दोस्तो
आपको याद होगा 9 फरवरी को जिस दिन संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के तीन वर्ष पूरे हुए थे, उस दिन जेएनयू में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। अफजल की फांसी के विरोध में आयोजित हुए दिनांक 9 फरवरी वर्ष 2016 के कार्यक्रम को एक निम्न कोटी की निकृष्ट मानसिकता का रंग उस समय देखने को मिल गया जब कैंपस परिसर में ‘भारत की बर्बादी’, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे ईंशाअल्लाह ईंशाअल्लाह’ और ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे नारे लगने लगे।
इस घटना का वीडियो आते ही उन नारा लगाने वाले तथाकथित विद्यार्थीयों व जेएनयू के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। शनिवार आते-आते तक JNU छात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार को राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया तो वहीं 14 और छात्रों की गिरफ्तारियां हुईं।
आइए देखते हैं, आखिर राजद्रोह के अपराध के संदर्भ में हमारा कानून क्या कहता है?
पृष्ठभूमी
भारतीय स्वतंत्रता का बिगुल फूकने वाले शूरवीर क्रांतीकारियों के आंदोलन को कुचलने व उनकी गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिये फिरंगीयों ने 1860 ई. में ये राजद्रोह का कानून बनाया “जिसके अनुसार अंग्रेजी सरकार की नितियों, उनके अत्याचारों, उनके भ्रष्टाचार व दमनकारी कार्यवाहीयों के विरूद्ध आवाज उठाने वालो, उनकी आलोचना करने वालो व स्वतंत्रता के लिये जनता को प्रेरित करने वालो को राजद्रोह के मुकदमे मे फसा कर सजा दे दी जाती थी!
अंग्रेजों ने इस राजद्रोह के कानून को वर्ष 1870 में भारतीय दण्ड संहिता 1860 में सम्मिलित कर लिया!
स्व श्री बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में “देश का दुर्भाग्य” नामक शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसमें ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध किया गया था। इस कारण से उनको भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अन्तर्गत राजद्रोह के आरोप में 27 जुलाई 1897 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 6 वर्ष के कठोर कारावास के अंतर्गत माण्डले (बर्मा) जेल में बन्द कर दिया गया था।
उक्त घटना के बाद 1970 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दंड संहिता में धारा 124-ए जोड़ा था जिसके अंतर्गत “भारत में विधि द्वारा स्थापित ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध की भावना भड़काने वाले व्यक्ति को 3 साल की कैद से लेकर आजीवन देश निकाला तक की सजा दिए जाने का प्रावधान था।”
1898 में ब्रिटिश सरकार ने धारा 124-ए में संशोधन किया और दंड संहिता में नई धारा 153-ए जोड़ी जिसके अंतर्गत “अगर कोई व्यक्ति सरकार की मानहानि करता है यह विभिन्न वर्गों में नफरत फैलाता है या अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का प्रचार करता है तो यह भी अपराध होगा।।
खैर उस समय हमारा देश परतंत्रता की जंजीरो में जकड़ा था पर आज स्वतंत्रता का आनंद ले रहा है!
आज के वक्त में यदि “कोई व्यक्ति हमारे देश के टुकड़े टुकड़े करने के नारे लगाता है और सरेआम भारत की बर्बादी तक जंग लड़ने की बात करता है” तो क्या ये राजद्रोह के अपराध की श्रेणी मे आता है या नहीं…
चलिये पहले देखते हैं कि धारा 124A क्या कहती है?
“जो कोई बोले गये, लिखे गये शब्दों द्वारा या संकेतो द्वारा या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, ये पैदा करने का प्रयत्न करेगा, अप्रीती प्रदिप्त करेगा या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास के जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा सा जुर्माना से दण्डित किया जायेगा”
अर्थात साधारण शब्दो में यदि माने तो जो कोई भी व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, या राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, तो उसे आजीवन कारावास (जुर्माने या जुर्माने के बगैर) या तीन साल की सजा (जुर्माने या जुर्माने के बगैर) या फिर जुर्माना भरने की सजा हो सकती है!”
राजद्रोह उस समय पहली बार जबरदस्त प्रकाश में आया जब श्री केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962 AIR 955, 1962 SCR Supl. (2) 769) में सर्वोच्च न्यायालय के पाँच न्यायधिशों की खण्ड पीठ ने 20 जनवरी 1962 को फैसला देते हुए धारा 124A को संविधान सम्मत तो बताया था, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट कहा था कि “शब्दों या भाषणों को तभी राजद्रोह माना जा सकता है, जब उनके द्वारा भीड़ को उकसाया गया हो और भीड़ हिंसा पर उतर आई हो। यदि शब्दों या भाषण से हिंसा नहीं हुई है तो वे राजद्रोह का आधार नहीं हो सकते। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि नागरिकों को सरकार के बारे में अपनी पसंद के अनुसार बोलने, लिखने का अधिकार है। केवल उन्हीं गतिविधियों में मामला दर्ज किया जा सकता है, जहां हिंसा का सहारा लेकर अव्यवस्था तथा सार्वजनिक शांति भंग करने की नीयत हो।”
विदित हो कि श्री केदारनाथ सिंह ने 26 मई 1953 को बिहार के मोंगूर जिले के बरौनी गाव मे एक भाषण दिया था जिसके कारण बेगुसराय पुलिस थाने मे उनके विरूद्ध राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया था! सुनवाई के पश्चात निचली अदालत ने उन्हें अपराधी माना था और धारा 124A व 505B के तहत एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी थी! ईस आदेश को हाई कोर्ट मे चुनौती दी गयी अपील दाखिल करके! उच्च न्यायालय के न्यायधीश स्व श्री नकवी इमाम (Naqui Imam) ने अपने 9 अप्रैल 1956 को पारित किये गये आदेश के द्वारा निचली अदालत के फैसले को कायम रखा और अपील खारिज कर दिया! उसके पश्चात निचली अदालत व उच्च न्यायलय से फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनौती दी गयी और फिर एक एतिहासिक आदेश पारित किया गया!
खण्ड पीठ ने स्पष्ट रूप से बताया की “राजद्रोही आचरण शब्दों द्वारा, विलेख द्वारा, या लेखन द्वारा हो सकता है। आरोपियों के उद्देश्य के अनुसार राजद्रोह के पांच विशिष्ट प्रमुखों (कारकों) की गणना की जा सकती है।
यह या तो हो सकता है:-
१ . राजा, सरकार, या संविधान के खिलाफ या संसद या न्याय प्रशासन के खिलाफ अप्रभाव को उत्तेजित करने के लिए;
२. गैरकानूनी तरीकों से, चर्च या राज्य में किसी भी परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिए;
३. शांति व्यवस्था में अशांति भड़काने के लिए;
४. राजा के विषय में असंतोष बढ़ाने के लिए;
५. वर्ग घृणा को उत्तेजित करने के लिए ।
यह देखा जाना चाहिए कि राजनीतिक मामलों पर आलोचना स्वयं राजद्रोही नहीं होती। परीक्षण वह तरीका है जिसमें इसे बनाया जाता है। क्या ईमानदार चर्चा की जा सकती है और इसकी अनुमति है।कानून तभी हस्तक्षेप करता है जब चर्चा निष्पक्ष आलोचना की सीमा से बाहर चली जाती है।”
इसलिए धारा १२४अ के अर्थ के अंतर्गत कोई भी कार्य जिसमे सरकार के प्रति घृणा फैलाकर उसकी अवमानना करने का प्रभाव हो या उसके विरुद्ध असहमति पैदा करता हो, दण्डनात्मक कानून की परिधि में होगा क्योंकि कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति अरुचि की भावना या इसके प्रति शत्रुता वास्तविक हिंसा के उपयोग से सार्वजनिक अव्यवस्था की प्रवृत्ति का विचार आयात करती है या हिंसा के लिए उकसाती है।
दूसरे शब्दों में, किसी भी लिखित या बोले गए शब्द, आदि, जिनमें हिंसक तरीकों से सरकार को अधीन करने का विचार निहित है, जिन्हें ‘क्रांति’ शब्द में अनिवार्य रूप से शामिल किया गया है, को प्रश्नगत धारा द्वारा दंडनीय बनाया गया है।”
ऊपर दिए गए तथ्यों के अंतर्गत, सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, राजद्रोह के अपराध का सार उन कार्यों की आवश्यकता होती है, जिनका उद्देश्य हिंसक तरीकों से “सरकार को वश में करने का प्रभाव” होता है।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया की क्या राजद्रोह नहीं है।
“सरकार के उपायों के प्रति उदासीनता व्यक्त करने के लिए कठोर शब्दों का उपयोग उनमे “सुधार या कानूनी तरीके से परिवर्तन लाने की दृष्टि से” किया जाना” राजद्रोह नहीं है।
कठोर शब्दों में सरकार के कार्यो के प्रति असंतोष व्यक्त करने वाली टिप्पणियाँ जो हिंसा के कृत्यों द्वारा सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने के लिए झुकाव उत्पन्न करने वाली भावनावो को ना भड़काती हो, राजद्रोह नहीं है।
शत्रुता और अरुचि की उन भावनाओं को भड़काए बिना जो सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा का उपयोग करने के लिए उत्साह प्रदान करती हैं, सरकार या उसकी एजेंसियों के उपायों या कृत्यों पर कड़े शब्दों में टिप्पणी करना, ताकि लोगों की स्थिति को सुधारने के लिए या कानूनन तरीकों से उन कृत्यों या उपायों को रद्द करने या बदलने के लिए सुरक्षित किया जाए, राजद्रोह नहीं है।
सर्वोच्च न्यायलय ने यह भी स्पष्ट किया कि “नागरिक को सरकार या उसके उपायों के बारे में जो कुछ भी पसंद है उसे कहने या लिखने का अधिकार है, आलोचना या टिप्पणी के माध्यम से “जब तक वह लोगों को कानून के द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाता नहीं है या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने के इरादे से न किया गया हो”। 1995 के बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि दो व्यक्तियों द्वारा यूं ही नारे लगा दिए जाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता। इसे सरकार के विरुद्ध नफरत या असंतोष फैलाने का प्रयास नहीं माना जा सकता।
उपर्युक्त विश्लेषण का सूक्ष्मता पूर्वक काट छाँट विच्छेदन करने के पश्चात अब मैं ये आप के ऊपर छोड़ता हूँ की ९ फरवरी २०१६ को एक आतंकवादी की मौत पर मातम मानते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में “भारत तेरे टुकड़े होंगे”, “भारत की बर्बादी” “पाकिस्तान जिंदाबाद” के जो नारे लगाए जा रहे थे वो “राजद्रोह” की श्रेणी में आते हैं या नहीं।
क्या इन्हे वॉक अभिव्यक्ति का अधिकार मानकर छोड़ दिया जाना चाहिए, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले शाहीन बाग और उसकी आड़ में हुए दिल्ली के दंगो को याद कर लेना। भारत माता की जय। जय हिन्द।
नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)