Sunday, November 3, 2024
HomeHindiयह कैसी मोहब्बत है, जो मज़हब बदलने की शर्त्तों पर की जाती है?

यह कैसी मोहब्बत है, जो मज़हब बदलने की शर्त्तों पर की जाती है?

Also Read

उत्तरप्रदेश सरकार ‘विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020’ लेकर आई है। स्वाभाविक है कि इसका आकलन-विश्लेषण सरकार के समर्थक और विरोधी अपने-अपने ढ़ंग से कर रहे हैं। योगी सरकार का कहना है कि ‘बीते दिनों 100 से ज्यादा ऐसी घटनाएँ पुलिस-प्रशासन के सम्मुख आई थीं, जिनमें ज़बरन धर्म परिवर्तिन का मामला बनता था।’ इस नए अध्यादेश की धारा-3 में झूठ, छल-प्रपंच, कपटपूर्ण साधन, प्रलोभन देकर कराए जा रहे धर्म परिवर्तन को ग़ैर क़ानूनी घोषित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से किसी अन्य उपासना-पद्धत्ति का चयन करता है तो उस पर इस क़ानून में कोई आपत्ति नहीं  व्यक्त की गई है। सर्वविदित है कि धर्म परिवर्तन की घटनाओं में सक्रिय एवं संलिप्त विदेशी चंदे से चलने वाली धार्मिक संस्थाएँ आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर एवं वंचित समाज को ही अपना आसान शिकार बनाती हैं। इसलिए इस क़ानून के अंतर्गत महिलाओं, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के मामलों में धर्म परिवर्तन पर अधिक कठोर दंड के प्रावधान किए गए हैं। जहाँ धर्म-परिवर्तन के सामान्य मामलों में 5 साल की सजा और न्यूनतम 15000 रुपये के जुर्माने की व्यवस्था की गई है, वहीं महिलाओं एवं अनुसूचित जाति-जनजाति के संदर्भ में इसे बढ़ाकर 10 वर्ष और न्यूनतम 50,000 रुपये आर्थिक दंड रखा गया है। यह समाज के कमज़ोर एवं वंचित वर्ग की सुरक्षा के प्रति सरकार की प्रथमिकता एवं प्रतिबद्धता का परिचायक है।

पिछले कुछ दशकों में धार्मिक पहचान छिपाकर अंतर्धार्मिक विवाहों के अनगिनत मामले शासन-प्रशासन के संज्ञान में आते रहे हैं। इसके कारण समाजिक सौहार्द्र का वातावरण बिगड़ता रहा है। सांप्रदायिक हिंसा की संभावनाएँ पैदा होती रही हैं, न्यायालयों के समक्ष विधिसंगत जटिलताएँ खड़ी होती रही हैं। इसलिए इस अध्यादेश में इन समस्याओं के समाधान के लिए भी ठोस एवं निर्णायक पहल की गई है। इसकी धारा-6 के अंतर्गत पीड़ित पक्ष न्यायालय को प्रार्थना-पत्र देकर ऐसे विवाह को निरस्त करा सकता है। और यह अधिकार सभी धर्मों के स्त्री-पुरुषों को समान रूप से दिया गया है। भय, धोखा, प्रलोभन या धमकी जैसे तत्त्वों को समाप्त करने के लिए इसकी धारा-8 में निर्देशित किया गया है कि धर्म परिवर्तन करने वाले हर व्यक्ति को कम-से-कम 60 दिन पूर्व जिला न्यायाधीश को सूचना देनी होगी। उसमें उसे शपथपत्र देकर यह घोषणा करनी पड़ेगी कि वह बिना किसी बाहरी दबाव के धर्म परिवर्तन कर रहा है। जिला न्यायाधीश प्रस्तुत साक्ष्यों एवं प्रमाणों के आधार पर यह सुनिश्चित कर सकेंगें कि धर्म परिवर्तन स्वेच्छा एवं स्वतंत्र सहमति से किया गया है।

सोचने वाली बात है कि धर्म परिवर्तन करने वाला यदि स्वेच्छा से किसी अन्य धर्म को स्वीकार करता है तो उसे इस प्रकार की सूचना या साक्ष्य प्रस्तुत करने में क्यों कर आपत्ति होनी चाहिए? वैसे तो उत्तरप्रदेश सरकार की यह क़ानूनी पहल स्वागत योग्य है, क्योंकि यह सभी मतावलंबियों को समान रूप से किसी धर्म को मानने या दूसरे धर्म को अपनाने की पारदर्शी-विधिसम्मत प्रक्रिया सुनिश्चित करती है। पर नेपथ्य में धर्म-परिवर्तन का खेल खेलने वाले और उसके आधार पर थोक में विदेशी धन पाने वालों के पेट में अध्यादेश आते ही मरोड़ें आने लगी हैं। वे धर्म-परिवर्तन और लव-ज़िहाद को गंभीर मामला मानने को ही तैयार नहीं हैं। बल्कि उनमें से कई तो इसे संघ-भाजपा एवं हिंदुत्ववादी संगठनों का एजेंडा और दुष्प्रचार तक बता रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि लव-ज़िहाद का मामला सबसे पहले दिग्गज वामपंथी नेता वी.एस अच्युतानंदन ने आज से दस वर्ष पूर्व उठाया था। फिर केरल के ही काँग्रेसी मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने उसकी पुष्टि करते हुए 25 जून, 2012 को विधानसभा में बताया कि गत छह वर्षों में प्रदेश की 2,667 लड़कियों को इस्लाम में धर्मांतरित कराया गया। बल्कि केरल के ही उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के टी शंकरन ने  2009 में लव-ज़िहाद पर सुनवाई करते हुए यह माना कि झूठी मुहब्बत के जाल में फँसाकर धर्मांतरण का खेल केरल में संगठित और सुनियोजित रूप से वर्षों से चलता रहा है। इतना ही नहीं कैथोलिक बिशप कॉउंसिल, सीरो मालाबार चर्च जैसी तमाम ईसाई संस्थाएँ भी लव-ज़िहाद पर चिंता जताती रही हैं। इसी वर्ष 15 जनवरी को कार्डिनल जॉर्ज ऐलनचैरी की अध्यक्षता वाली पादरियों की एक संस्था ने दावा किया था कि बड़ी संख्या में राज्य की ईसाई महिलाओं को लुभाकर इस्लामिक स्टेट एवं आतंकवादी गतिविधियों में धकेला जा रहा है। वे लव-ज़िहाद को कपोल-कल्पना नहीं, वास्तविकता मानते हैं और वहाँ की पुलिस रिपोर्ट के आधार पर उसके साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। तमाम सुरक्षा एवं जाँच एजेंसियाँ भी इन अंतर्धार्मिक विवाहों को संदेह एवं षड्यंत्र से मुक्त नहीं मानतीं। उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, राजस्थान उच्च न्यायालय भी अलग-अलग समयों पर यह कह चुका है कि विवाह के संदर्भों में ज़बरन धर्मांतरण रोका जाना चाहिए।

30 अक्तूबर 2020 को तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए टिप्पणी की थी कि ”विवाह से धर्म परिवर्तन का कोई सरोकार नहीं है। जब धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को जिस धर्म को वह अपनाने जा रहा है, उसके मूल सिद्धांतों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है, न उसकी मान्यताओं और विश्वासों के प्रति कोई आस्था है, तो फिर धर्म परिवर्तन का क्या औचित्य?” न्यायालय के समक्ष ऐसी पाँच याचिकाएँ थीं, जिनमें केवल विवाह के लिए धर्म परिवर्तन किया गया था? और जिन भोली-भाली लड़कियों ने धोखे या बरगलाए जाने पर इस्लाम क़बूल कर लिया था, उन्हें इस धर्म के बारे में सामान्य जानकारी तक नहीं थी। और यह केवल इकलौता मामला हो ऐसा नहीं है, ऐसे मामले देश के हर राज्यों की अदालतों और पुलिस-प्रशासन की फ़ाइलों और रिपोर्टों में दर्ज हैं। 2019-20 में केवल कानपुर जिले में एसआईटी को सौंपे गए लव-ज़िहाद के 14 मामलों में से 11 में धोखाधड़ी, धार्मिक पहचान छुपाने, ग़ैर मुस्लिम नाबालिग लड़कियों को बहला-फुसलाकर पहले शादी, फिर यौन-शोषण करने जैसी बातें सामने आईं। ऐसे में इसे किसी संगठन या दल विशेष का दुष्प्रचार मात्र मानना तो हास्यास्पद ही है।


लव ज़िहाद के बढ़ते मामलों को देखते हुए उत्तरप्रदेश के बाद अब हरियाणा, हिमाचल, मध्यप्रदेश, असम, कर्नाटक, गुजरात आदि की सरकारें भी  कठोर क़ानून लाने की तैयारी कर रही हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने तो लव-जिहाद और सामूहिक धर्म परिवर्तन जैसे मामलों में और कठोर दंड के प्रावधान के संकेत दिए हैं। आश्चर्य है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, समाजवादी पार्टी और कुछ अन्य दलों के नेताओं ने भी लव-ज़िहाद के विरुद्ध क़ानून लाए जाने का विरोध किया है। और उससे भी अधिक आश्चर्य इस बात का है इस देश में बुद्धिजीवी एवं सेकुलर समझा जाने वाला एक ऐसा धड़ा है जो यों तो ऐसे मामलों में तटस्थ दिखने का अभिनय करता है पर जैसे ही कोई सरकार इसके विरुद्ध क़ानून लाने की बात कहती है, जैसे ही कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन साजिशन अंजाम दी गई ऐसी शादियों के विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, वह अचानक सक्रिय हो उठता है।

क़ानून की बात सुनते ही इन्हें सेकुलरिज्म की सुध हो आती है, संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार याद आने लगते हैं, निजता के सम्मान-सरोकार की स्मृतियाँ जगने लगती हैं।क़ानून लाने की सरकार की घोषणा सुनते ही मौन साधने की कला में माहिर ये तबका पूरी ताक़त से मुखर हो उठता है। जिन्हें लव ज़िहाद के तमाम मामलों को देखकर भी कोई साज़िश नहीं नज़र आती, कमाल यह कि उन्हें सरकार की मंशा में राजनीति जरूर नज़र आने लगती है। लव-ज़िहाद के विरुद्ध की गई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों की प्रतिक्रिया में कट्टरता और संकीर्णता अवश्य दिख जाती है। फिर वे अपने तरकश से अजब-गज़ब तर्कों के तीर निकालना प्रारंभ कर देते हैं। मसलन- क़ानून बनाने से क्या होगा? क्या पूर्व में बने क़ानूनों से महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध कम हो गए, जो अब हो जाएँगें? क्या अन्य किसी कारण से महिलाओं पर ज़ुल्म-ज़्यादती नहीं होती? क्या अब सरकारें दिलों पर भी पहरे बिठाएगी? क्या प्यार को भी मज़हब की सरहदों में बाँधना उपयुक्त होगा? क्या दो वयस्क लोगों के निजी मामलों में सरकार का हस्तक्षेप उचित होगा, आदि-आदि?

सवाल यह है कि यदि आसाम, गुजरात, कर्नाटक हरियाणा, हिमाचल,  उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश की सरकार अपने राज्य की आधी आबादी की सुरक्षा के लिए कोई क़ानून लाना चाहती है तो उसे लाने से पहले ही पूर्वानुमान लगा लेना, उन पर हमलावर हो जाना या उसमें राजनीति ढूँढ़ लेना कितना उचित है? क़ानून का तो आधार ही समाज में प्रचलित झूठ और फ़रेब के धंधे पर अंकुश लगाना होता है। पीड़ित को न्याय दिलाना और दोषियों को दंड देना होता है। क्या एक चुनी हुई सरकार का अपने राज्य की बहन-बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु पहल करना उचित और स्वागत योग्य कदम नहीं है? क्या लव-ज़िहाद के कारण उत्पन्न  विवाद और विभाजन के कारणों को दूर कर उनके समाधान के लिए निर्णायक पहल और प्रयास करना सरकार का उत्तरदायित्व नहीं है? क्या क्षद्म वेश में बदले हुए नाम, पहचान, वेश-भूषा, चाल, चेहरा, प्रतीकों के साथ किसी को प्रेमजाल में फँसाना धूर्त्त एवं अनैतिक चलन नहीं? रूप बदलने में माहिर इन मारीचों का सच सामने आने पर क्या ऐसे प्रेम में पड़ी हुई युवतियाँ या विवाहित स्त्रियाँ स्वयं को ठगी-छली महसूस नहीं करतीं?

क्या ऐसी स्थितियों में उन्हें अपने सपनों का घरौंदा टूटा-बिखरा नहीं प्रतीत होता? क्या छल-क्षद्म की शिकार ऐसी विवाहित या अविवाहित स्त्रियों को न्याय आधारित गरिमायुक्त जीवन जीने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए? और उससे भी अच्छा क्या यह नहीं होगा कि वे प्रपंचों एवं वंचनाओं की शिकार ही न हों, अतः ऐसी पहल एवं प्रयासों में क्या बुराई है? जो दल या बुद्धिजीवी क़ानून लाने की सरकार की इस पहल या निर्णय के विरुद्ध खड़े हैं, वे जाने-अनजाने महिलाओं के हितों, जीवन व भविष्य को दांव पर लगा रहे हैं। यह विडंबना ही है कि एक ऐसे दौर में जबकि तमाम बुद्धिजीवी बहुसंख्यक समाज की स्त्रियों पर हो रहे कथित अत्याचार, असमानता, भेद-भाव आदि पर तथाकथित एक्टिविस्टों के स्वर में स्वर मिलाते हों, स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री-स्वतंत्रता, स्त्री-अधिकारों आदि की बातें बड़े जोर-शोर से करते हों, प्रायः अंतर्धार्मिक विवाहों के संदर्भ में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार या स्त्रियों के ज़बरन धर्म परिवर्तन कराए जाने को लेकर मौन साध लेते हैं। और तो और नारीवादियों के मुख से भी इस मुद्दे पर विरोध का एक स्वर नहीं निकलता!

कथित उदार-धर्मनिरपेक्ष (लिबरल-सेकुलर) बुद्धिजीवी विवाह को दो वयस्कों का निजी मसला बताकर प्रायः लव-जिहाद का बचाव करते हैं या अंतर्धार्मिक विवाहों की पैरवी करते हैं। पर बड़ी चतुराई से वे यह छुपा जाते हैं कि यदि यह निजी मसला है तो बीच में मज़हब कहाँ से आ जाता है? क्यों लड़की या लड़के पर मज़हब बदलने का दबाव डाला जाता है? संगीतकार वाज़िद खान की पारसी पत्नी कमलरुख का मामला तो अभी अधिक पुराना भी नहीं हुआ! जो लोग इसे मोहब्बत करने वाले दो दिलों का मसला मात्र बताते हैं, वे यह क्यों नहीं बताते कि ये कैसी मोहब्बत है जो मज़हब बदलने की शर्त्तों पर की जाती है? प्यार यदि धड़कते दिलों और कोमल एहसासों का दूसरा नाम है तो इसमें मज़हब या मज़हबी रिवाज़ों-रिवायतों का क्या स्थान और कैसी भूमिका? चूँकि अंतर्धार्मिक सभी विवाहों में जोर धर्म बदलवाने पर ही होता है, इसलिए इसे लव-ज़िहाद कहना सर्वथा उचित एवं तर्कसंगत है। जैसे सशस्त्र ज़िहाद आज पूरी दुनिया के लिए एक वैश्विक समस्या है वैसे ही लव-ज़िहाद। इस पर अंकुश लगाना सरकारों की जवाबदेही भी है और जिम्मेदारी भी।

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

- Advertisement -

Latest News

Recently Popular