29 अप्रैल की शाम सभी मुख्य टीवी चैनल पश्चिम बंगाल के एग्जिट पोल का प्रसारण कर रहे थे। सभी चैनेलों पर विश्लेषक अपनी राय दे रहे थे।
क्योंकि एग्जिट पोल राजनैतिक मनोरंजन की तरह होते हैं अतः उनको गंभीरता से न लेते हुए हम एक चैनल से दूसरे चैनल पर घूम रहे थे। इसी तरह अलग अलग चैनलों पर आते जाते एक महत्वपूर्ण प्रश्न कानों में पड़ा, “मुस्लिम मतदाताओं का वोटिंग पैटर्न क्या दिखाई देता है, इस बार के बंगाल चुनावों में? उत्तर सुनने के लिए मेरे कान ठिठक गए।
देखिये, “मुस्लिम मतदाता बिलकुल स्पष्ट था, उसको निश्चित रूप से पता था कि उसे भाजपा को हराना है इसलिए जिस विधानसभा क्षेत्र में जो पार्टी भाजपा को हरा सकती थी, उस क्षेत्र में उसे वोट दिया है, थोक में। कोई विभाजन नहीं है मुस्लिम मतों में। मुस्लिम वोट भाजपा के खिलाफ़ है फिर चाहे वो तृणमूल को गया हो या वाम दलों को या किसी अन्य को।”
विश्लेषक के इस कथन से, मुस्लिम समुदाय की राजनैतिक जागरूकता स्पष्ट होती है। एक मतदाता समूह के रूप में चुनाव आधारित सत्ता हस्तांतरण में किस प्रकार समुदाय के रूप में थोक वोट करके राजनैतिक परिदृश्य में बढ़त बनाकर अपनी पहचान और शक्ति सुनिश्चित की जा सकती है वे भलीभांति जानते हैं।
वे कभी भारतीय नागरिक की तरह वोट नहीं करते, हमेशा मुसलमान की तरह वोट करते हैं।
जो भी उनके थोक वोट से जीतकर पार्षद, विधायक या सांसद बनेगा उनके दबाव में रहेगा। उसकी आड़ में वो अपने धंधे बढ़ाएंगे, आमदनी बढ़ाएंगे, मस्जिदें बढ़ाएंगे, मदरसे बढ़ाएंगे, आबादी बढ़ाएंगे, और अधिक संगठित होंगे और राजनैतिक दलों की सत्ता प्राप्ति के लिए और महत्वपूर्ण हो जायेंगे।
धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन हो जाने के बाद भी हम मिल्ली तराना लिखने वाले इकबाल का, “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” गाते हुए, धर्म निरपेक्षता के नशे में डूबे रहे और वो मासूम बनकर अपनी राजनैतिक शक्ति बढ़ाने में।
धर्मनिरपेक्षता की अफीम इतनी थी कि एक शंकराचार्य को दीपावली के दिन जेल भेज दिया गया और जिस बहुसंख्यक समाज का वो प्रतिनिधित्व करते थे कुछ अपवादों को छोड़कर वो सोया रहा।
राजनैतिक दलों ने सत्ता प्राप्ति के लिए सार्थक काम करने के स्थान पर मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया क्योंकि वो चुनाव जीतने का आसान रास्ता था।
तुष्टिकरण की पराकाष्ठा देखने को तब मिली जब एक प्रधानमंत्री ने लालकिले से कहा, देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है जबकि उपलब्ध जनगणना के अनुसार वो अल्पसंख्यक नहीं, पंक्ति में दूसरे स्थान के बहुसंख्यक थे। एक राज्य के मुख्यमंत्री ने हिन्दू और मुस्लिम पर्व के एक दिन पड़ जाने पर हिन्दू पर्व पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया।
तुष्टिकरण की इस राजनीती ने देश को यूँ तो कई तरह से हानि पहुंचायी किन्तु जो सबसे बड़ी हानि थी वो थी भाषा और संस्कृति के क्षरण की।
कई पार्टियों ने केवल मुसलमानों को खुश करने के लिए अनावश्यक रूप से उर्दू को राज्यभाषा का दर्जा दे दिया। इतिहास की पुस्तकें उनकी कहानियों से भर दी गयीं, पर्यटन के नाम पर बस मक़बरों का प्रचार किया गया, कला और रंगमंच के माध्यम से हिन्दू संस्कृति को हीन दिखाते हुए आक्रान्ताओं को स्थापित किया गया।
भाई-चारा और गंगा जमुनी तहजीब की ऐसी घुट्टी पिलाई गयी कि राजनैतिक रूप से सदा ही अपरिपक्व रहा हिन्दू भाई–चारे का चारा बनकर रह गया।
इससे दुखद राजनैतिक प्रयोग रहे, मुस्लिमों के साथ हिन्दुओं के किसी एक वर्ग को जोड़कर राजनैतिक लाभ के गठजोड़ बनाने के। दलित–मुस्लिम गठजोड़, यादव- मुस्लिम गठजोड़, ब्राह्मण –मुस्लिम गठजोड़।
इन गठजोड़ों ने हिन्दुओं को भाई- चारे के चारे के रूप में तैयार करने में बड़ा योगदान दिया।
अलग अलग विश्लेषक इस बात से सहमत या असहमत हो सकते हैं किन्तु सत्य ये है कि श्री राम जन्म भूमि आन्दोलन ने हिन्दुओं को झकझोर कर उठाने का प्रयास किया। जिसकी परिणति हमें राजनैतिक रूप से भाजपा के उभार के रूप में और कालांतर में भाजपा की केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के रूप में देखने को मिली।
आज तथाकथित अल्पसंख्यक अनेक लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में बहुमत में हैं।
उनका थोक वोट जन प्रतिनिधि का चयन करता है। ये जनप्रतिनिधि अपने लोगों के लिए ही काम करता है। उसके संरक्षण में दंगे, बवाल, मारपीट, लव जिहाद के खेल चलते हैं।
यदि चारा बनने से बचना है तो मुस्लिम- दलित, मुस्लिम-यादव, मुस्लिम-ब्राह्मण जैसे गठजोड़ तोड़ने होंगे और सिर्फ एक गठजोड़ को मज़बूत करना होगा, हिन्दू गठजोड़।
वर्तमान परिस्थितियों में यह साम्प्रदायिकता नहीं वरन राजनैतिक जागरूकता, सूझ-बूझ और परिपक्वता है।