साल 2014 के बाद राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श बदला है। इसी के परिणामस्वरूप कई शब्द विमर्श में उभरे हैं। जिनमें एक शब्द है, असहिष्णुता। अमूमन यह शब्द किसके लिए और क्यों प्रयुक्त किया जाता है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। मैं उन लोगों की तीखी प्रतिक्रियाओं से अचंभित होता हूं जो हिंदुत्ववादी लोगों की असहिष्णुता और अलोकतांत्रिकता की हमेशा आलोचना करते आए हैं और ख़ुद को प्रतिरोध की आवाज़ के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया है और वो इस बात पर मुतमइन हैं कि मोदीराज में असहमति के विचार पर हमला हुआ है तथा मोदी विरोधी आवाज़ों को दबाया जा रहा है। इन्हीं तमाम स्थापनाओं से विचार उभरा वो यह कि संघी और मोदी समर्थक कुतर्की, तथ्यहीन एवं अंधभक्त हैं, जो अपने ख़िलाफ़ कुछ नहीं सुन सकते हैं, उनके यहां आलोचना के लिए कोई स्थान नहीं है।
लेकिन इधर मैंने पाया कि ये लोग संघी, मोदी समर्थकों एवं अंधभक्तों से अधिक गहन असहिष्णु, विरोधी विचार के प्रति निषेध एवं अत्यंत अलोकतांत्रिक हैं। मुझे लगता है कि मोदी-समर्थकों से लड़ाई आसान है, इन कथित उदारवादियों, वामपंथियों एवं संवैधानिक-मूल्यों के प्रति ‘आस्थावानों’ से असहमति या उनकी धारा से इतर बात करना तलवार की धार पर चलने जैसा है।
आप इस्लाम पर कुछ बोलें, उनकी टिप्पणियां होंगी- भगवा पहन लो, भाजपा में चले जाओ, संघी हो जाओ, पाला बदल लो इत्यादि।
अत: उनकी सर्वमान्य स्थापना है कि सब कमियां संघ में है। सब झगड़ों की जड़ भाजपा ही है। इस पृथ्वी की सबसे पीड़ित क़ौम मुसलमान है। इस्लाम में निहित बुराईयों पर निशानदेही निषेध है। इस्लाम पर कुछ मत बोलिए। बोले तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा। बाकि धर्म अफ़ीम है ही।
न्याय, समानता और मानवीय-मूल्यों की बात करने वाले कथित उदारवादियों का रिश्ता इस्लाम से नाभिनालबद्ध रिश्ता कैसे है और क्यों है, यह शोध का विषय है। किन्तु जो परिप्रेक्ष्य और धारणाएं मुख्यधारा में है, उससे सहज ही समझा जा सकता है कि यह एक राजनीतिक गठबंधन है। यह स्थापित तथ्य हो गया है कि भारत के कथित उदारवादी और सेक्युलर बौद्धिक किसी भी घटना पर इस तरह से प्रतिक्रिया देते पाए जाते हैं-
० चेतना में फूल खिल जाता है जब बहुसंख्यक भीड़ द्वारा कोई मुसलमान मारा जाए।
० रुदन की अनुभूति होती है यदि कोई शोषक या हमलावर मुस्लिम निकल जाए।
इन दो बिंदुओं पर इन्हें परखिए। ये इन्हीं दो बिन्दुओं पर अगर-मगर, किन्तु-परंतु करते रहते हैं। दुनिया भर में कहीं भी कोई घटना घट जाए तो मुसलमानों और कथित उदारवादियों के तर्क-वितर्क देखकर आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह से ये लोग लामबंद हैं। आप तालिबान के द्वारा अफगानिस्तान पर कब्ज़े को ही देख लीजिए। मुसलमानों द्वारा सबसे लचर तर्क दिया जाता है कि तालिबान “असली इस्लाम” नहीं है। इस्लाम का कुरूप है। भारत पर मुस्लिम आक्रांताओं ने जिस बेदर्दी और पाशविकता से हमले किए और इस भारत-भूमि को धार्मिक उन्माद में रौंदा, लेकिन कहा जाएगा कि यह “असली इस्लाम” नहीं। दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर मानव सभ्यता को ऐसे घाव मिले हैं, जिसकी कोई इंतहा नहीं, मगर यह “असली इस्लाम” नहीं। अब भी आप भारत के मुसलमानों को देखिए। कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर, या तो खुले रूप में तालिबान का समर्थन कर रहे हैं या किंतु परंतु में व्यस्त हैं।
इनसे पलटकर पूछिए कि “असली इस्लाम” फिर क्या है? सदियों से जिस इस्लाम के नाम पर ग़ैर-मज़हबी लोगों को कत्ल किया, प्रताड़ित किया और ग़ुलाम बनाया, वो क्या था? कोई जवाब नहीं मिलेगा।
सीधा सा जवाब है, यही असली इस्लाम है। यही इसकी बुनियादी प्रकृति है। यही इसका मक़सद। और यह भी अटल सत्य है कि दुनिया भर के मुसलमान इस्लाम के नाम पर होने वाली तमाम हरकतों पर सहमत हैं! फ्रांस से लेकर फ़लस्तीन और कश्मीर से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक एक स्वर में मुखर हैं। संकट वहां खड़ा होता है जब हमलावर मुसलमान हो। लेकिन तब भी किंतु-परंतु के सहारे पक्ष वही रहता है। बाकी तालिबान के पक्ष में “लाइव डिस्कशन” हो रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान की आज़ादी का जश्न है। बस यही वो अंतर्धारा है जिसके प्रति बाबा साहेब आंबेडकर ने सचेत किया था। और उनकी बातें अक्षरशः सच साबित हो रही हैं। हालांकि बाबा साहब की हिन्दू-धर्म के लिए कही बातों को लेकर तो कथित उदारवादी बेहद उग्र और हावी रहते हैं लेकिन जो बातें इस्लाम और उसकी प्रकृति के बारे में कही थी, उस पर ये सब लोग मौन साध लेते हैं। सेकुरिज्म का यह पाखंड है। कथित उदारवादियों ने इस मूल्य को धूमिल किया है और इस्लाम के नाम पर होने वाले वाली हर गै़रज़ायज़ चीज़ों का संरक्षण किया है और शह दी है।
युवा लेखक श्री सुशोभित ने अपने एक लेख में ठीक ही कहा है-