Tuesday, November 5, 2024
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एक गलत फैसला और न्याय व्यवस्था पर उठते सवाल

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हाल में ही बंबई हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने अपने एक फैसलों से पूरे भारत को चौंकया है। यह निर्णय यौन अपराधों को रोकने से जुड़े पौक्सो एक्ट से संबधित वर्ष 2016 के एक मामले से जुड़ा है। इस मामले पर नागपुर एकल पीठ की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने पौक्सो एक्ट को अपने तरीके से परिभाषित करते हुए 12 वर्षीय एक बच्ची पर हुए यौन हमले के लिए नागपुर सत्र न्यायालय द्वारा पौक्सो एक्ट के तहत इस मामले में दोषी ठहराए गए सतीश बंधु रगड़े को इस अपराध से मुक्त कर दिया। उन्होने ने अपने फैसले में इस अपराधी को पौक्सो एक्ट की सजा से यह कह कर बरी कर दिया कि इसमें स्किन टू स्किन यानी शारीरिक संपर्क नहीं हुआ है, माननीय न्यायधीश के अनुसार आरोपित से पीड़िता का शारीरिक संपर्क नहीं हुआ है, तो उस व्यक्ति पर पौक्सो एक्ट नहीं लगाया जा सकता है।

इस निर्णय से सिर्फ उक्त न्यायधीश की न्यायिक समझ ही नहीं, बल्कि सारी न्यायिक प्रक्रिया पर ही गंभीर सवाल उठते हैं। हालांकि ऐसी निर्णयों के कारण गनेडीवाला की होने वाली प्रोन्नति भी रोक दी गयी है। फिर भी सवाल यह उठता है की इस तरह के फैसले क्या अपरिपक्वता के कारण दिये गए हैं, या यह भी पूछना जरूरी हो जाता है कि न्याय व्यवस्था को क्या यौन अपराधों की समझ नहीं है, या इस तरह के अपराध को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। अदालत द्वारा इस तरह के असंवेदनशील निर्णय भविष्य के लिए एक अर्थ में खतरनाक एवं परेशान करने वाली है। यह कोई एक मामला कहकर छोड़ देने का विषय नहीं है, क्योंकि बच्चों पर होने वाले यौन हमलों से संबन्धित मामलों में निचली अदलतों के लिए यह निर्णय एक उदाहरण बन सकती है। यह फैसला इसलिए भी बेचैन करती है कि पीड़ता की न्याय की जगह उत्पीड़क को संरक्षण देने की बात इसमें कही गयी है। पौक्सो एक्ट के तहत इस तरह के अपराध के लिए अनुभाग आठ के अंतर्गत तीन साल कारावास की सजा दी गयी थी, जबकि न्यायधीश महोदया द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के तहत एक बर्ष के कारावास की सजा दी गयी है। यह निर्णय न्याय व्यवस्था की सीमाओं ऑर समझ को भी उजागर करता है, इसलिए हमेशा से न्यायिक प्रक्रिया को अधिक संवेदनशील बनाने की मांग उठती आई है।

यौन शोषण एवं शारीरिक शोषण की परिभाषाएँ क्या हों, यह हमारे देश की अदालतें यही तय नहीं कर पा रही है, कि पुरुष के किस सीमा को यौन शोषण माना जाय। वैसे तो नीति यही कहती है कि लोगों के मन में किसी तरह के पाप का विचार आना ही अपराध करने जैसा है। पश्चिमी देशों में लोग अपने बच्चों को शारीरिक स्पर्श को ‘गुड टज ‘एवं बैड टज की संज्ञा में परिभाषित और शिक्षित करते हैं। भारत में महिलाओं के लिए घूँघट और पर्दा का इंतजाम इसलिए किया गया था कि महिलाएं पुरुषों की कुदृष्टि से बचा जा सके। परंतु सवाल यह कि जिस समाज ऑर देश में नैतिक शिक्षा यह बताती हो कि बुरे इरादों या बुरी नियत मात्र से ही आप पाप के भागीदार हो जाते हैं, उसी समाज में यौन शोषण की सीमाओं को विस्तार देने वाला यह फैसला समाज को क्या दिशा देगा, यह समाज में चिंतनीय प्रश्न है।

हालांकि इस मामले में असंवेदनशील निर्णय को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल के माध्यम से हस्तक्षेप किया गया और उच्चतम न्यायालय में अपील करते हुए इस तरह के जनाक्रोशित फैसले पर रोक लगाकर इसकी समीक्षा की मांग की। प्रधान न्यायधीश नयायमूर्ति एसए बोबड़े की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस निर्णय पर रोक भी लगा दी। इस तरह के अपरिपक्व निर्णय से एक गलत परंपरा कायम होने की आशंका थी, इसलिए केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट का इस मामले का संज्ञान लेते हुए हस्तक्षेप करना एक सराहनीय कदम है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी बाल विरोधी इस फैसले के खिलाफ उच्चतर पीठ में पुनर्विचार याचिका दायर करने के लिए महाराष्ट्र सरकार को निर्देशित भी किया है साथ ही राष्ट्रीय महिला आयोग भी इस निर्णय के विरोध में अपनी आपत्ति दर्ज की है। और विरोध होना भी चाहिए क्योंकि इस तरह की गलती भविष्य में न हो, और आगे इसे ध्यान में रखा जाय।  

न्यायिक व्यवस्थाओं की इसी सुधार की आवश्यकता को देखते हुए मोदी सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने की प्रस्ताव रखी थी, जिसका उदेश्य न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही, समयबद्धता और वहन योग्य बनाना था, लेकिन न्यायिक व्यवस्थाओं में सुधार के लिए किए गए प्रयास कौलेजियम व्यवस्था को पसंद नहीं आई, और उसने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया है। न्यायिक सुधारों के अभावों में ऐसे फैसले आते रहेंगे और देश में सवाल उठते रहेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोई भी कानून अपराधों की रोकथाम और समस्या का समाधान का एकमात्र तरीका नहीं है, बल्कि एक मात्र तरीका ही है अपराध को रोकने के लिए। अपराधी के मन में कानून का डर होना अत्यंत आवश्यक है। अगर न्यायलयों द्वारा इस तरह के फैसले होने लगे, तो पीड़ित के लिए बड़ी मुश्किल हो जाएगी। इसलिए न्यायिक प्रक्रिया में सुधार करते हुए न्यायिक परिप्क्व्ता की होनी अतिआवश्यक है, जिसे अपराधियों के मन में डर बना रहे।

ज्योति रंजन पाठक -औथर –‘चंचला ‘ (उपन्यास)

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