बचपन में बालमुकुन्द्रगुप्त जी का निबंध पढ़ा था जिसका नाम था “पीछे मत फेंकिए”, इसमें गुप्तजी तत्कालिन वायसराए से कहते है की कितनी ही विभ्रांतियो को विच्छिन्न करने वाला भारत स्त्री शरीर की भांति स्वयं को शुद्ध कर समुज्जवल होने में सक्षम है। योग्यता का प्रखर होना सार्थक क्रिया है, यदि इसे दबा ने में किसी की भूमिका है, तो वह बस में अपने लिए भविष्य में अप्रासंगिकता, अपकीर्ति और ह्वास इकट्ठा कर रहे है।
आज बालमुकुन्द्र होते तो क्या कहते?
अभी एक ‘कथित नेताजी’ को कहते हुए सुना कि तत्कालिन UP सरकार के शासन में अंग्रेजों से ज्यादा अत्याचार हो रहे हैं।
एक क्षण के लिए मैं मान लु उनकी बात क्योंकि वह गणमान्य है, पर अगले क्षण उस ड्राइवर का ‘अरे दादा’ अरे दादा कहता वीडियो सामने आता है और फिर उन्हीं नेता जी से उसके ड्राइवर “हरिओम” के बारे में पूछने का मन करता हूँ।
जिसके बारे मे कुछ नहीं बोलकर उन्होंने स्वयं को कितना क्षुद्र बना लिया!
अंग्रेजी सरकार मे इतना विवेक या कि फांसी पर चढ़ाने से पहले हमारे क्रांतिकारिये को आंतकवादी तो साबित करने का प्रयास किया, उनपर धाराएं लगा कर केस चलते थे। यहां तो लोग Tshirt पर भिंडरावने को बनी की तस्वीर के साथ गिड़गिड़ाते मुलजिमों पर लाठिया बरसाते रहे, और इस उन्मादी हिंसा में मारे गए लोगो के लिए भुतपूर्व मुखमंत्री ने निन्दा का एक वाक्य नही कहा!
इतिहास सब याद रखता है और दोहराता है।
पर अब भारतीय समाज के संवाद भी संदर्भित होने चाहिए।
इस कृषिबिल आन्दोलन ने कितने जीवन लीले, और जहां से इस विशिष्ट राजनीति का उदय हुआ जब उस प्रान्त में, इस आन्दोलन के उपजकर्ता और मुख्य सहयोगी दल में फुट पड़ी तो हिंसा की इस घृणात्मक अग्नि को एक ऐसे राज्य की तरफ फैलाने की कुचेष्टा में होने लगी जो उत्थान और दीर्घकालिक प्रगति के रोज नए उद्धरण रख रहा है।
अगर उत्तर प्रदेश को दिल्ली समझने वाले यह सोचते है की इस तरह के कांडो से UP का Voter दहल जाएगा तो वह भुल गए हैं की यह वह राज्य है जहां के परिक्वता की मिसाले दी जाती है।
इस राज्य में अनुमान से 50% नवयुवक अपने जीवन के कुछ साल प्राशासनिक सेवोओ की तैयारी के लिए देते है। वह इस तरह के तत्त्रिय हुनर महीनी से समझते सीखते है और इन छद्म नेताओ को चाय की दुकान पर बहुत ज्ञान दे देते है।
अंत मे गुप्त जी की वही कलजयी बात महत्वपूर्ण हो जाती है की सनातन सभ्यता समुद्र जैसी है जो आप इसे देते हैं आपको यह लौटा देती है, कई गुना बढ़ा कर।
दुख बस यही होता है की लोलुपता के वशीभूत होकर समाज स्वघोषित विस्थापत्य के नाम पर कार्यशील लोग स्वस्थ आलोचना और विरोध से छिटक रहे है।