…..