छत्रपति शिवाजी महाराज न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि वे एक कुशल एवं सुयोग्य प्रशासक भी थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय परंपराओं और समकालीन शासन प्रणालियों में समन्वय कर ठोस सिद्धांतों के आधार पर अपनी शासन-व्यवस्था विकसित की थी। यह उनकी प्रशासनिक क्षमता ही थी कि विजित भूभागों के निवासियों ने भी हृदय से उन्हें अपना अधिपति माना। शिवाजी महाराज की शासन-व्यवस्था लोकाभिमुख थी। वे एक निरंकुश शासक की बजाय लोककल्याणकारी शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। एक ऐसे शासक के रूप में जो प्रजा-हित को सर्वोपरि रखता था। उनकी शासन-पद्धत्ति में प्रजातंत्र के बीज मौजूद थे। दरअसल उनका मुख्य उद्देश्य ही भारतीय न्याय-परंपरा पर आधारित शासकीय व्यवस्था विकसित करना था।
एक प्रशासक के रूप में उन्होंने कभी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया। वे अपने उन सैनिकों-सहयोगियों को भी पुरस्कृत करते थे जो राजा यानी व्यक्ति से अधिक राज्य के हितों के प्रति निष्ठा रखते थे। ऐसे अनेक दृष्टांत शिवाजी के जीवन में दिखाई देते हैं। निरंकुशता या एकाधिकारवादिता विकृति लाती है। यह राजा को स्वेच्छाचारी बना देती है। उस काल के अधिकांश राजा या सम्राट (बादशाह) निरंकुश प्रवृत्तियों से ग्रस्त थे। दुनिया के इतिहास में शिवाजी पहले ऐसे सत्ताधीश थे, जिन्होंने स्वयं अपनी सत्ता का विकेंद्रीकरण किया था। आज जब श्रेष्ठ प्रबंधन का पाठ पढ़ाया जाता है तो उसमें उत्तरदायित्वों के विकेंद्रीकरण की बात सबसे ऊपर रखी जाती है। एक व्यक्ति के अपने गुण-दोष होते हैं, अपनी सबलता-दुर्बलता होती है, पसंद-नापसंद होते हैं, सोच-सामर्थ्य की अपनी सीमा होती है, शिवाजी इस सच्चाई को भली-भाँति जानते थे। वे उन दुर्बल प्रशासकों की भाँति नहीं थे, जिन्हें हर क्षण अपनी सत्ता और अधिकार खोने का भय सताता रहता है।
चुने हुए विशेषज्ञों द्वारा शिवाजी महाराज ने ‘राजव्यवहार कोष’ नामक शासकीय शब्दावली का बृहत शब्दकोश तैयार कराया था। यह उनकी प्रगल्भता और बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उसके अनुसार उन्होंने शासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद बनाई थी, जिसे अष्ट प्रधान कहा जाता था। योग्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा, राजनिष्ठा, ईमानदारी और बहादुरी ही उनके मंत्रीमंडल में किसी के सम्मिलित किए जाने की एकमात्र कसौटी थी। तत्कालीन चलन के विपरीत मंत्री पद के लिए आनुवंशिकता अनिवार्य नहीं थी।
‘पेशवा’ उस मंत्रीमंडल का प्रमुख होता था। ‘अमात्य’ वित्त और राजकीय कार्यभार वहन करता था। ‘सचिव’ राजा के पत्राचार और अन्य राजकीय कार्य संपन्न करता था। जिसमें शाही मुहर लगाना और संधि-पत्रों का आलेख तैयार करना भी सम्मिलित था। ‘मंत्री’ का प्रमुख कार्य विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ एवं गुप्त सूचनाएँ एकत्र कर उनका सत्यापन करना, राज्य में होने वाली घटनाओं और गतिविधियों पर निकट नज़र रखना, समाचारों को संकलित कर उस पर महाराज का ध्यान आकर्षित करवाना हुआ करता था। वह राजा का रोज़नामचा रखता था। अतिरिक्त व्यय होने पर उसे राजा से प्रश्न पूछने का अधिकार था। आप सोचिए क्या आज के कर्मचारी अपने अधिकारी या प्रमुख से आय-व्यय का ब्यौरा माँग सकते हैं? ‘सुमंत’ विदेशी मामलों की देखभाल करते हुए लगभग आज के विदेश मंत्री का कार्य संपादित करता था। वह अन्य राज्यों में राजा के प्रमुख प्रतिनिधि या वार्त्ताकार के रूप में बातचीत को आगे बढ़ाता था। ‘सेनापति’ सेना का प्रधान होता था। सेना में सैनिकों की नियुक्ति का सर्वाधिकार उसके पास सुरक्षित होता था। सेना के संगठन अनुशासन, युद्ध-क्षेत्र आदि में तैनाती आदि की जिम्मेदारी भी उसी की हुआ करती थी। ‘पंडितराव’ धार्मिक मामलों और अनुदानों का उत्तरदायित्व निभाता था। ‘न्यायाधीश’ न्यायिक मामलों का प्रधान था। प्रत्येक प्रधान न्यायाधीश की सहायता के लिए अनेक छोटे अधिकारियों के अतिरिक्त ”दावन, मजमुआदार, फडनिस, सुबनिस, चिटनिस, जमादार और पोटनिस” जैसे आठ प्रमुख अधिकारी भी हुआ करते थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने आज की तरह अपना एक संविधान यानी शासन-संहिता तैयार कराई थी। उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण और शासन के लोकतंत्रीकरण को बढ़ावा दिया। वे भली-भाँति जानते थे कि व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य और शक्तिशाली क्यों न हो वह एक सुसंबद्ध तंत्र के बिना व्यवस्थाएँ नहीं संचालित कर सकता। इसलिए उनका जोर व्यक्ति-केंद्रित शासन-व्यवस्था की बजाय तंत्र-आधारित व्यवस्था खड़ी करने पर रहा। स्वयं एक सत्ताधीश होते हुए भी उन्होंने सामंतवाद को जड़-मूल से नष्ट करने का अपरोक्ष प्रयास किया। आज तमाम दलों एवं नेताओं द्वारा वंशवादी विरासत को पालित-पोषित करता देख शिवाजी का यह आदर्श कितना ऊँचा और दुर्लभ जान पड़ता है! वे स्वयं को राज्य का स्वामी न समझकर ट्रस्टी समझते थे। राज्य का स्वामी तो वे ईश्वर को मानते थे।
शासन की सुविधा के लिए उन्होंने ‘स्वराज’ कहे जाने वाले विजित क्षेत्रों को चार प्रांतों में विभाजित किया था। हर प्रांत के ‘सूबेदार’ को ‘प्रांतपति’ कहा जाता था। उसके पास गाँव की अष्टप्रधान समिति होती थी। हर गाँव में एक ‘मुखिया’ होता था। उनके समय में तीन प्रकार के कर प्रचलित थे। ‘भूमि-कर, चौथ एवं सरदेशमुखी।” उल्लेखनीय है कि किसानों से केवल भूमि-कर वसूल किया जाता था। ग़रीब किसानों से उनके ज़मीन के रकबे और उपज के आधार पर कर वसूला जाता था। उनके राज्य के सभी सैनिक, अधिकारी, सरदार, मंत्री आदि वेतनधारी होते थे। उनकी तरह की, सुनियोजित और समृद्ध वेतन-प्रणाली अन्य किसी राजा ने प्रभावी तरीके से लागू नहीं की थी। शिवाजी की यह दूरदर्शिता भ्र्ष्टाचार और कामचोरी पर अंकुश लगाने में सहायक थी।
समाजवाद और साम्यवाद का गुण गाने वाले लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि शिवाजी पहले ऐसे शासक थे जिन्होंने वतनदारी और जमींदारी को रद्द कर दिया था। उन्होंने कहा कि ओहदा रहेगा, पर सत्ता नहीं रहेगी। उस समय सरदारों/ जागीरदारों की अपनी निजी सेनाएँ होती थीं। उन्होंने सेना को स्वराज्य के केंद्रीय प्रशासन के अंतर्गत लेते हुए उन्हें वेतन देना प्रारंभ कर दिया, जिसका सुखद परिणाम यह हुआ कि सैनिकों की निष्ठा व्यक्तियों के प्रति न होकर राष्ट्र-राज्य से जुड़ गई। उन्होंने सामाजिक स्तर पर भी अनेक परिवर्तन किए। नेताजी पालकर, बजाजी निंबालकर जैसे धर्मांतरित योद्धाओं को पुनः शास्त्रोक्त पद्धत्ति से हिंदू धर्म में वापस लिया। न केवल वापस लिया अपितु उनसे अपना पारिवारिक संबंध जोड़ घर-वापसी को सामाजिक मान्यता भी दिलाई। वे अपने समय से आगे की सोच रखते थे। इसलिए उन्होंने अरब और यूरोप की आधुनिक कलाओं और युद्ध-तकनीकों को अपनाने में कोई संकोच नहीं दिखाया। मुद्रण, छापाखाना, तोपें, तलवारें आदि बनाने की कला को उन्होंने हाथों-हाथ लिया। नौसेना का गठन करके सिंधुदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग जैसे जलदुर्ग बनवाए। कुल मिलाकर उन्होंने युगानुकूल शासन-तंत्र की व्यापक रचना की। और इन सब दृष्टांतों एवं प्रसंगों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि शिवाजी आधुनिक भारत के सच्चे निर्माता थे। आज यह प्रश्न पूर्णतः न्यायसंगत और औचित्यपूर्ण होगा कि किनकी कुटिल योजना और परोक्ष-प्रत्यक्ष षड्यंत्रों से शिवाजी जैसे कुशल प्रशासक एवं महान योद्धा को पाठ्य-पुस्तकों के चंद पृष्ठों या यों कहिए कि अनुच्छेदों में समेट दिया गया? क्या यह शिवाजी जैसे राष्ट्रनायकों के साथ घोर अन्याय नहीं है?