मैं बार-बार कह चुका हूँ कि मैं यदि सरकार में होता तो ऐसे गुंडों-आतंकियों पर गोलियाँ चलवाता और उनके नेताओं-समर्थकों पर लट्ठ बचाता। देशद्रोही भी इनके लिए सम्माजनक शब्द है। ये सड़कछाप गुंडे-मवाली-नशेड़ी-अफीमची हैं।पता नहीं इनसे वार्त्ता की रणनीति क्यों अपनाई गई? क्या गुंडे और आतंकी वार्त्ता की भाषा समझेंगें। चाहे देश की भीतर हुई वार्त्ता हो या बाहर, चाहे वर्तमान में हुई वार्त्ता हो या अतीत में, सबके परिणाम राष्ट्रघाती ही रहे हैं, विध्वंसक ही रहे हैं। अति रक्षात्मक मुद्रा सदैव हमारी पराजय का मूल कारण रहा है। आश्चर्य है कि सम्यक राष्ट्रबोध और इतिहासबोध रखने वाली सरकार इसे समझ नहीं पा रही।
लालकिला पर हमला करने वाले, तिरंगे का अपमान करने वाले, बच्चों और महिलाओं को लाठी-डंडे से पीटने वाले, आम पुलिस वालों को नंगी तलवारें लेकर दौड़ाने वाले, उन पर जानलेवा हमला कर उन्हें नालों में कूदने पर मजबूर करने वाले, आम करदाता के पैसों से खड़ी की गई सरकारी व सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुकसान पहुँचाने वाले किसान नहीं हो सकते। वे गुंडे-दंगाई-आतंकी हैं। और उनकी पैरवी करने वाले उनसे बड़े दंगाई और आतंकी।
यदि सरकार ने अब भी इन गुंडों-दंगाइयों-आतंकियों के साथ नरमी बरती तो अगले चुनाव में उसे भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। इन गुंडों-दंगाइयों-आतंकियों से निपटने के लिए अब देशभक्त नागरिकों को सड़कों पर उतरना पड़ेगा। हम कुछ हजार गुंडों को अपनी राजधानी, अपनी शान, अपनी मान-मर्यादा, अपनी बहू-बेटियों का चीर-हरण करने की खुली छूट नहीं दे सकते। जब देश और समाज ही नहीं बचेगा तो ऐसी नौकरी से भला हम क्या बचा लेंगें? आम दिल्लीवासियों को अब ऐसे गुंडे-मवालियों का मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। जब कायरता हद से ज़्यादा बढ़ जाए तो गुंडे-आतंकियों का मनोबल बहुत बढ़ जाता है। सरकारें यदि नपुंसक मुद्रा धारण कर ले तो क्या आम नागरिकों का कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता? क्या उन्हें भी भीगी बिल्ली बनकर चंद गीदड़ों का तमाशा देखना चाहिए या शेर बन उन पर टूट पड़ना चाहिए? आज यह तय करने का भी वक्त आ गया है।
प्रणय कुमार